अद्भुत और अविश्वसनीय मनु स्मृति :सभ्यता के प्रारंभिक दौर में ही किया गया एक सुनियोजित षड्यंत्र

सुबोध गुप्ता 
वर्ण का आधार ही घोर विवादित :
ऋग्वेद का दसवां मंडल विवादित है जिसके आधार पर ब्रम्हा के 4 अंगों से 4 वर्णों की उत्पति की बात कही जाती है . दसवें मण्डल, जिसमे 191 सूक्त हैं, को ‘पुरुष सूक्त’ के नाम से जाना जाता है. इसके रचयिता ऋषि गण त्रित, विमद, इन्द्र,श्रद्धा, कामायनी, इन्द्राणी, शची आदि ने एक विराट पुरुष की चर्चा करते हुए उनके चार प्रमुख अंगों का वर्णन किया है. लेकिन अंगो के अर्थ और प्रयोजन पर गंभीर विवाद होने के अतिरिक्त वह विराट पुरुष कौन था स्पष्ट नहीं है, ऋग्वेद, मंडल 10 का विवादित सूक्त 90 मन्त्र 11 में ‘यत्पुरुषं’ लिखा हुआ है .
तथापि ब्राम्हण ग्रंथों, मनवादि धर्म शास्त्रों एवं अनेकों व्याख्याकारों का मानना है कि वह प्रजापति ‘ब्रम्हा’ हैं जिनके 4 अंगों से ही 4 वर्ण की उत्पति हुई है . मनु स्मृति का अनुवाद करने वाले पंडित गिरजा प्रसाद द्विवेदी सूक्त 1/31,32,33 का अर्थ बताते हैं कि ‘ परमात्मा ने लोक की वृद्धि के लिए, ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को पैदा किया. इनमे विराट रूप परमात्मा के मुख से ब्राम्हण,भुजा से क्षत्रिय,उरु से वैश्य और पैर से शूद्र उत्पन्न हुए. इस संसार के दो भाग करके एक पुरुष और दूसरा स्त्री बनाया. उस विराटपुरुष रूप प्रजापति ने तप करके जिस पुरुष को उत्पन्न किया वही मैं,सारे विश्व का बनाने वाला हूँ –ऐसा आपलोग जानिए. मैंने प्रजा श्रृष्टि की इच्छा से कठिन तप करके पहले दस महर्षियों को उत्पन्न किया.’
चूँकि वेद, पुराण आदि का मैं विद्यार्थी नहीं अतः कुछ भ्रान्ति हो रही है , यथा :
जब परमात्मा ने अभी एक भी मनुष्य उत्पन्न नहीं किया था तो चार वर्ण पहले ही क्यों बना दिए? स्त्री–पुरुष बाद में बनाये जबकि मनुष्य और उसका वर्ण पहले ? कहा जाता है कि प्रजापति ने ही पूरे विश्व का सृजन किया है तो फिर उन्होंने तप क्यों और किसका किया ? तप पश्चात किस पुरुष को उत्पन्न किया जिसने सारे विश्व को बनाया? जिसने प्रजा श्रृष्टि की इच्छा से कठिन तप करके पहले दस महर्षियों को यदि उत्पन्न किया, तो फिर इनमे से कौन किस वर्ण का था? परमात्मा के मुख से ब्राम्हण,भुजा से क्षत्रिय,उरु से वैश्य और पैर से शूद्र उत्पन्न हुए जबकि महाभारत के शांति पर्व में लिखा है कि :
तत कृष्णो महाभाग: पुनरेव युधिष्ठिर ,ब्राम्हणानां शतं श्रेष्ठं मुखादेवासृजत्प्रभुः 
वाहुभ्यां क्षत्रियशतं वैश्यानामूर्तः शतं ,पद्भ्यां शूद्र शतं चैव केशवो भरतषर्भ ‘
अर्थ : हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर , फिर महाभाग कृष्ण ने मुख से सौ श्रेष्ठ ब्राह्मणों को , दोनों बाहुओं से सौ क्षत्रियों को, दोनों जांघों से सौ वैश्यों को तथा दोनों चरणों से सौ शूद्रों को उत्पन्न किया.
