बीस साल बाद तालिबान और सौ साल बाद गांधी

बीस साल बाद तालिबान और सौ साल बाद गांधी

अरुण कुमार त्रिपाठी

इतिहास सीधे चलते चलते गोल गोल घूमने लगता है। बड़ी दिखने वाली ताकतें हारने लगती हैं और पराजित दिखने वाले समूह जीतने लगते हैं। जिन मूल्यों की स्थापना के लिए दुनिया कसमें खाती है वे मूल्य ध्वस्त होने लगते हैं और जिन्हें मिटाने के लिए संकल्प लिया जाता है वे विजयी होने लगते हैं। कुछ ऐसा ही अफगानिस्तान में बीस साल बाद तालिबान की वापसी के साथ भी हो रहा है। अमेरिका ने 9/11 के हमले के बाद अफगानिस्तान में आपरेशन इन्ड्योरिंग फ्रीडम(स्थायी स्वतंत्रता का अभियान) शुरू करके तालिबान को सत्ता से बाहर कर दिया था। लेकिन आज काबुल में तालिबान की वापसी के साथ जहां दुनिया उसकी आतंकी पृष्ठभूमि और कट्टरता से कांप रही है। वहीं अमेरिका में सेना की वापसी और तालिबान के सत्ता में आने के बाद 9/11 के 20 साल पूरे होने पर लोग पराजय का अनुभव कर रहे हैं। लोगों को लग रहा है कि ओसामा बिन लादेन मर कर भी जीत गया है और अमेरिका जीत कर भी हार गया है।

इस बीच 9/11 से लेकर 26/11 के बीच भारत का अपना आतंकी अनुभव है जो मारे जाने वालों की संख्या के लिहाज से भले छोटा हो लेकिन तीन दिनों तक देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को दहशत का बंधक बनाए जाने के लिहाज से भयावह है। यह एक विचित्र संयोग है कि आज से सौ साल पहले जब प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर तुर्की से खलीफा के शासन का अंत हुआ था तो उसकी बहाली के लिए चलाए गए खिलाफत आंदोलन का समर्थन स्वयं महात्मा गांधी ने किया था। उसी समय उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खान नाम का एक पश्तून नेता उभर रहा था जिसने खिलाफत आंदोलन के समर्थन में पेशावर से काबुल तक मार्च निकाला था। संयोग से यही वह वर्ष है जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व गांधी के हाथों में सौंपा गया था और उन्होंने असहयोग आंदोलन को सत्याग्रह का हथियार देकर उसे भारत की आजादी का मूल दर्शन बना दिया था।

आज मीडिया और राजनीतिक दलों और सरकारों से हवाले से तालिबान की अंतरिम सरकार में शामिल नेताओं के आतंकी रिश्तों की चर्चा जरूर हो रही है और नए और पुराने तालिबान की तुलना भी हो रही है। लेकिन कोई भी राष्ट्र, कोई भी वैश्विक नेता यह कहने की स्थिति में नहीं है कि अगर तालिबान ने आतंक को पनाह देना और उसे निर्यात करना शुरू किया(या नहीं छोड़ा) तो दुनिया क्या करेगी? भले ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन यदा कदा यह कह रहे हों कि जो हमारे लोगों पर हमला करेगा हम उसका  `शिकार करेंगे’ लेकिन इस बात को अमेरिकी नागरिक भी जानते हैं कि उनका यह दावा कितना खोखला है। अमेरिकी पत्रकार व पुलित्जर पुरस्कार विजेता दल की सदस्य मिशेल गोल्डबर्ग ने न्यूयार्क टाइम्स में कालम लिखकर बताया है कि किस तरह से ओसामा बिन लादेन की जीत हुई है। वे स्पेंसर एकरमैन की पुस्तक ––रीन आफ टेररः हाउ द 9/11 एरा डिस्टेबलाइज्ड अमेरिका एंड प्रोड्यूश्ड ट्रंप—–का हवाला देती हुई लिखती हैं कि आपरेशन इन्ड्यूरिंग फ्रीडम से अमेरिका को न तो शांति मिली और न ही विजय।

