किसी की हार-जीत से ज्यादा अहम है कश्मीर में चुनाव होना

कश्मीर को लेकर पूरी दुनिया के सामने पाकिस्तान ने जिस तरह की तस्वीर खींचने की कोशिश की है, उसे देखते हुए भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की नजर इन चुनावों पर है. इसी वजह से इसके नतीजे सामान्य चुनाव से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.

राजेश जोशी

किसी भी राज्य की जिला विकास परिषद या डीडीसी के चुनाव बहुत छोटे होते हैं. कई बार तो उनकी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा भी नहीं होती. पर कश्मीर में हुए परिषद के चुनाव राजनीतिक रूप से भी अहम थे और जम्मू-कश्मीर से निकलने वाले संदेश के रूप में भी.
तकरीबन डेढ़ साल पहले कश्मीर से धारा 370 और 35ए हटाए जाने और जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित राज्य का दर्जा दिए जाने के बाद पहली बार इतने बड़े स्तर पर कोई चुनाव होने जा रहा था. भाजपा ने जम्मू और कश्मीर घाटी में अपनी पकड़ बेहतर बनाने पूरी ताकत झोंक दी थी. केंद्रीय मंत्रियों का पूरा दल कश्मीर और जम्मू में कैंप किए बैठा रहा. जम्मू कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था, लेकिन पिछले कुछ सालों में भाजपा ने लगभग उसकी जगह ले ली है. घाटी में भाजपा को रोकने के लिए पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस समेत सात विपक्षी दल एक हो गए. गुपकर गठबंधन बनाकर इन दलों ने चुनाव लड़ा. 280 सीटों पर चुनाव नतीजों को देखा जाए तो गुपकर को सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं. कई सालों बाद कश्मीर में कोई बड़ा चुनाव बिना व्यापक हिंसा या रक्तपात के संपन्न हुआ. जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच एक राजनीतिक विभाजन इस चुनाव में भी कायम है. भाजपा ने जम्मू में अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद वह घाटी में केवल 3 सीटें ही जीत पाई. पर 3 सीटें संख्या नहीं राजनीतिक संदेश के लिहाज़ से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. 70 सालों में पहली बार कश्मीर घाटी में भाजपा को जीत मिली.
पिछले कई दशकों से भाजपा इसकी नींव तैयार कर रही थी. जम्मू-कश्मीर की पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार के दौरान इसकी रफ्तार तेज हुई. भाजपा ने चुनाव के दौरान उमर अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं को गुपकर गैंग का सदस्य बताया. चुनावी माहौल में इस तरह के आरोप हैरान नहीं करते. पर इस बात को आम कश्मीरी भी नहीं समझ पा रहा कि जिन लोगों के साथ भाजपा ने गठबंधन कर केंद्र और राज्य में सरकार चलाई ,अचानक वह आततायी, राष्ट्रविरोधी, भ्रष्टाचारी और लुटेरे कैसे बन गए. डीडीसी चुनाव के दौरान गुपकर गठबंधन के ज्यादातर नेता घरों में ही नजरबंद जैसी स्थिति में थे. ज्यादातर बड़े नेताओं को तो पार्टी के प्रचार का मौका ही नहीं मिला. मतगणना के पहले भी कई बड़े नेता हिरासत में ले लिए गए. इसके बावजूद गुपकर को मिले जन समर्थन से एक बात तो साफ है कि इन राजनीतिक दलों का आधार कायम है. निर्दलीय जिस पैमाने पर जीतकर आए हैं, उससे जिला परिषदों के राजनीतिक समीकरण प्रभावित होंगे.
डीडीसी के चुनावों में गुपकर को सबसे ज्यादा सीटें मिलने का क्या राजनीतिक अर्थ निकाला जाए, इसे लेकर उमर अब्दुल्ला और भाजपा के अपने-अपने तर्क हैं. पर इन सारी चीजों को अगर छोड़ दें, तो दरअसल यह जीत कश्मीर के लोकतंत्र की जीत है. विकास को लेकर वहां के लोगों की उम्मीदों की जीत है. कश्मीर का एक बड़ा तबका आज भी गरीबी से जूझ रहा है. ठंड में जब भारी बर्फबारी होती है, तो पूरी घाटी में बिजली आपूर्ति जवाब दे जाती है. ऐसी विकट स्थिति में वहां का आम आदमी बुनियादी चीजों के लिए संघर्ष करता है. कश्मीरी युवा भी शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों पर चिंतित है. कश्मीरी किसान, हस्तशिल्पियों की चुनौतियाँ अलग हैं.
इस बात को ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए कि 51 प्रतिशत से कुछ ज्यादा मतदाताओं ने चुनाव में हिस्सा लिया. इन चुनावों ने एक राजनीतिक प्रक्रिया को कश्मीर घाटी में रफ्तार दी है. यह एक सही शुरुआत है. अगर केंद्र सरकार और राज्य मिलकर विकास को कागजों, घोषणाओं से जमीन पर उतार पाएं, तो जम्मू और कश्मीर घाटी के आम लोगों का भरोसा देश पर और संविधान पर बढ़ेगा. यह प्रजातंत्र की बड़ी जीत होगी. यह उन लोगों के लिए भी सही जवाब होगा, जो कश्मीर को अलग-थलग करने की कोशिश करते रहते हैं.






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