उत्तर भारत का धार्मिक उत्सव ही नहीं, सामाजिक महोत्सव

उत्तर भारत का धार्मिक उत्सव ही नहीं, सामाजिक महोत्सव
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कांवड यात्रा की मीडिया में जब चर्चा होती है तो डीजे और कांवडियों के उत्पात की आड़ में सिर्फ नकारात्मक बातें ही बतायी जाती हैं। लेकिन कांवड़ यात्रा आज महाराष्ट्र के गणेश उत्सव की तरह उत्तर भारत का धार्मिक ही नहीं सामाजिक महोत्सव भी बन चुका है। ऐसे कांवड़ यात्रा की एक छोटी सी पड़ताल।
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संजय तिवारी

भारत में हमारे हर प्रकार के सामाजिक, जातीय या धार्मिक क्रियाकलाप की कोई न कोई पौराणिक कहानी मिल ही जाती है। जैसे कांवड़यात्रा को लेकर कई तरह की पौराणिक कहानियां सुनी सुनाई जाती हैं। एक कहानी है कि परशुराम ने शिवलिंग का गंगा जल से जलाभिषेक करके यह परम्परा शुरु की। एक कहानी ये है कि रावण ने गंगा जल से शिव का जलाभिषेक किया। परशुराम हों या रावण। इन दोनों ने शिव के जलाभिषेक के लिए गंगाजल कंधे पर रखकर पदयात्रा की। लेकिन इन कहानियों में दो बातें एक जैसी हैं।

पहली शिव का गंगाजल से अभिषेक करना है और दूसरा यह जलाभिषेक पदयात्रा करके पूरा करना है। आज सावन के महीने में समूचे उत्तर भारत में कांवड़ यात्रा एक बड़ा महोत्सव जैसा बन गया है। शिव का गंगा से संबंध साबित करने के लिए पौराणिक रूप से यह कहानी हम सबने सुनी ही है कि भगीरथ के प्रयास से जब गंगा का धरती पर अवतरण हुआ तब शिव जी ने ही अपनी जटाओं में धारण किया था। इसलिए गंगा का एक नाम शिवजटाधारिणी भी है। ऐसे में अगर कोई श्रद्धालु सावन के महीने में गंगा से जल लेकर किसी शिव मंदिर में चढाता है तो वह अपनी शिवभक्ति को प्रगाढ करता है। 
इक्कीसवीं सदी में शिव से भक्ति प्रगाढ करने का यह चलन ज्यादा तेजी से बढा है। वर्तमान में कांवड़ यात्रा का जो स्वरूप दिखने लगा है इसकी शुरुआत नब्बे के दशक में ही हो गयी थी। राम मंदिर आंदोलन के बाद इस बात का चलन बढने लगा कि लोग अपने गांव शहर से निकलकर गंगा जल लेने जाते और लौटकर अपने आसपास के शिव मंदिर में चढाते। इससे पहले कोई ऐसा करता भी हो तो यह उसकी व्यक्तिगत श्रद्धा रही होगी लेकिन नब्बे के दशक में इसने सामाजिक रूप से एक संगठित स्वरूप लेना शुरु कर दिया। जगह जगह इसके लिए भक्त मंडल या कमेटियां बन गयीं जो साल में एक बार कांवड़ यात्रा के लिए ही सक्रिय होती हैं।
उत्तर भारत में देवघर का बाबाधाम श्रावण मास में सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। केवल भारत से ही नहीं बल्कि नेपाल से भी शिवभक्त कांवड़ का जल चढाने देवघर आते हैं। देवघर से 100 किलोमीटर दूर सुल्तानगंज से गंगा जल लेते हैं और बाबाधाम में चढाते हैं। लेकिन बीते दो तीन दशकों में यह प्रचलन बाबा धाम से बाहर निकल कर लगभग समूचे उत्तर भारत में हो गया है। राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, मध्य प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के श्रद्धालु हरिद्वार पहुंचते हैं और वहां से गंगा जल भरकर अपने अपने स्थान पर पहुंचकर शिव को अर्पित करते हैं।
बीते कुछ सालों से तो दिल्ली की मुख्यधारा की मीडिया द्वारा इन कांवड़ियों को हुड़ंदंगी या उत्पात मचानेवालों की संज्ञा भी मिलनी शुरु हो गयी है। इसका कारण है कांवड़ियों का डीजे बाजा, गाड़ियों के काफिले के साथ निकलने वाली कांवड़ यात्रा है। असल में बीते कुछ सालों से दिल्ली के आसपास के इलाकों में डाक कांवड़ का नया चलन शुरु हुआ है। इसमें हरिद्वार से जल भरकर कांवड़ यात्रियों का समूह जब चलता है तो वह रास्ते में कहीं रुकता नहीं है। इसके अपने कुछ अघोषित नियम हैं। जैसे रास्ते में एक व्यक्ति वहां से भरे गये जल को लेकर चलता है और उसके साथ साथ कुछ मोटरसाइकिल भी चलती हैं जिनमें साइंलेन्सर नहीं होता। साथ में डीजे बंधे ट्रक चलते हैं।

