डॉन आनंदमोहन की रिहाई, बिहार में दलित राजनीति और घड़ियाली आंसुओं की बाढ़

डॉन आनंदमोहन की रिहाई, बिहार में दलित राजनीति और घड़ियाली आंसुओं की बाढ़

संजीव चंदन

कभी राजपूत ऑयकन की तरह प्रजेक्ट किये गये बंदूक धारी, डॉन आनंद मोहन ने आंध्रप्रदेश से आने वाले बिहार कैडर के दलित आईएएस जी कृष्णय्या की हत्या के अपराध की सजा 14 सालों तक जेल में रहकर काटी।

आनंद मोहन ने एक रिकॉर्ड कायम किया। पटना हाईकोर्ट से मौत की सजा कन्फर्म पाकर वह देश का पहला राजनेता बना, जिसे मौत की सजा सुनाई गयी हो। बाद में मौत की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया था।

अब बिहार ने अपने कारा क़ानून से एक क्लॉज हटाकर आनंद मोहन की रिहाई का रास्ता साफ कर दिया है। यह क्लॉज देश के सभी राज्यों में नहीं है। बिहार में था।

नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति की ओर रुख कर रहे हैं तो ऐसे में उनके इस निर्णय के दोहरे असर होने हैं। एक उनके खिलाफ दलित भावनाओं को उभारने की कोशिश उनके विरोधी करेंगे और दूसरा महागठबंधन की राजनीति आनंद मोहन को आगे कर राजपूत वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करेगी।

इस पूरी राजनीति के आईने में जरा बिहार में दलित राजनीति को देखें और आनंद मोहन के हम्माम में नंगी तस्वीरों को समझें-किसकी, किसकी है।

तब की लोकप्रिय पत्रिका माया के 31 दिसंबर 1999 का आवरण अंक जो आनंद मोहन पर केंद्रित था

1994 में दलित आईएसएस की हुई हत्या के बाद आनंद मोहन तत्कालीन राजनीति की अनिवार्य जरूरत बनता गया। राजपूत युवाओं के आइकॉन बन गया। 69 वर्षीय आनंद मोहन अब जेल से बाहर आ रहा है।

हत्या के तुरत बाद आनंद मोहन और उनका परिवार बिहार की राजनीति में अपरिहार्य कैसे बना दिया गया? इस सवाल के जवाब में ही दलित राजनीति के प्रति, मुद्दों के प्रति बिहार में संवेदनशीलता की सीमा और आज दलित राजनीति के नाम पर घड़ियाली आंसू बहा रहे लोगों को समझा जा सकता है।

आनंद मोहन और आनंद मोहन का परिवार 1994 से लेकर अभी तक सभी दलों का समर्थन प्राप्त करता रहा है। सवाल पूछिए कि जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार की समता पार्टी के साथ कौन-कौन थे, जब आनंद मोहन भी उसके अनिवार्य हिस्सा थे। समता पार्टी के साथ किन दलों ने चुनाव लड़ा। क्या सीपीआईएम एल ने नहीं लड़ा? क्या भाजपा ने नहीं लड़ा? क्या यही पार्टी जब जदयू बनी तो भाजपा सरकार में शामिल नहीं रही। सरकार बनाने में किन-किन जाति समूहों और नेताओं का साथ लिया था जदयू-भाजपा ने? क्या राष्ट्रीय जनता दल आनंद मोहन के परिवार का शरण स्थल नहीं रहा?

इन सवालों के साथ कुछ सवाल और जानकारियां आपके लिए साझा हो जाएं तो बिहार में दलित राजनीति और मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता की स्थिति समझ में आ जायेगी।

क्या आप जानते हैं कि बिहार में आज भी ‘हरिजन’ कहना और सुनना आम बात है, सहज है?

क्या आप जानते हैं कि बिहार में आज भी बाबा साहेब अंबेडकर के प्रति वह सम्मान और स्वीकार्यता नहीं है, जो समतामूलक समाज की परिकल्पना वाले राजनीतिक वातावरण में होना चाहिए?

क्या आप जानते हैं कि बाबुजी जगजीवन राम और महात्मा गांधी की ‘दलित दृष्टि’ ही बिहार की राजनीति और राजनेताओं की मूल दृष्टि रही है, है?

हुआ यूं कि जिस वक्त दलित आईएएस की हत्या हुई उस वक्त लालू प्रसाद अपने राजनीतिक परफॉर्मेंस के चरम पर थे। दलित, अतिपिछडों, पिछड़ों- सम्पूर्ण बहुजन समाज की आकांक्षाओं के प्रतिनिधि थे। इसलिए भी यह हत्या किसी बड़े दलित-आक्रोश को जन्म नहीं दे पायी।

उसके बाद नीतीश कुमार ने कई स्तरों पर बिहार की राजनीति को समावेशी बनाकर दलित-अति पिछड़ी जातियों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बना लिया खुद को। बिहार के कारा कानून में सुधार और आनंद मोहन की रिहाई इसलिए भी कोई दलित-आंदोलन का मुद्दा नहीं बनने जा रहा है।

डॉन आनंद मोहन की फ़ाइल फोटो

सीपीआईएमएल भी दलितों के बीच एक विश्वसनीय आवाज है। भाजपा जो इस निर्णय को मुद्दा बना रही है, उसके दोहरेपन को बिहार का समाज समझता है। आज भी उसके पाले में कई नेता हैं, जिन्होंने खूनी रणवीर सेना का समर्थन किया था।

नीतीश कुमार ने जो फैसला कारा-कानून में बदलाव का किया है वह संदेश के तौर निश्चित ही उनकी राजनीति के लिए बेहद अफसोसनाक है। नोशनल तौर पर यह फैसला दलित-राजनीति और मुद्दों के लिए एक सेटबैक है। लेकिन बिहार से इसका प्रतिरोध भी नोशनल ही होने जा रहा है , उसके कारणों, उसकी पृष्ठभूमि की विस्तृत चर्चा मैंने इस पोस्ट में की है।

 






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