ब्रम्हा हों या श्रीकृष्ण ने अपने अंगों से मनुष्यों को पैदा किया था को स्वीकार करना अत्यंत कठिन है, क्योंकि :-
एक मात्र सत्य यह है कि कोई भी जीव अपने माँ के जननेंद्रिय से ही उत्पन्न हो सकता है. आखिर प्रकृति का सृजन कर्ता अपनी ही अटल नियम के विरुद्ध अप्राकृतिक रूप से किसी जीव की उत्पति कैसे कर सकता है? यजुर्वेद 40/8 के सहित प्रायः अन्य सभी धर्मों के शास्त्र इसकी पुष्टि करते हैं कि सृजन कर्ता निराकार है. यद्यपि अपने बचन ‘यदा यदा हि धर्मस्य…’ को निभाने के लिए आकार लेता है किन्तु आम मनुष्य के रूप में. अतः जब आक़ार ही नहीं तो अंग कहाँ से आ गए? ऋग्वेद के दसवें मंडल की सूत्र संख्या 72 के अनुसार पृथ्वी पर सर्व प्रथम मनुष्य ‘दक्ष’ और ‘अदिति’ थे. जिनसे 8 पुत्र हुए. फिर भी ब्रम्हा के अंगों से मनुष्य की उत्पति की बात कैसे कही जा सकती है?
ब्रम्हा के मुख से यदि सिर्फ ब्राम्हण की उत्पति मानी जाए तो फिर गंभीर मतभेद उत्पन्न हो जाएगा. क्योंकि अब्राह्मण जाति में जन्मे,यद्यपि अवतरित,श्रीराम,श्रीकृष्ण,बुद्ध,महावीर,गुरु नानक आदि की उत्पति फिर ब्रम्हा के किस अंग से मानी जाएगी, जिनमे आस्था मनुष्य स्वयम ब्रम्हा से भी ज्यादा रखते हैं. शास्त्र कहते हैं कि ‘विश्वकर्मा भगवान’ पैरों से उत्पन्न ‘शूद्र’ थे जबकि ब्रम्हा यदि प्रथम अलौकिक रचना कार हैं तो विश्वकर्मा लोकातीत शिल्पकार. मलिन पृष्ठभूमि व जाति में अनेकों ऋषि –मुनि, युग प्रवर्तक हुए हैं , ऋषि मनु के अनुसार उन्हें तो ब्रम्हा के पैरों से पैदा हुआ होना चाहिए जबकि मुँह से पैदा हुए व्यक्ति आज हजारों वर्ष पश्चात भी उनके तस्वीर के सम्मुख ही बैठ कर अपने सृजन कर्ता से साक्षात्कार कर लेते हैं. इस परिस्थिति में ईशा,पैगम्बर,कबीर आदि को क्या माना जाएगा ? देवताओं का जब यह हाल है तो सर आइज़ैक न्यूटन,विवेकानंद, दयानंद आदि की उत्पति ब्रम्हा के किस अंग से मानी जाएगी?
उक्त आत्म व्याख्यात्मक तथ्यों के बावजूद भी ऋषि मनु,यद्यपि कहना कठिन है कि चौदह मनु यथा स्वायंभुव, वैवस्वत, स्वारोचिष, उत्तम,तामस,रैवत,चाक्षुस,सावर्णि,दक्ष सावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्म सावर्णि, रूद्र सावर्णि, देवसावर्णि और इंद्र सावर्णि में से कौन, ने पुरुष सूक्त में वर्णित अंगों के आधार पर ही सृजन कर्ता की समान कृति (मनुष्यों) को 4 वर्णों में विभक्त करते हुए मानव जाति का धर्म शास्त्र मनु संहिता की रचना कर डाली. जबकि :-
यदि अंगों से उत्पति को मान भी लिया जाए तो ‘ब्रम्हा’ का पैर क्या अछूत या घृणा का पात्र हो सकता है?
