राजनैतिक हलवाही के खिलाफ बिहार का लेनिन

बाबू जगदेव प्रसाद की  शहादत दिवस पर

सुभाष चंद्र कुशवाहा

बाबू जगदेव प्रसाद का आज शहादत दिवस है। उनका समय और समाज, दोनों जिन विडंबनाओं से गुजरे हैं और उन्होंने जिस वैचारिकी की नींव आजादी के बीस साल बाद रख दी थी, उनके निहितार्थों में शामिल, जातिवादी उत्पीड़न से आजादी, नहीं मिली है। जो जबरे शोषक हैं, अपराधी हैं, सत्ता उन्हीं के दरवाजे की रेहन है। उन निहितार्थों की मुक्तिकामी चेतना को समझे बिना कोई जगदेव प्रसाद के विचारों और सोच को जातिवादी मुलम्मे से ढंकना चाहेगा या कोई उन्हें केवल एक क्षेत्रीय या जातिवादी या अधिक से अधिक ओबीसी नेता के रूप में व्याख्यायित करना चाहेगा। यही भारतीय जातिवादी समाज के प्रभूवर्गों की स्वार्थी और शातिर चाल रही है, जिनसे हर प्रगतिशील और समतावादी विचार घायल किया जाता रहा है।

जगदेव बाबू बिहार के लेनिन कहे जाते हैं। उनकी वैचारिकी में चाकरी नहीं, स्वामित्व की लड़ाई है। हक की लड़ाई है। मान-सम्मान की लड़ाई है। मानवीय समानता की लड़ाई है। वह धन, धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है, इस बात को रखते हुए आर्थिक और राजनैतिक अधिकारों के प्रति सचेत हैं।

बाबू जगदेव प्रसाद को 5 सितम्बर को जिस समय वर्दीधारी अपराधियों ने हमसे छीन लिया, वह जेपी आंदोलन का जमाना था, जो कमोबेश दक्षिणपंथी वैचारिकी के गर्भ से उपजा था। वह बिनोवा के भू-दान की दान और दया की पृष्ठभूमि पर तैयार हुआ था। जगदेव बाबू की तरह धन, धरती और राजपाट में नब्बे भाग लेने का माद्दा वहां नहीं था। जेपी कुलीन सामंतों के सहचर थे। चहेते थे। यद्यपि उनका आंदोलन ऊपरी तौर पर जनान्दोलन जैसा दिखता था। जेपी आंदोलन ने बहुतों को भुलावे में रखा। वह परिवर्तनगामी दिखा मगर जो परिवर्तन बाबू जगदेव प्रसाद चाहते थे, उसको निगल लिया। वह लोहिया का कथन, ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ को आगे बढ़ाते हैं। वह ‘नब्बे भाग हमारा है’ की बात करते हैं यानी कि उनके तेवर, लोहिया से पचास प्रतिशत अधिक हैं। वह लोहिया से अलग होकर 25 अगस्त 1967 को शोषित दल की स्थापना करते हैं। उन्होंने शोषित दल के गठन के अवसर पर जिस समाजवाद की बात की थी, वह वामपंथी वैचारिकी की कोख से निकली सामंतवाद विरोधी समाजवादी अवधारणा थी।

बाबू जगदेव प्रसाद नक्सलबाड़ी चेतना से प्रभावित हुए बिना न रह सके थे। बस अंतर इतना था कि उनकी समाजवादी अवधारणा में जातिदंश का प्रश्न मूल में था। जाति की पीड़ा से वर्गीय अवधारणा का निर्माण चाहते थे। पहले जाति का प्रश्न इस धरती पर खड़ा है। उससे टकराये बिना वर्ग की अवधारणा साकार नहीं हो सकती। जाति उत्पीड़न से लड़ते हुए ही वर्गीय लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, बाबू जगदेव प्रसाद के विचारों का यही वामपंथी दर्शन था। उन्होंने तभी घोषण कर दी कि ‘‘ऊंची जाति वालों ने हमारे बाप-दादों से हलवाही करवाई है। मैं उनकी राजनीतिक हलवाही करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं।’ यानी जमीन का स्वामित्व लेना है, वसंत के व्रजनाद की तरह, चाहे वह छीन कर क्यों न लेना पड़े। उनके गृह जनपद, जहानाबाद में वामपंथ के लिए ऊर्वरक जमीन तैयार करने में बाबू जगदेव प्रसाद का योगदान सदा याद किया जायेगा।

वह जिस आंदोलन की नींव रख रहे थे, उसके लिए लगभग सौ साल की योजना का खाका खींचा था उन्होंने। उस खाके में वह स्वयं पहली पीढ़ी के थे। उन्हें बलिदान देना था। बाबू जगदेव ने वह बलिदान दिया भी। जातिवादी अपराधियों द्वारा मारे गए। वह उसके बारे में शायद साफ-साफ अनुमान लगा चुके थे। उनका मानना था कि इस पहली पीढ़ी के लोग बलिदान देंगे तो दूसरी पीढ़ी को महज जेल जाना होगा। उसके बाद राज करने का समय आयेगा।

जगदेव बाबू के जाने के बाद, पहली पीढ़ी के बाकी लोग, उनकी तरह आक्रामक राजनीति से पीछे रहे। यही वह विचलन था, बाबू जगदेव प्रसाद के सपनों के पूरा न होने का।

उत्तर प्रदेश के रामस्वरूप वर्मा के साथ 7 अगस्त 1972 को पटना में शोषित समाज दल का गठन कर डाला। वर्मा जी राष्ट्रीय अध्यक्ष और वह महामंत्री बनाए गए।

यह विडंबना ही कही जायेगी कि जिस समय जेपी आंदोलन चल रहा था और जिसकी बागडोर सामंतों के हाथों में थी, उसी समय जगदेव बाबू के सात सूत्रीय मांगों का आंदोलन, सामंतों को खटक रहा था।  एक साजिश के तहत, 5 सितम्बर 1974 को कुर्था में सामंतों के शह पर पुलिस ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। उनके वास्तविक हत्यारे वे ही थे जो बाद में लक्ष्मणपुर बाथे और शंकरपुर बिगहा नरसंहार में दिखे।

बाबू जगदेव प्रसाद का बलिदान, स्थानीय और किसी जातिविशेष के लिए नहीं है, उसका आधार व्यापक और समतावादी है। उनके सपनों का इतिहास भगत सिंह के सपनों से जुड़ता है।( सुभाष चंद्र कुशवाहा)

 






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