स्वरा भास्कर की शादी के बहाने समझे समाज की मानसिकता

स्वरा भास्कर की शादी के बहाने समझे समाज की मानसिकता

पुष्यमित्र

सच तो यह है कि भले हम सबके हाथ में मोबाइल आ गया है और हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के खिलौने से खेलना सीख गए हो मगर ज्यादातर भारतीय आज भी मानसिक तौर पर मध्यकालीन युग में ही अटके। मध्यकालीन युग यानी युद्ध, बर्बरता और लूट खसोट। जब एक राज्य या एक देश या एक कबीला दूसरे पर हमले करता और लूटपाट मचाता। जीतने वालों का हक था कि वह पराजित समाज का सबकुछ छीन ले। धन भी और स्त्रियां भी।

क्योंकि तब स्त्रियां भी धन ही मानी जाती थी, आज भी मानसिक तौर पर बहुत सारे लोग स्त्रियों को धन ही मानते हैं और शादियों को भी इसी नजरिए से देखते हैं। वे विवाह को दो स्वतंत्र व्यक्तियों के मिलन के रूप में नहीं देखते, वे समझते हैं कि पुरुष पक्ष का एक आदमी किसी दूसरे समाज की एक स्त्री को जीत आया है। विवाह दो परिवारों का मिलन नहीं होता, वह एक परिवार, एक समाज या एक इलाके की दूसरे पर जीत होती है। अगर अंतरजातीय या अंतरधार्मिक हो तो भी वर पक्ष विजित होता है और वधू पक्ष पराजित। तभी तो बेटी के बाप का सर झुका होता है और बेटे का बाप पूरे विवाह समारोह में सीना तानकर ऊंची पगड़ी में घूमता है और हर तरह की उत्कृष्ट सेवा पर अपना हक समझता है।

स्वरा भास्कर की शादी को ज्यादातर लोग इसी तरह देख रहे। चाहे इस विवाह के विरोधी हो या समर्थक। ज्यादातर विरोधियों को लग रहा है कि स्वरा ने उनकी नाक कटवा दी, गलत फैसला किया। वही ज्यादातर समर्थक अपनी कॉलर ऊंची किए घूम रहे, जैसे मैदान फतह कर लिया हो। दिलचस्प है कि इस पूरे मसले पर महिलाओं की प्रतिक्रिया सबसे सधी हुई है। वे इस पूरे मसले को संतुलित तरीके से देख रही हैं।

मतलब यह कि ज्यादातर भारतीय पुरुष मध्यकालीन युग में अटके हैं जबकि महिलाएं बड़ी संख्या में आधुनिक हो रही हैं। आधुनिक नजरिए को अपना रही हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करती हैं।

लेखक प्रवीण झा ने भारतीय रिनैसां पर किताब लिखी है, मगर कई दफा आज के भारतीय समाज को देखकर सोचता हूं कि क्या सचमुच भारत में रिनैसां आया है? हम क्या सचमुच जाति, धर्म, लिंग और दूसरे पूर्वाग्रहों से उबर पाए हैं? हम क्या आज भी कबिलाई और बर्बर मानसिकता से पूरी तरह मुक्त हो पाए हैं?

इंसान का विकास सिर्फ आर्थिक विकास नहीं होता। अगर आर्थिक विकास ही सबकुछ होता तो आज अरब देश सबसे विकसित माने जाते। जब तक आप आर्थिक विकास के साथ साथ मानसिक विकास भी नहीं करते, तब तक वह विकास बेमतलब है। और मानसिक विकास क्या है, उसे समझने के लिए रिनैसां को समझें। और वह न पढ़ें तो सिर्फ एक बेसिक बात समझ लें कि समानता और स्वंतत्रता का सह अस्तित्व ही असल बात है।

सब लोग बराबर हैं और सब अपने तरीके से जीने के लिए आजाद हैं, तब तक जबतक किसी की आजादी किसी और के जीवन को नुकसान न पहुंचाने लगे। क्या हम इस तर्ज पर स्वरा की शादी को देखने समझने के अभ्यस्त हुए हैं? क्या दूसरे तमाम मसलों को हम इस तरह देख पाते हैं? सोचिएगा। यह भी सोचिएगा कि एक देश के तौर पर हम किस तरह जा रहे हैं। मध्यकालीन बर्बरता की तरफ या आधुनिकता की तरफ।






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