बिहार की भ्रामक राजनीतिक स्थिति

भ्रामक राजनीतिक स्थिति

प्रेमकुमार मणि

बिहार में भाजपा -जदयू – लोजपा का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन संकट की ओर बढ़ता दिख रहा है . तीसरे नंबर का घटक लोजपा तो इस गठबंधन में है भी या नहीं ,यह यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता . भाजपा की ओर से देखने पर वह है , लेकिन जदयू की तरफ से देखने पर नहीं है . विधानसभा के विगत चुनाव में लोजपा ने जदयू के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार कर उनकी खटिया खड़ी कर दी थी . 115 सीटों पर चुनाव लड़ कर जदयू को केवल 43 सीटें आ सकीं . भाजपा के खिलाफ लोजपा ने उम्मीदवार नहीं दिए थे . उसे 74 सीटें मिलीं . संभव है हार के कारण कुछ और हों .लेकिन जदयू अपनी हार के लिए लोजपा को ही जिम्मेदार ठहरा रहा है . अभी जदयू के राष्ट्रीय महासचिव के सी त्यागी ने भी चिराग पासवान को अपनी पार्टी की हार का कारण बताया . चिराग की पार्टी प्रसन्न है कि जदयू ने उसकी ताकत का आकलन तो किया . भाजपा से जुड़े एक मंत्री ने कुछ समय पूर्व चिराग से अपनी पार्टी के पुख्ते संबंधों की बात की है . चिराग आज भी स्वयं को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान कह रहे हैं . भाजपा इन सब के बीच मगन है . उसकी तो चांदी ही चांदी है . लोजपा के संस्थापक और चिराग के पिता रामविलास पासवान की मृत्यु से रिक्त हुई राज्यसभा सीट कायदे से लोजपा को जानी चाहिए थी . जदयू का भय दिखा कर भाजपा ने इसे झटक लिया और अपने कद्दावर नेता सुशिल मोदी को राज्यसभा में ले आए . मंत्रिमंडल में भी लोजपा का कोई आ सकेगा या नहीं ,यह कहना मुश्किल है . जदयू के विरोध के रहते इसकी संभावना कम दिख रही है . दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदरबांट वाली कहानी कोई भी याद कर सकता है .
जदयू के नीतीश कुमार सूबे के मुख्यमंत्री हैं ,लेकिन ऐसा लगता है उन्होंने अपनी साख खो दी है . सरकार अपने रूटीन कार्य जरूर कर रही है,लेकिन उससे अधिक कुछ भी नहीं . मंत्रिमंडल का विस्तार लंबित है . कैबिनेट के कुछ फैसले ऐसे लिए गए मानो चुनाव का वक़्त हो . इसे लेकर राजनीतिक गलियारों में आसन्न चुनाव की चर्चा भी होने लगी . नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने भी अपनी पार्टी की बैठक में कभी भी चुनाव के संकेत दिए हैं . मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सार्वजानिक तौर से ऐसी खिन्न मनःस्थिति ऐसी कभी नहीं रही थी . वह बहुत सम्भल कर बोलने वाले राजनेता माने जाते हैं . पिछले एक महीने में वह दो बार बोल चुके कि उन्हें जबरन मुख्यमंत्री बनाया गया ,इस पद पर फिर से आने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी . इस पर कोई भी विश्वास कर सकता है . नीतीश कुमार को जो भी जानता है ,वह यही कहेगा कि ऐसी गलीज स्थिति में उनका मुख्यमंत्री पद स्वीकार करना उनके स्वभाव और चरित्र के प्रतिकूल है . बिहार में पकड़ौआ विवाह की खबरें आती रही हैं . पकड़ौआ मुख्यमंत्री बनाए जाएंगे की स्थिति भी आएगी ,यह शायद ही किसी को अंदाज रहा होगा . नीतीश कुमार की पीड़ा को कोई भी समझ सकता है . जब कोई ताकत किसी को जबरन मुख्यमंत्री बना सकती है, तो वह उस मुख्यमंत्री से जबरन फैसले भी करवा सकती है . यह भयावह राजनीतिक स्थिति ही कही जाएगी . नीतीश कुमार ने जो वक्तव्य दिया है शायद उसकी गंभीरता को न वह समझ रहे हैं ,न उनकी पार्टी के लोग . और न ही मौजूदा विपक्ष . ऐसे विवश मुख्यमंत्री से बिहार आखिर क्या अपेक्षा कर सकता है ! वास्तविक स्थिति तो केवल नीतीश ही बतला सकते हैं ,लेकिन यह अनुमान तो किया ही जा सकता है कि अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मुश्किल दौर से वह गुजर रहे हैं .
ऐसा लगता है नीतीश कुमार की स्थिति उनकी पार्टी के भीतर भी अत्यंत कमजोर हो चुकी है . वह मुख्यमंत्री के साथ अपनी पार्टी के राष्ट्रीय सदर भी थे . उनका कार्यकाल अभी दो साल बाकी था और कहा जा सकता है कि इस पद पर आने के लिए वह उत्सुक थे . क्योंकि अपने आदरणीय साथी और नेता शरद यादव को हटा कर वह उत्साहपूर्वक इस पद पर आए थे . इसी हफ्ते जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होती है और नीतीश कुमार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से अचानक इस्तीफा देते हैं . आनन -फानन वही प्रस्ताव करते हैं कि उनकी पार्टी के राज्यसभा सदस्य रामचंद्र प्रसाद सिन्हा उर्फ़ आरसीपी सिन्हा ( जो एक समय उनके (आप्त ) सचिव भी थे )पार्टी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष होंगे . बिहार के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि यह सब भाजपा के निदेशानुसार हो रहा है . यह बहुत विश्वसनीय तो नहीं लगता ,लेकिन इसमें यदि थोड़ी भी सच्चाई है तब इसका अर्थ है जदयू को भाजपा लगभग लील चुकी है . विश्वास करने का कुछ कारण तो दिखता है . वह है कोई दो साल पहले का दिया नीतीश कुमार का ही एक वक्तव्य ,जिस में उन्होंने कहा था कि तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कहने पर उन्होंने प्रशांत किशोर को अपने दल का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया था . यानि कि जदयू भाजपा के इशारे पर अपने इतने महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसले लेती रही है. क्या इस बार का अध्यक्ष पद भी अमित शाह के इशारे पर ही बनाया गया है ? और इसमें भी मुख्यमंत्री बनाने की तरह नीतीश कुमार से जबरदस्ती की गई है ?
जिस तरह नए अध्यक्ष का आसन- ग्रहण हुआ उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए . कोई याद कर सकता है 2004 की घटना ,जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था और उनके प्रशंसकों ने कोहराम मचा कर रख दिया था .