विद्वानों के अनुसार लगभग 1500-1000 ई.पू. रचित ‘ऋग्वेद’ सनातन धर्म का आरंभिक स्रोत है. जिसमे सिर्फ दो ही ‘वर्ण’ का वर्णन है तो फिर ‘मनु’ ने किस आधार पर चार वर्ण का वर्णन कर दिया ? जबकि अर्थवेद 20/25 से भी ज्ञात होता है कि उस काल में सिर्फ दो ही जातियां हुआ करती थीं.
कर्म ही पूजा है का मन्त्र वैदिक कालीन भारतीय ऋषि मुनियों द्वारा ही दिया गया है. किन्तु मनु ने यह भेद नहीं बताया कि कर्म यदि पूजा है तो फिर वह छोटी और बड़ी कैसे हो सकती है?
बृहदारणक्य उपनिषत सूत्र 1/4/11 के अनुसार पहले मात्र एक ब्राह्मण जाति थी . महाभारत, शांति पर्व 342/21 के अनुसार ब्रम्हा के मुख से ब्राम्हण उत्पन्न होने के बाद अन्य वर्णों को ब्राम्हणों ने उत्पन्न किया है .
अतः बाकि तीन वर्ण ब्रम्हा के अंगों से उत्पन्न हुए थे या ब्राम्हणों द्वारा का निर्णय मैं करने में असमर्थ हूँ .
विशेष : मनुस्मृति एक विवाद :
यद्यपि कहा जाता है कि मनुस्मृति ही एक मात्र ऐसी ग्रन्थ है जिसे धर्मशास्त्र के रूप में विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है . महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं. महर्षि मनु ही सर्व प्रथम वह व्यक्ति हैं जिन्होंने मनुष्य जाति को व्यवस्थित, नैतिक और आदर्श जीवन जीने की पद्धति बताई है.
किन्तु विशषज्ञों के अनुसार मनुस्मृति का रचना काल ई.पू. एक हज़ार वर्ष से लेकर ई.पू. दूसरी शताब्दी तक जब माना जाता है तो पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण काल, जो लगभग 60 -70 हज़ार पूर्व होना माना जाता है, में मनुष्यों की क्या जाति या वर्ण हुआ करते थे? सिन्धु घाटी सभ्यता (3300ई.पू. से 1700 ई.पू.) में क्या स्थिति थी? वर्ण विभाजन से यह स्पष्ट नहीं होता वह सिर्फ अखंड भारत या एशिया महाद्वीप के मनुष्यों के लिए था या अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि महाद्वीपों, जिसमे लगभग 185 देश हैं, के मनुष्यों के लिए भी. इसी प्रकार ऋषि परशुराम ने धरा को निःक्षत्रिय किया था तो वे क्षत्रिय क्या सिर्फ अखंड भारत वाले थे या पूरी पृथ्वी वाले .
मनुस्मृति से भी हजारों साल पहले श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि की जातियां कैसे निर्धारित हो गईं ? आदि कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप से मुझे चिंतित कर रहे थे . उत्तर जानने के प्रयास में मुझे ज्ञात हुआ कि हर्षवर्धन के शासन काल में (630 ई.) में भारत की यात्रा पर आया चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के अनुसार उस वक्त भारत के सभी वर्गों के मनुष्य खुशहाल थे . वह स्पष्ट लिखता है कि ‘शूद्र’ जाति के लोग खेती बाड़ी किया करते थे तथा वैश्य व्यापार. इस प्रकार जिस जाति को तथाकथित मानव धर्म शास्त्र ‘मनुस्मृति’ में अछूत कहा गया है, जिनकी बस्तियों से गुजर जाने मात्र से ही गंगा स्नान आवश्यक था, उनके द्वारा बोये काटे छुए अन्न को बाकि लोग आखिर कैसे ग्रहण करते थे? मनुस्मृति का वह सूक्त,‘ कृषि गोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्य कर्म स्वभावजम’ अर्थात वाणिज्य के साथ साथ कृषि पालन वैश्यों का कार्य है की सार्थकता पर ही इतनी जल्दी प्रश्न कैसे लग गया? इन तथ्यों से स्पष्ट है कि यद्यपि वर्ण व्यवस्था हुआ करती थी किन्तु किसी प्रकार का कोई भेद भाव नहीं था. नवी शताब्दी में हिंदुस्तान की यात्रा पर अरब से आया ‘इब्न खुरदाद बेह’ की यात्रा वृतांत से भी इसकी पुष्टि होती है .