रास्ते में वो यात्री दौड़ते हुए अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं। इस दौरान वो आपस में अदलते बदलते रहते हैं लेकिन शर्त यह होती है वह जुलुस रास्ते में कहीं रुकता नहीं है। कुल मिलाकर यह एक ऐसा हुजूम बन जाता है जो पूरी तरह से चार्ज रहता है। तेज संगीत, नौजवानों का दल, साथ में दैवीय भक्ति का जोश यह एक ऐसा माहौल बना देता है जिससे ये लोग दिल्ली के ऐसे लोगों को उत्पाती ही नजर आते हैं, जिनकी ऐसी सामाजिक गतिविधियों में कोई आस्था नहीं है।
लेकिन इससे इतर लाखों ऐसे लोग भी सड़क पर पैदल चल रहे होते हैं जो दो चार सौ किलोमीटर की यात्रा कई दिन में रुक रुककर पूरी करते हैं। यह उनकी अपनी श्रद्धा और श्रद्धा से उपजी तपस्या है। भारत में हमारी धार्मिक गतिविधियों के मूल में वैसे भी तपस्या ही रहती है। हमारे लिए धर्म स्वयं को दुख और दूसरों को सुख देने का साधन है।
भारतीय समाज में जब कोई व्यक्ति लोक कल्याण के लिए कष्ट उठाता है तो भारतीय लोग उसे बहुत आदर और श्रद्धा से देखते हैं। संसार की दूसरी सभ्यताओं में लोक कल्याण का वैसा भार आम लोगों के कंधे पर नहीं होता है जैसा भारत की धार्मिक व्यवस्था में है। यहां हर व्यक्ति का मानस लोक मानस के स्तर पर एक दूसरे के कल्याण से जुड़ा होता है।

यही कारण है कि कांवड़ यात्रा का पूरा आयोजन सामाजिक होता है। कांवड़ यात्रा की तपस्या करनेवालों के लिए समाज से निकलकर लोग आते हैं और भांति भांति से उनकी सेवा करते हैं। रास्तेभर में न जाने कितनी जगह रुकने, भोजन करने और आराम करने की सुविधा प्रदान की जाती है। कहीं कहीं तो लोग कांवड़ियों के पैर दबाते हैं। उनके शरीर की मालिश करते हैं।
कांवड़ यात्रा के इस पक्ष को कथित मुख्यधारा की मीडिया द्वारा न तो दिखाया जाता है और न ही बताया जाता है। लेकिन भारतीय समाज तो ऐसे ही सदियों शताब्दियों से चलता आ रहा है। समाज का एक व्यक्ति अगर धर्म के नाम पर तपस्या कर रहा है तो बाकी समाज ऐसे तपस्वियों की सेवा करने के लिए उमड़ पड़ता है। उसके लिए यह धर्म का काम है। उसे लगता है कि ऐसे तपस्वियों की अगर वो सेवा करता है तो उसकी तपस्या का कुछ पुण्य लाभ उसे भी मिल ही जाता है।
कांवड़ यात्रा की पौराणिक कथाओं को एक ओर रखें तो कोई नहीं कह सकता कि इसे किसने शुरु किया और क्यों शुरु किया। लेकिन जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है महाराष्ट्र के गणेश उत्सव की तरह यह उत्तर भारत का एक बड़ा उत्सव बनता जा रहा है। सावन के महीने की शिवरात्रि के दिन लगभग समूचे उत्तर भारत के कांवड़यात्री अपने अपने निश्चित स्थान पर पहुंचकर शिव का गंगाजल से जलाभिषेक करते हैं।
ऐसे उत्सवों की भले ही हमारी मीडिया सिर्फ उनके डीजे बाजा और उपद्रव के नाम पर चर्चा करता हो लेकिन इससे समाज की साधना में कोई फर्क नहीं पड़ता। समाज का हर वर्ग जाति, पंथ भुलाकर सावन के महीने में भोलेनाथ के दरबार में पहुंचना चाहता है। इस तरह यह धार्मिक उत्सव के साथ साथ यह सामाजिक महोत्सव भी बन जाता है। यही इस यात्रा की सबसे बड़ी सफलता है।






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