लालू को गच्‍चा देने का तीन माह से चल रहा था खेल

राधाचरण से रणविजय तक ने राजद की टूट में दिया साथ

पटना, अरविंद शर्मा। राजद के विधान पार्षदों के पाला बदलने की पटकथा तीन महीने पहले से ही लिखी जा रही थी। कहानी करीने से आगे बढ़ रही थी। राजद के आठ में से चार पार्षद तो आसानी से टूटने के लिए तैयार हो गए थे, किंतु इससे बात नहीं बनती। दो तिहाई के लिए पांच का आंकड़ा जरूरी था। इसलिए पांचवें को पटाने में थोड़ा वक्त लगा। ना-नुकूर में छठे पर भी डोरे डाले गए, किंतु उन्होंने वरिष्ठता और निष्ठा की दुहाई देकर पीछा छुड़ा लिया। इसी में थोड़ा विलंब भी हुआ।

सब हुआ सुनियोजित तरीके से
सब सुनियोजित तरीके से हो रहा था। मार्च के पहले हफ्ते से ही प्लेटफॉर्म तैयार कर लिया गया था। राजद प्रमुख लालू प्रसाद को इसकी भनक तक नहीं लगने दी गई। संजय प्रसाद पहले ही लालू परिवार की कार्यशैली से बागी हो गए थे। राजद की अहम बैठकों से भी उन्होंने खुद को दूर कर लिया था। लोकसभा चुनाव में जदयू के वरिष्ठ नेता एवं मुंगेर से लोकसभा प्रत्याशी राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह के पक्ष में खुलेआम बैटिंग भी की थी। नेतृत्व से सहमति मिलने के बाद राजद में सेंध लगाने की जिम्मेवारी संजय को दी गई।

बहुत मुश्किल था मिशन
मिशन बहुत मुश्किल था क्योंकि राजद के आठ सदस्यों में से सात लालू के अत्यंत करीबी थे। एक तो खुद राबड़ी देवी थीं, जिन्हें छोड़कर बाकी को राजी करना था। रामचंद्र पूर्वे की लालू परिवार के प्रति दशकों से वफादारी थी। हाल के दिनों में सुबोध राय ने जिस तरह लालू-राबड़ी के कृपापात्रों में शामिल हो गए थे, उससे उनके ऊपर भी मंत्र काम नहीं कर रहा था। तीनों को छोड़कर बाकी पांच को आजमाया जाने लगा।

राधा चरण ने दी सबसे पहले सहमति
सबसे पहले राधा चरण सेठ ने सहमति दी। राजद की स्थिति और अपनी संभावना को देखते हुए दिलीप राय और कमर आलम भी बहुत दिनों तक अड़े नहीं रह सके। दो हफ्ते पहले चारों रजामंद हो गए। किंतु बात इससे भी नहीं बन पा रही थी। पांच की संख्या पूरी करने के लिए राजद के एक वरिष्ठ नेता को आजमाया गया। किंतु कामयाबी नहीं मिली तो रणविजय सिंह की घेराबंदी की गई। लालू से निकटता को देखते हुए माना जा रहा था कि रणविजय नहीं मानेंगे। किंतु शुरुआती हिचक के बाद सबसे आसानी से उन्होंने ने ही माना। टूटने से हफ्ते भर पहले सबकी सहमति मिल गई तो कहानी का आखिरी अध्याय लिख दिया गया।

जल्दी में हुई सभापति की तैनाती
राजद को तोडऩे के लिए पर्याप्त संख्या जुटा लेने के बाद विधान परिषद में तकनीकी अड़चन आने लगी। एक महीने से सभापति और उपसभापति का पद खाली था। ऐसे में राजद के विरोधी गुट को सदन में मान्यता देने को लेकर मामला अटक रहा था। अवधेश नारायण सिंह पर पहले से ही लगभग सहमति बन चुकी थी, लेकिन हालात के हिसाब से उन्हें आनन-फानन में कार्यकारी सभापति नियुक्त कर दिया गया, जिसके बाद रास्ते की सारी बाधाएं खत्म हो गईं। जागरण से साभार



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