कितना बदला बिहार : राजद के पन्द्रह साल बनाम जदयू के पन्द्रह साल

आशीष कुमार ‘अंशु’, निदेशक, मीडिया स्कैन

एक माइक, एक मोबाइल, एक फेसबुक प्रोफाइल लेकर बिहार में इस बार युवाओं की फौज उतरी है। यह नजारा बिहार के गांव की गलियों में आम है। गांव वालों के लिए यह सभी पत्रकार हैं लेकिन वास्तव में ये खास राजनीतिक समूह का टोही दस्ता है। ये गांव में जाकर हवा को महसूस करते हैं और जिनके संसाधनों की वजह से पत्रकार बने हैं, उन्हें पूरी—पूरी रिपोर्ट शाम तक देते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को क्या नाम देना चाहिए? पत्रकारिता या जनसंपर्क या कुछ और? या फिर यह कांग्रेस इको सिस्टम के चुनाव प्रचार का नया फार्मुला है। जिसमें मोबाइल पत्रकार गांव—गांव, शहर—शहर से जानकारी भी जुटाता है और अपने प्रश्नों के माध्यम से अपनी पार्टी का प्रचार भी करता है। वैसे भी एक पत्रकार को विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए। इस तरह खास पार्टी के एजेन्ट के तौर पर काम करने के बावजूद उन्हें विश्वास दिला दिया गया है कि वे पत्रकारिता ही कर रहे हैं। ऐसे में उन पत्रकारिता के छात्रों और युवाओं के लिए रिपोर्टिंग चुनौतीपूर्ण हो जाती है, जो बिहार के इस चुनाव को ईमानदारी से देखना चाहते हैं और पूरी प्रक्रिया पर ईमानदार रिपोर्टिंग करना चाहते हैं। गिनती में कम होने के कारण ऐसे युवाओं की आवाज बिहार चुनाव में दब सी गई है। सच्चाई पर चुनावी रिपोर्टिंग के दौरान प्रचार का तंत्र हावी दिख रहा है।

इस बार चुनावी सर्वेक्षण पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि वहां जिस तरह का सैंपल साइज लिया जा रहा है। वह बिहार के मतदाताओं की तुलना में बहुत ही छोटा है। कई सर्वेक्षण संस्थान तो सभी विधानसभाओं में जा भी नहीं रहे। इससे कैसे सही परिणाम सामने आ सकता है? यदि परिणाम सर्वेक्षणों के आस—पास भी आए तो यह तुक्का ही होगा। एक सर्वेक्षण तो खुद बताता है कि 12—13 प्रतिशत लोगों ने बताया ही नहीं कि वे कहां वोट डालेंगे? उसके बाद जो परिणाम सामने आए हैं, उसमें कितनी सच्चाई होगी?

सच तो यह भी है कि बिहार में यादव, मुसलमान, कोइरी, भूमिहार और राजपूत समुदाय के एक हिस्से को छोड़ दिया जाए तो आम बिहारी अपनी राय जाहिर करने में डर रहा है। इसलिए बिहार चुनाव के सही परिणाम को जानने के लिए 10 नवंबर तक इंतजार करना होगा। यही एक मात्र विश्वसनीय विकल्प है।

चिराग पासवान और बीजेपी को लेकर खूब सारी खबरे चल रहीं हैं। जबकि विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद कोई भी गठबंधन संख्याओं पर ही आधारित होगा। इसलिए अब किसके कैसे रिश्ते किसके साथ हैं कि जगह कितने नंबर किसके पास हैं, पर सरकार बनती है। नंबर का यह खेल ऐसा है कि शिव सेना भी कांग्रेस के साथ सरकार बना लेती है और अवसर देखकर नीतीश कुमार राजद के साथ हाथ मिला लेते हैं। ममता बनर्जी और शरद पवार जो सोनिया माइनो गांधी की वजह से कांग्रेस से अलग हुए। आज उन्हें सोनिया के साथ एक मंच पर खड़े होने में परहेज नहीं है। ऐसे में यदि हालात बनने पर जदयू और राजद फिर एक बार मिलकर बिहार में सरकार बना ले तो इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए।

2020 के विधानसभा चुनाव में राजद के लिए जाति विशेष के लोग बिहार में अति सक्रिय नजर आ रहे हैं। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जैसे तेजस्वी यादव बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। इसके लिए वामपंथी मीडिया और मोबाइल पत्रकार काफी मेहनत कर रहे है। इस कांग्रेस इको सिस्टम के वामपंथी रूझान वाले पत्रकारों का ही वजह से नीतीश कुमार को चुनाव प्रचार के दौरान तनाव में दिखाया जा रहा है। जिससे उनके भाव भंगिमा को एक खास फ्रेम में दिखाकर






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