तो क्या 1979 में सोवियत संघ की ओर से शुरू किया गया आपरेशन स्टार्म-333 कामयाब रहा। नहीं। वह भी नूर मोहम्मद तराकी, हफीजुल्लाह अमीन, बबराक करमाल जैसे कुछ कठपुतली शासकों के माध्यम से वहां की सत्ता पर पकड़ बनाने में नाकाम रहा। अंत में इस युद्ध का परिणाम यह हुआ कि सोवियत संघ स्वयं ही बिखर गया। सोवियत संघ को वहां से हटाने के लिए अमेरिका, पाकिस्तान और दूसरे इस्लामी देशों ने वहां मुजाहिदीन लड़ाकों को खड़ा किया। बाद में उसी के गर्भ से अफगानिस्तान का गृह युद्ध निकला और उसके भीतर से तालिबान का जन्म हुआ। जिसके साथ राष्ट्रपति अब्दुल गनी अफगानिस्तान छोड़कर भाग गए और अमेरिका द्वारा पशिक्षित तीन लाख की हथियारबंद अफगानी सेना ने तालिबानी छापामार लड़ाकों के आगे समर्पण कर दिया।

अफगानिस्तान ने पिछले चार दशक में वामपंथ और दक्षिणपंथ यानी साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों का प्रयोग देख लिया। नतीजतन आज वह इस्लामी कट्टरपंथियों के हाथों में हैं। जिनके बदल जाने और समाज के सभी वर्गों का सम्मान करने की उम्मीद दुनिया लगाए हुए हैं लेकिन जिसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता। शायद यही वजह है कि समाजवादी डा राममनोहर लोहिया सोवियत संघ और अमेरिका दोनों के बारे में कहा करते थे कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों बंद व्यवस्थाएं हैं। वे दुनिया को सिर्फ युद्ध और अभाव दे सकती हैं, शांति और समृद्धि नहीं। इसीलिए वे तीसरे रास्ते की बात करते थे जहां समता भी हो और समृद्धि हो।

लेकिन अफगानिस्तान की स्थिति हमारे जेहन में एक और अहसास पैदा करती है। वो अहसास है इस्लाम और अफगान लोगों की छवि के बारे में। कहा जा रहा है कि इस्लाम कट्टर और क्रूर है और उसका जेहाद एक दिन दुनिया को तबाह कर देगा। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि अफगानी लोग और विशेषकर तालिबानियों का मूल कबीला पश्तून ऐसे ही है। वह कभी लोकतंत्र और इंसानियत के मूल्यों को स्वीकार नहीं कर सकता। वह हिंसा ही करेगा। वह औरतों का दमन ही करेगा और उन्हें शिक्षा नहीं पाने देगा। तालिबान ने जिस तरह से अपनी अंतरिम सरकार में पंजशीर घाटी के लोगों को नहीं रखा है और महिलाओं को पूरी तरह सत्ता से बाहर रखा है, पत्रकारों पर जुल्म ढा रहे हैं, प्रदर्शनकारियों पर गोली चला रहे हैं उससे तो यही लगता है कि वहां का समाज सदैव से ऐसा ही है।

लेकिन हैरानी होती है कि उसी आक्रामक समझे जाने वाले और मरने मारने पर आमादा रहने वाले पश्तून कबीले को खान अब्दुल गफ्फार खान ने गांधी के सत्याग्रह का रास्ता अख्तियार करने के लिए तैयार कर दिया था। खान अब्दुल गफ्फार खान ने जब 1929 में खुदाई खिदमतगार(ईश्वर के सेवक) संगठन का गठन किया तो उसका मकसद था एकीकृत भारत का निर्माण और हिंदू मुस्लिम एकता। उसने इस संगठन में एक लाख स्वयं सेवकों की भर्ती करके अंग्रेजों के उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष का संकल्प लिया था। यह संगठन सत्याग्रह की शक्ति में यकीन करता था और इसने शपथ ली थी कि वे हथियार नहीं उठाएंगे। संगठन के मकसद को बताते हुए खान अब्दुल गफ्फार खान ने कहा थाः—

मैं आपको ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके मुकाबले न तो पुलिस खड़ी हो पाएगी और न ही सेना। यह पैगंबर का हथियार है। लेकिन आप उसे जानते नहीं हो। वह हथियार धैर्य और सच्चाई का है। इसके सामने दुनिया की कोई ताकत खड़ी नहीं हो सकती।

दरअसल पश्तून समुदाय आजादी पसंद होता है। वह न तो अंग्रेजों की गुलामी सह सकता है और न ही रूसियों और न ही अमेरिकियों की। उसे खुदमुख्तारी पसंद है। वह पंजाबी मुसलमानों की गुलामी भी नहीं सह सकता। इसलिए अगर रूस, अमेरिका को वहां शिकस्त मिली है तो पाकिस्तान को भी संभल जाना चाहिए कि वह लंबे समय तक तालिबान को संचालित नहीं कर सकता। यह बात चीन को भी जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना ही अच्छा है।