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मुश्किल से उन्हें मनाया गया था . नीतीश कुमार ने जब अपना इस्तीफा रखा तब कोई कोहराम नहीं हुआ यह किसी को भी अविश्वसनीय लग रहा है . यह अकस्मात नहीं हुआ था . सौ किलोग्राम से अधिक का भारी भरकम फूलों का हार और कई क्वींटल के लड्डू पहले से बन कर रखे हुए थे . ढोल -नगाड़े की भी पुख्ता व्यवस्था थी . यह नीतीश का विदाई समारोह था ,या नए अध्यक्ष का स्वागत समारोह ! किसी को भी इन सब की राजनीतिक व्याख्या करने का अधिकार है . नए अध्यक्ष को बधाई देने में भाजपा के लोग आगे थे . अख़बारों ने तो यह कहा कि नए अध्यक्ष मुख्यमंत्री के भरोसेमंद हैं . राजनीति में कौन किसका भरोसेमंद होता है सब जानते हैं . नए जदयू अध्यक्ष से भाजपा की नजदीयों का पता उसी वक़्त चल गया था ,जब लॉक -डाउन के बीच प्रधानमंत्री मोदी के दूसरी पारी के वर्षांत पर उन्होंने अपने बधाई-सन्देश को प्रमुखता से अख़बारों में साया करवाया था .
हाल में मुख्यमंत्री आवास में जिस तरह अटलबिहारी वाजपेयी और अरुण जेटली के जन्मदिन आयोजित हुए , वैसा पहले कभी नहीं हुआ था . जदयू ने कभी लोहिया या अपनी पार्टी के संस्थापक जॉर्ज फर्नांडिस का जन्मदिन इस तरह आयोजित किया हो .इसकी जानकारी किसी को नहीं है . इन सब से अंततः क्या अर्थ निकलता है . कुछ तो बात अवश्य है . धुँआ इंगित करता है ,वहाँ आग है . तो क्या एक समाजवादी कही जाने वाली पार्टी का इस तरह अवसान हो जाएगा ? मुझे इसकी उम्मीद कम दिखती है . इन सब के बावजूद नीतीश कुमार से यही उम्मीद बनती है कि वे भाजपा में समाहित नहीं होंगे . लेकिन इतना जरूर कहा जाएगा कि वह छटपटाहट अथवा घुटन महसूस कर रहे हैं . ऐसी घुटन बर्दास्त करना उनकी फितरत में नहीं है . इसलिए उम्मीद यही बनती है कि बंगाल के चुनाव तक लस्टम -पस्टम ऐसे ही चलेगा .लेकिन उसके बाद बिहार में एक भयावह राजकंप होगा . इसका सब से बुरा प्रभाव एनडीए पर ही पड़ेगा . भाजपा की राजनीति शायद यह है कि इलाकाई पार्टियों को वह एक -एक कर या तो अपने में समाहित कर ले या फिर उन्हें विनष्ट कर दे . कौन समाहित होगा और कौन विनष्ट इसके बारे में अभी कहना या अनुमान लगाना मुश्किल है .
(राष्ट्रीय सहारा ,सम्पादकीय पृष्ठ , 31 दिसम्बर 2020 )






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