तो फिर वर्ण या जाति भेद का यह घिनौना रूप आखिर कब विकसित हुआ जानने के प्रयास में मुझे ज्ञात हुआ कि ‘मनुस्मृति’ का सर्व प्रथम अंग्रेजी अनुवाद वर्ष 1776 में प्रकाशित हुआ था. वर्ष 1901 में हुई सेन्सस अव इन्डिया का आयुक्त रहा सर हर्बर्ट एच० रिजले उद्घाटित करता है कि वार्रन हास्टिंग्स, जो 1773 से 1785 तक भारत के अंग्रेजी क्षेत्रों का गवर्नर जनरल था, के द्वारा एक रणनीति बनाई गई. जिसके अनुसार हिन्दुओं पर प्रभावी ढंग से राज करने के लिए उन्ही की मनुस्मृति (मानव धर्म शास्त्र) को उन पर ही लागू कर देना था.
जैसाकि हम जानते हैं कि मुग़ल काल में अब्द-उल क़ादिर बदायूँनी ने रामायण और महाभारत का, अबुसलेह,अब्दुल हसन अली,नकीब खां,मुल्लाशीरी आदि ने महाभारत का तो फैजी ने लीलावती का अनुवाद फारसी किया था. ग्यारहवीं शताब्दी में ‘अबू रिहान अल बरुनी’ ने पतंजलि की ‘चरक संहिता, योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य को पर्शियन भाषा में अनुवाद किया था. तो आखिर मनुस्मृति सहित ऋषि मुनियों द्वारा हस्तलिखित अन्य कई ग्रंथों की मूल पांडुलिपियाँ कहाँ हैं, मुझे ज्ञात नहीं. 1199 ईस्वी में विश्व की अति प्राचीन नालंदा विश्विद्यालय को इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने जब विध्वंस कर रहा था कदाचित उसमे जल कर नष्ट तो नहीं हो गईं ? ह्वेन त्सांग जो वर्ष 643 में अपने साथ 657 पुस्तकों की पाण्डुलिपियों को ले गया था, कहीं उनमे न थी ? भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विध्वंस कर्ता मुगलों ने कहीं पर्शियन में अनुवाद कर मूल को नष्ट तो नहीं कर दिया? या कहीं पर सुरक्षित हैं मैं कह नहीं सकता.
किन्तु पर्शियन भाषा से मनुस्मृति का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है का उद्घाटन करते हुए रिजले बताता है कि ब्राम्हणों को इस कार्य में लगाया गया. यद्यपि पीछे पर्शियन ‘भूल’– इंग्लिश ‘चूक’ नामक पृष्ठ पर अनेकों उधाहरण एवं प्रमाण के आधार पर मैंने बताया है कि किस प्रकार मूल और अनुवाद में भयंकर अंतर है.
2694 श्लोकों का यह ग्रंथ 12 अध्यायों में विभक्त है. ऋषि मनु ने वस्तुतः क्या लिखा, उनकी मंशा क्या रही थी, वर्तमान में ज्ञात नहीं किन्तु उसका अनुवाद पहले हिन्दू सभ्यता के दुश्मन मुगलों ने पर्शियन भाषा में किया, फिर पर्शियन से अंग्रेजी में ब्राम्हणों ने किया है. रचयिता ऋषियों का अभिप्राय उस पौराणिक कालों में क्या रहा होगा, मुग़ल और तुर्क संस्कृत के कितने बड़े विद्वान थे की मनुस्मृति का अनुवाद ज्यों का त्यों पर्शियन में कर दिया होगा, उन अनुवादकों की मंशा क्या रही होगी, तत्पश्चात पर्शियन से अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले कितने योग्य थे, इनकी भी मंशा क्या रही होगी यद्यपि कहना मुश्किल है किन्तु उनके अर्थ आज जो परिलक्षित हो रहे हैं को स्वीकार करना अत्यंत कठिन है. फलस्वरूप अतः इसे मूल की भूल कहें या अनुवादकों से हुई चूक किन्तु मनु स्मृति में वर्णित कुछ ऋचाएं एवं सूत्र परस्पर विरोधी होने के कारण वर्तमान में घोर विवादित हैं.
