गहरे मंथन का होगा यह दशक

गहरे मंथन का होगा अगला दशक
अरुण कुमार त्रिपाठी
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के समाप्त होने के साथ भारत और बाकी दुनिया में बहुसंख्यावाद, नए किस्म के धर्म आधारित राष्ट्रवाद और अमेरिका चीन व रूस से बीच उभरते शीतयुद्ध के कारण जिस प्रकार की हलचलें चल रही हैं उससे यही लग रहा है कि अगला दशक आमसहमति से ज्यादा आपसी खींचतान और गहरे मंथन का होगा। भारत को इसी में से अपनी राह बनानी है। रफीक जकरिया, पाल क्रुगमैन, थामस पिकेटी, जेम्स क्रैबट्री जैसे दुनिया के कई अर्थशास्त्री और राजनीतिशास्त्री 2030 तक भारत को एक बड़ी आर्थिक और राजनीतिक ताकत के रूप उभरते हुए देखते हैं। इस बीच 2022 में भारत की आजादी के 75 साल हो रहे हैं। भारत को नया संसद भवन देने की तैयारी है। उसी के साथ संभवतः हमारे जनप्रतिनिधियों की संख्या भी बढ़ेगी। उसके दो साल बाद देश में आम चुनाव होंगे और तब देश के सबसे लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी अपने प्रधानमंत्रित्व का दस साल पूरा करके जनादेश के लिए देश के समक्ष फिर उपस्थित होंगे। यह भी संभव है कि वे अपनी जगह किसी और को इस पद के दावेदार के रूप में पेश करें। लेकिन वे और उनका कार्यकाल अगले चुनाव में विमर्श के केंद्र में न रहे ऐसा हो नहीं सकता।
सन 2024 के एक साल बाद ही यानी 27 सितंबर 2025 को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना के सौ साल पूरे हो रहे हैं। वह अवसर भारत के सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक इतिहास की एक बड़ी घटना बनने जा रहा है। संघ परिवार जो आज भारत में एक ताकतवर संगठन का रूप ले चुका है देखना है वह तब तक किन लक्ष्यों को हासिल करता है और अपने और भारतीय संविधान के स्वरूप में कितना बदलाव करता है। निश्चित तौर पर संघ परिवार का लक्ष्य भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है। वह केंद्र में अपनी बहुमत की सरकार बनाकर और देश भर में फैले विविध संगठनों के माध्यम से तमाम बौद्धिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के माध्यम से उस लक्ष्य तक पहुंचने का प्रयास भी कर रहा है। देखना है कि वह अपनी हिंदू राष्ट्र की परिभाषा में कोई परिवर्तन करते हुए गैर हिंदू आबादी को अपनी परिभाषा में शामिल करता है या फिर देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करते हुए गैर-हिंदू आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक घोषित कर देता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हिंदू एकता का एक बड़ा आख्यान रचा है और उसकी कोशिश है कि उन तमाम लोगों को इस आख्यान का हिस्सा बना लिया जाए जिनका किसी भी प्रकार हिंदू समाज से संबंध रहा है। भले ही उन्होंने उदार और सेक्यूलर राजनीति की स्थापना की कोशिश की हो और उसके लिए अपना जीवन भी दे दिया हो। आजादी के बाद महात्मा गांधी की हत्या के साथ ही हिंदू एकता का वह आख्यान दब गया था जो दयानंद सरस्वती, विनायक दामोदर सावरकर, स्वामी श्रद्धानंद, डा केशव बलिराम हेडगेवार, गोलवलकर, दीन दयाल उपाध्याय ने रचा हो और संघ परिवार उसे स्थापित करने के लिए पहले सांस्कृतिक रूप से फिर राजनीतिक रूप से प्रयत्नशील रहा हो। भारत लंबे समय तक महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के मिले जुले विचारों की छाया में शासित और संचालित होता रहा लेकिन इस राजनीति जमीन के नीचे हिंदू एकता की हलचल चलती रही। उसी के साथ इस भारत में कभी सरदार भगत सिंह के विचार अपनी चुनौती प्रस्तुत करते रहे तो कभी डा भीमराव आंबेडकर के साथ महात्मा फुले, पेरियार और डा लोहिया उठ खड़े होते रहे। लेकिन संघ ने नेहरू को छोड़कर बाकी सभी को समाज सुधारक मानकर अपने भीतर समाहित करने का प्रयास किया है। उसी हिंदू एकता की कोशिशों का परिणाम था कि हिंदू मतों की एकजुटता के बूते पर 2014 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को अपने बूते पर बहुमत हासिल हुआ और 2019 में उससे भी ज्यादा सीटों के साथ वह सत्ता में वापस आई। अगर 2014 में उसे 282 सीटें मिली थीं तो 2019 में 302 सीटें मिलीं। उसका कांग्रेस मुक्त भारत का स्वप्न साकार होता दिखा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सिमट कर 51 सीटों पर आ गई। उसकी इतनी भी हैसियत नहीं बची कि उसे विपक्ष का वैधानिक दर्जा दिया जा सके।
राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की अनुपस्थिति ने एक ओर भारतीय जनता पार्टी और उसके ताकतवर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काम करने का खुला मैदान दिया है और उन्होंने कश्मीर, अयोध्या और तीन तलाक जैसे मसलों पर कठोर निर्णय लिया लेकिन दूसरी तरफ उनकी नीतियों के निरंतर एकांगी होते जाने का वातावरण भी निर्मित किया है। गैर भाजपा दलों की उपस्थिति राज्यों के स्तर पर है और उसने अपने अलग- अलग क्षत्रप बना रखे हैं। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, उद्धव ठाकरे, अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत, चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी, अरविंद केजरीवाल और पेनाराई विजयन जैसे नेताओं ने केंद्र सरकार की नीतियों को संघीय बने रहने के लिए दबाव तो बनाया है लेकिन वे उसमें निहित केंद्रीकरण की गति को कम नहीं कर सके हैं। इसलिए भारत के लोकतंत्र, उसमें निहित संघीय ढांचे और उन सबसे ऊपर भारत के संविधान के लिए एक खतरा बताया जा रहा है। खतरा पैदा हो रहा है स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए। निश्चित तौर पर देश में विपक्ष जितना मजबूत होता है यह खतरा उतना ही कम होता है और विपक्ष जितना कमजोर होता है खतरा उतना ही ज्यादा होता है।
लोकतांत्रिक प्रणाली में राजनीतिक विकल्पहीनता की यह स्थिति भारत जैसे विविधता वाले देश को समरूपी बनाने के लिए प्रोत्साहित करती है तो दूसरी ओर विभिन्न क्षेत्रीय और जातीय और सांप्रदायिक समूहों से विरोध और विद्रोह की गुंजाइश भी पैदा होती है। सन 2019 में सीएए एनआरसी के विरोध में असम से लेकर देश के तमाम राज्यों में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समाज के कुछ हिस्सों द्वारा किया गया विरोध प्रदर्शन उसका प्रमाण है। सन 2020 में आई कोरोना जैसी महामारी ने पूरी दुनिया की व्यवस्थाओं के लिए गंभीर चुनौती पैदा की। उससे जनता परेशान हुई और सरकारों को भी इंतजाम करने और इलाज करने में बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अर्थव्यवस्था भी काफी नीचे गई और उसने यह संकेत दिया कि मानव विकास का ढांचा अगर मजबूत नहीं होगा तो आने वाले समय में एक अदृश्य वायरस पूरी तरक्की को मटियामेट कर सकता है। इसलिए अगला दशक चिकित्सा और पर्यावरण रक्षा के ढांचे को मजबूती देने वाला होगा। 
लेकिन साल बीतते बीतते देश की राजधानी दिल्ली को घेर लेने वाले किसान आंदोलन ने यह साबित कर दिया है कि अगर आम सहमति के बिना किया जाने वाला राजनीतिक सुधार देश में अलगाव और असंतोष पैदा करेगा तो आर्थिक सुधार भी देश के अलग अलग हिस्सों में विद्रोह का सृजन कर सकता है। इस आंदोलन ने साबित किया है कि आने वाला दशक किसानों और मजदूरों के असंतोष का भी साबित हो सकता है। कभी वी.एस. नायपाल ने भारत को मिलियन म्युटिनीज वाला देश कहा था। आज दिल्ली को घेर कर बैठे किसानों को देखकर उनकी वही बात याद आ रही है। दूसरी ओर उनकी वह बात भी याद आती है जिसमें वे भारत को एक घायल सभ्यता(वून्डेड सिविलिजेशन) कहते हैं। यह घायल सभ्यता अपना खोया हुआ सम्मान पाने का प्रयास करेगी और हिंदुत्व के रूप में शायद वही हो रहा है। लेकिन उसी के साथ उसमें विद्रोह की संभावना भी पर्याप्त रहती है। इस विद्रोह को डाक्टर राम मनोहर लोहिया हिंदू बनाम हिंदू वाले अपने प्रसिद्ध व्याख्यान में व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि भारत में उदार हिंदू और कट्टर हिंदू की लड़ाई पिछले पांच हजार साल से चल रही है और अभी तक उसका फैसला नहीं हुआ है। देखना है कि पिछले सत्तर सालों से उदारता की ओर जा रहा भारतीय समाज क्या फिर कट्टरता की ओर लौटेगा? कट्टरता भारत के विखंडन की नींव रख सकती है तो उदारता उसे लंबे समय तक एकजुट रख सकती है।
इस तरह भारत का अगला दशक अपने राष्ट्रवाद को पुनर्परिभाषित करने, अपने संसाधनों को व्यवस्थित करके तरक्की करने और पाकिस्तान व चीन जैसे शत्रुतापूर्ण व्यवहार पड़ोसियों को काबू में रखने, मध्यपूर्व के प्राकृतिक संसाधनों को सरलता से प्राप्त करने और यूरोप अमेरिका जैसे देशों से ज्ञान, प्रौद्योगिकी और नए दृष्टिकोण के आधार पर संबंध कायम करने वाला होगा। भारत का विचार इसी से परिभाषित होगा। article published in Hastkshep Rashtriya Sahara






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