यकीन कीजिए, रघुवंश भाई, अंतिम पंक्ति लिखते-लिखते मेरी आंखें भर आईं!

उर्मिलेश

नहीं रहे रघुवंश भाई! जनता दल और फिर राष्ट्रीय जनता दल में जिन कुछ नेताओं से मुझे बातचीत करने या मिलने-जुलने का मन करता था, रघुवंश भाई, उनमें प्रमुख थे– और ये बात वह अच्छी तरह जानते थे. पत्रकारिता में होने के बावजूद मैंने नेताओं से निजी रिश्ते बहुत कम बनाये. राजनीतिक लोगों से प्रोफ़ेशनल रिश्ते ही ज्यादा रखे. नेताओं के लंच-डिनर से भी आमतौर पर दूर रहा. उन्हीं आयोजनों मे जाता रहा और आज भी वही स्थिति है, जहां निजी या प्रोफेशनल कारणों से जाना बहुत जरूरी हो! रघुवंश भाई जब तक दिल्ली रहे, हर मकर संक्रांति के दिन मै उनके यहां नियमपूर्वक
जाता रहा. कभी-कभी संसद के सेन्टृल हाल में एक ही बेंच पर बैठकर हम लोग राजनीति के अलावा अपना दुख-सुख भी बतिया लेते थे.
केंद्रीय मंत्रालयों की सलाहकार समिति में प्रभारी मंत्री गण अपनी-अपनी पसंद के सदस्य नामांकित कराते हैं. इनमें अकादमिक जगत, राजनैतिक और मीडिया सहित अलग-अलग क्षेत्रों के लोग होते हैं, जिन्हें सलाहकार समिति का सदस्य बनाया जाता है. एक पत्रकार/ लेखक के रूप में मेरी ऐसी मंत्रालयीय समितियों में कभी रुचि नहीं रही. आज तक कभी किसी मंत्री से नहीं कहा कि मुझे कहीं नामांकित कराएं. जहां तक याद आ रहा, बिहार से आने वाले जिन दो-तीन केंद्रीय मंत्रियों ने अलग-अलग समय पर मुझे बिन-बताये अपने-अपने मंत्रालय की सलाहकार समितियों में नामांकित कराया, उनमें दो के नाम हैं: दिवंगत चतुरानन मिश्रा और रघुवंश भाई! पर मैं इन समितियों मे शायद ही कभी गया. संभवत किसी एक समिति से तो मैने औपचारिक तौर पर अपने को अलग भी कर लिया.
रघुवंश भाई से मेरा परिचय सन् 1986 का था, उसी साल मैं दिल्ली छोड़कर नवभारत टाइम्स के बिहार संस्करण में काम करने पटना गया था. उस वक़्त कर्पूरी ठाकुर विपक्ष की धुरी थे. अनूप बाबू, विनायक प्रसाद यादव, रघुवंश भाई, नीतीश कुमार, लालू यादव, मंगनीलाल मंडल, जगदानंद सिंह, तुलसी दास मेहता, जाबिर हुसैन, देवेन्द्र प्रसाद यादव, मुंशी लाल राय और वीरेन्द्र कुमार सिंह सरीखे कई नेता दूसरी कतार के प्रमुख नाम थे. कर्पूरी जी के आकस्मिक निधन के कुछ समय बाद लालू प्रसाद यादव को विपक्ष की कप्तानी मिल गयी. इसे संयोग ही कहा जायेगा कि लालू यादव सन् 1990 के विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री चुने गये. फिर वह बिहार की राजनीति मे किस तरह जमे और किस तरह उखड़े, यह सब इतिहास का हिस्सा है.
रघुवंश भाई सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों स्तर पर एक गुणवान नेता थे. यूपीए सरकार में ग्रामीण विकास मंत्रालय का कामकाज जिस कामयाबी के साथ उन्होंने संभाला, वह खासतौर पर उल्लेखनीय है. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (NREGA) उन्हीं के समय लाई गई.
हाल के वर्षो में पार्टी के अंदर अपनी उपेक्षा से वह दुखी थे. वैशाली क्षेत्र के ताजा सियासी समीकरणों में उन्हें किनारे करने से इतर भी उनकी उपेक्षा होती दिखी. पिछले दिनों पार्टी ने राज्यसभा के लिए दो व्यक्तियों का नामकरण किया. एक महाशय तो लालू यादव घराने के पुराने नजदीकी हैं, हर तरह के ‘प्रबंधन’ में कुशल माने जाते हैं. राजद की तरफ से कई बार राजसभा की शोभा बढ़ा चुके हैं. कैबिनेट मंत्री भी रह चुके हैं. दूसरे महाशय को राजद की राजनीति मे कभी नही देखा गया. शायद ही किसी ऑब्जेक्टिव विश्लेषक को समझ में आया हो कि रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे एक अनुभवी, दमदार और समझदार नेता के होने के बावजूद उन्हें राज्यसभा में क्यों नहीं भेजा गया? विधानसभा के चुनावी गणित के हिसाब से भी रघुवंश भाई के अलावा दूसरी सीट के लिए राजद के किसी अन्य नेता, खासतौर पर कोई महिला, दलित या अति पिछड़े समुदाय के या उपेन्द्र कुशवाहा जैसे किसी सहयोगी दल के नेता का चयन ज्यादा फायदेमंद साबित होता. पर ये फैसले तो राजद जैसी पार्टियों का आलाकमान अपने ढंग और अपनी सुविधा से करता है. कई बार ऐसे फैसलों में राजनीति से ज्यादा दूसरे कारक महत्वपूर्ण हो जाते हैं.
राजद नेतृत्व से दुखी रघुवंश प्रसाद सिंह ने बीते 10 सितम्बर को राजद अध्यक्ष के नाम चिट्ठी लिखकर पार्टी से अपने अलगाव का साफ संकेत दिया था. इसके जवाब में लालू प्रसाद यादव की तरफ से भी ऐसी ही एक हस्तलिखित चिट्ठी सामने आयी, जिसमें उन्होंने पार्टी से उनके ‘अलगाव’ को अमान्य करते हुए कहा कि आप(रघुवंश जी के लिए ) कहीं नहीं जा रहे हैं!
पर रघुवंश बाबू चले गये—अंतिम यात्रा की तरफ—-प्रकृति में विलीन होने.
यकीन कीजिए, रघुवंश भाई, अंतिम पंक्ति लिखते-लिखते मेरी आंखें भर आईं! सबमें कुछ कमियां होती हैं, सबकी कुछ सीमाएं होती हैं. आप जिस पार्टी में बरसों-बरस रहे, आप उसके चंद नेताओं में थे, जो मुझे अच्छे लगते रहे और जिनके साथ मेरा संवाद बना रहा.
आपको आखिरी सलाम और श्रद्धांजलि!

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक से साभार






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