ऐसी मान्यता अधिक है कि अंग्रेज काल में, जब भारत में लेखनी प्रायः सिर्फ ब्राह्मणों के हाथों में थी, इस ग्रंथ में हेरफेर करके इसे जबरन मान्यता दी गई और इस आधार पर हिन्दुओं का कानून बनाया गया. जब अंग्रेज चले गए तो भारत में जो सरकार बैठी उसने यह कभी ध्यान नहीं दिया की अंग्रेजों द्वारा जो गड़बड़ियां की गई थी उसे ठीक किया जाए.
मनु स्मृति : एक सुनियोजित षड्यंत्र
वेदों के हजारों ऋचाओं में वर्ण भेद पोषक कोई भी ऋचा या मन्त्र, सिवा पुरुष सूक्त के एकाकी उदाहरण के, नहीं मिलेगा. अनेकों पुराणों, जो बहुत बाद में रचे गए हैं, में ‘पुरुष सूक्त’ का कोई जिक्र तक नहीं है. अतः विद्वानों की यह सम्मति है कि इसकी रचना अन्य वेदों की रचना के कई शताब्दियों के पश्चात हुई थी. ‘ इस विवादित सूक्त को बहुत बाद में ऋग्वेद में समाविष्ट किया गया है. जबकि ‘पुरुष सूक्त’, जिसके आधार पर वर्ण और जाति बनी हैं, ही मनु स्मृति में बताये गए वर्णों का एक मात्र आधार है .
डॉ० बी० आर० आंबेडकर 151 ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी एवं प्राच्य विद्या विशारद रहे फ्रेडरिक मैक्स मूलर (1823-1900) तो इसे हिन्दुओं की विभिन्न जाति की सभ्यता के प्रारंभिक दौर में ही किया गया एक सुनियोजित षड्यंत्र करार देते हैं .
फलतः इक्कीसवीं शताब्दी की देहरी पर खड़ी हिन्दू सभ्यता इस बात की साक्षी रहेगी कि जिन वेदों, ग्रंथों और पुराणों पर अभिमान करते हुए वैदिक काल से ही हिंदुस्तान विश्व गुरु रहा है, उनकी सार्थकता पर हिन्दुओं ने ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया था. सर्व काल में सर्व देश में सर्व धर्म के सर्व मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ पथ प्रदर्शक व सर्वाधिकार वाले ग्रंथों पर एकाधिकार हो जाने के कारण वह सनातन धर्म, जिसके अस्तित्व के प्रमाण श्रृष्टि की उत्पति काल में भी मिलते हैं, सार्वभौम क्या बनता इसी के ही अनुनायी पलायन करते हुए उन धर्मों को अंगीकृत करने के लिए बाध्य हो गए जिनके प्रवर्तक स्वयम हिन्दू हुआ करते थे. चूँकि ब्रम्ह ज्ञान और अक्षर ज्ञान मूल रूप से ब्राह्मणों के ही हाथ में था,अतः इन्हें रोकने का प्रयास अवश्य करना चाहिए था. यह तो हुन्दुओं का सौभाग्य था कि ‘रामानुज’ (1017-37) जैसे महान संत का अभ्युदय इस धरा पर हो गया, जिन्होंने ब्राह्मण के लिए अबतक आरक्षित सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना का द्वार चांडाल तक खोलते हुए समस्त हिन्दुओं को धर्म के मर्म से अवगत करा दिया.
आखिर कौन था -हेमू 
शोध कर्ता : सुबोध गुप्ता 
रौनियार सेवा संसथान ( दिल्ली )





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