क्यों नीतीश को इतना भाव देती है भाजपा?

Pushy Mitra

उस वक्त जब नीतीश अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं, उनकी साख लगभग मिट्टी में मिलती नजर आ रही है. मुजफ्फरपुर कांड में पहले चुप्पी, फिर सुस्त कार्रवाई ने उनकी छवि किसी खलनायक जैसी बना दी है. ऐन उसी वक्त भाजपा राज्य सभा के उप सभापति पद के लिए जदयू के एक सांसद को उम्मीदवार बनाती है. आखिर कौन सी वजह है कि महज दो लोकसभा सीट और बहुत सीमित वोट बैंक वाली पार्टी जदयू के नेता नीतीश को भाजपा इतना भाव देती है? इतना ही नहीं, उसके सांसद को राज्य सभा का उप सभापति बनाने के बाद मोदी उसकी शान में कसीदे पढ़ते हैं और उसकी सीट पर जाकर हाथ मिलाते हैं.

ऐसा पहली दफा नहीं हुआ है. कुछ लोगों को शायद याद हो, पिछले साल जुलाई के महीने में जब बिहार में महागठबंधन की खटपट चरम पर थी और राजद ने लगभग आधे जदयू को हाइजैक करने का प्लान बना लिया था, तभी भाजपा ने रामनाथ कोविंद को अपना राष्ट्रपति बनाने की घोषणा की थी. उस वक्त भी विश्लेषकों ने कहा था कि इस उम्मीदवार के चयन में अन्य वजहों के साथ-साथ नीतीश को खुश करना भी एक बड़ा फैक्टर है, वरना भाजपा में दलित नेताओं की कमी नहीं थी.

तब कोविंद बिहार के राज्यपाल थे. राज्य में विरोधी गठबंधन की सरकार थी, मगर कोविंद से नीतीश का नाता काफी नजदीकी का था. इस फैसले पर नीतीश ने प्रसन्नता जाहिर की थी और कुछ ही दिनों बाद महागठबंधन टूट भी गया.

मेरे मन में जब यह सवाल उठता है कि आखिर इस पद के लिए हरिवंश जी को क्यों चुना गया तो कोई मजबूत तर्क नहीं मिलता, सिवा इसके कि हरिवंश जी के बहाने नीतीश को खुश करने की कोशिश की गयी है. क्योंकि भाजपा चाहती तो सीधे बीजद से बात करके उसके उम्मीदवार को चुनाव में उतार सकती थी, जो इस चुनाव का सबसे डिसाइडिंग वोटर साबित हुआ. मगर उसने जदयू को चुना. और नीतीश ने मित्रता निभाते हुए हरिवंश जी को मौका दिया. संभवतः यह सब अमित शाह की पिछली यात्रा के दौरान हुआ होगा, जब शाह ने नीतीश के साथ ब्रेकफास्ट और डिनर दोनों किया था. क्योंकि तब सीटें तय नहीं हुई थी, जाहिर है कुछ तो तय हुआ होगा, जिसकी वजह से दोनों दलों की कटुता घुलती नजर आयी थी. उससे पहले केसी त्यागी भाजपा पर लगातार हमलावर थे.

बहरहाल यह विषयांतर हो गया, मसला यह था कि भाजपा ने नीतीश को क्यों चुना. हालांकि इस चयन का उसे फायदा हुआ. आज इसी वजह से राज्य सभा में बहुमत नहीं होने पर भी एनडीए ने अपने उम्मीदवार को जीत दिलायी और देश को मैसेज दिया कि संयुक्त विपक्ष की बात कितनी खोखली है और कांग्रेस के रणनीतिकार कितने सुस्त और नातजुर्बेकार हैं.

और यह सिर्फ नीतीश की वजह से हुआ. बीजद ने साफ कहा कि उन्होंने जदयू को अपना समर्थन दिया है, भाजपा को नहीं. शिवसेना और अकाली दल जैसे रूठे दल जदयू के नाम पर नरम हुए. जबकि केजरीवाल की पार्टी इस बात की नाराजगी जाहिर करती रही कि कांग्रेस ने उनसे पूछा तक नहीं.

दरअसल सोशल मीडिया में लोग चाहे जो कहें, पर 2019 में सरकार जोड़-तोड़ से ही बनेगी. भाजपा अपने ढलान पर है और बहुमत से काफी पीछे रहेगी. ऐसे में उसे ढेर सारे सहयोगी दलों की जरूरत तो होगी ही, साथ ही उन दलों को जोड़े रखने के लिए नीतीश जैसे एक समाजवादी चेहरे की भी जरूरत होगी. क्योंकि भाजपा की विचारधारा का जो एक्सट्रीम है, उससे देश की कई क्षेत्रीय पार्टियां एक दूरी बनाकर रखना चाहती हैं.

इसी वजह से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में जार्ज और शरद जैसे समाजवादी और कथित रूप से सेकुलर चेहरों से काम चलाया गया, जो एनडीए के कन्वेनर थे, और सहयोगी दलों को जोड़ कर रखते थे. इसी वजह से राजनीतिक रूप से अत्यधिक कमजोर होने के बावजूद नीतीश भाजपा के लिए महत्वपूर्ण हैं. भाजपा ने सबको छोड़कर जदयू के उम्मीदवार को राज्य सभा के उपसभापति पद के लिए मौका दिया है. और पीएम मोदी ने खूब तारीफें भी की हैं.

फिलहाल तो नीतीश इसे अपने राजनीतिक उत्थान का एक नया अवसर मान कर चल रहे होंगे, मगर सवाल यह है कि जब नीतीश अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा फिर से हासिल कर लेंगे, जैसा कि वे करते रहे हैं. तब वे क्या फैसला लेंगे. क्योंकि राहुल गांधी की नीतीश को लेकर कमजोरी भी छिपी हुई नहीं है, जो इस चुनाव में भी जाहिर हुई है.






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