खान साहेब को इसी खुद मुख्तारी के लिए पाकिस्तान में भी बहुत परेशान किया गया और बार बार जेल में डाला गया। वजह थी कि उन्होंने पहले विभाजन का विरोध किया था और जब उनकी बात नहीं मानी तो पाकिस्तान में मिलने की बजाय अलग पश्तूनिस्तान की मांग की थी। जब 1988 में उनकी मौत हुई तो वे अपने पेशावर स्थित घर में नजरबंद थे। उनकी आखिरी इच्छा थी कि उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया जाए। उस वक्त सोवियत संघ और अफगानिस्तान का युद्ध चल रहा था। लेकिन उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए युद्ध विराम घोषित किया गया। दोनों ओर की सेनाओं ने अपने हथियार खामोश कर दिए। उनका जनाजा खैबर दर्रे से होता हुआ जलालाबाद पहुंचा। बहुत मीलों लंबा जनाजा था जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। हालांकि उस जनाजे पर हमला भी हुआ और विस्फोट में 15 लोग मारे गए।

तालिबान के पुनरोदय के बीस साल बाद और असहयोग और खिलाफत आंदोलन के सौ साल बाद महात्मा गांधी और खान अब्दुल गफ्फार खान की राजनीति और उनके विचार फिर प्रासंगिक हो रहे हैं। एशिया और यूरोप दोनों तरफ के राष्ट्र और नेता किंकर्तव्यविमूढ़ हैं कि अमेरिकी सेना की वापसी और तालिबान के कब्जे के बाद क्या किया जाए। भारत में अगर कश्मीर को लेकर आतंकी भय है तो इस्लाम का भय पैदा कर राजनीति चमकाने की होड़ भी। इसी के साथ भारत को अफगानिस्तान में किए गए अपने निवेश की भी चिंता है। पाकिस्तान को लगता है कि उसका जन्म सार्थक हो गया है। एक ओर वह इस्लामी देशों को ठग सकता है तो दूसरी ओर यूरोप और अमेरिका को और तीसरी ओर चीन को। इसी के साथ भारत से बदला लेने या उसे डराए रखने की उसकी रणनीति भी चलती रहेगी। चीन और रूस अफगानिस्तान की खनिज संपदा के दोहन और अपने यहां इस्लामी उग्रवाद को रोकने की रणनीति बनाते हुए सतर्क राजनय चल रहे हैं।

वास्तव में अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी एशिया के धर्म आधारित समाज पर यूरोप और अमेरिका की कम्युनिस्ट और पूंजीवादी लोकतांत्रिक प्रणाली को लागू न कर पाने की नाकामी है। एशियाई समाज धर्म आधारित समाज है और उसने यूरोप के साम्यवाद और लोकतंत्र को अपनी जरूरत के लिहाज से अपनाया है। उधर यूरोप और अमेरिकी समाज आधुनिक राजनीतिक प्रणाली की श्रेष्ठता को मानने वाला है लेकिन वह एशिया के धर्मों से फिर संक्रमित हो रहा है। धर्म और राजनीति की इस श्रेष्ठता की लड़ाई को महात्मा गांधी समझ गए थे और उन्होंने उसकी गाठों को खोलकर अलग कर दिया था। वे धार्मिक होते हुए भी उदार होने और आधुनिक होने की कला सीख गए थे। उन्होंने वैसा खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे पश्तून कबीले के नेता को भी समझा दिया था। वे साधन की पवित्रता की अहमियत को समझते थे और शायद वे पहले राजनेता थे जो न सिर्फ एशिया और अफ्रीका को गुलामी से मुक्त होने का तरीका सिखा रहे थे बल्कि यूरोप को भी एक नई राजनीति का पाठ भी पढ़ा रहे थे। पर दुनिया उसे सीख नहीं पाई और यही कारण है कि आतंकवाद और युद्ध अभी समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है।

यूरोप और अमेरिका इस गलतफहमी में रहते हैं कि वे युद्ध के माध्यम से एशियाई देशों को सभ्य बना देंगे और लोकतंत्र का पाठ पढ़ा देंगे। लेकिन अफगानिस्तान से इराक तक इसके उल्टे प्रभाव हुए हैं। आज फिर हमें अहिंसा और सत्याग्रह के महत्व को समझना होगा और तालिबान की जड़ता अगर टूटेगी तो वह युद्ध और हथियार से नहीं सत्याग्रह और प्रेम के प्रभाव से ही। इस प्रयोग की झलक आज के सौ साल पहले मिल चुकी है और आज भी अगर गांधी और बादशाह खान जैसे नेता नए रूप में पैदा हों तो उसकी सफलता असंभव नहीं है।

 






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