सामा चकेवा-एक विस्मृत होती मासूमियत का आख्यान !

धु्रव गुप्त

हमारे देश में शास्त्रीय पर्वों और उत्सवों के अतिरिक्त रंग-विरंगे लोक पर्वों की लंबी श्रृंखला है। लोक आस्था के कुछ सबसे खूबसूरत त्योहारों में बिहार के मिथिला क्षेत्र में हर साल मनाए जाने वाले सामा चकेवा की गिनती होती है। भाई-बहन के कोमल और प्रगाढ़ रिश्ते को बेहद मासूम अभिव्यक्ति देने वाला यह लोकपर्व समृद्ध मिथिला संस्कृति की पहचान रही है। सामा चकेवा का यह आठ दिवसीय आयोजन छठ के पारण के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी से शुरू होता है और कार्तिक पूर्णिमा के दिन खत्म होता है। इसकी पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक कथा नहीं, सदियों से मौखिक परंपरा से चली आ रही एक लोककथा है। कथा यह है कि श्यामा या सामा कृष्ण की पुत्री थी। साम्ब जिसे मैथिलि में सतभइयां या चकेवा के नाम से जाना जाता है, कृष्ण का पुत्र और श्यामा का भाई था। दोनों भाई-बहनों में बचपन से असीम स्नेह था। सामा प्रकृति प्रेमी थी जिसका ज्यादा समय पक्षियों, वृक्षों और फूल-पत्तों के बीच ही व्यतीत होता था। वह अपनी दासी डिहुली के साथ वृंदावन जाकर ऋषियों के बीच खेला करती थी। कृष्ण के एक मंत्री चुरक ने जिसे कालांतर में चुगला नाम से जाना गया सामा के खिलाफ कृष्ण के कान भरने शुरू कर दिए। उसने सामा पर वृन्दावन के एक तपस्वी के साथ अवैध संबंध का आरोप लगाया। उसकी बातों में आकर कृष्ण ने आक्रोश में अपनी पुत्री को पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया | सामा मनुष्य से पक्षी बनी और वृंदावन के वन-उपवन में रहने लगी। उसे इस रूप में देख वहां के साधु-संत भी पक्षी बन गए। जब सामा के भाई चकेवा को इस प्रकरण की जानकारी हुई तो उसने कृष्ण को समझाने की भरसक कोशिश की। कृष्ण नहीं माने तो वह तपस्या पर बैठ गया। अपनी कठिन तपस्या के बल पर अंततः उसने कृष्ण को मनाने में सफलता पाई। प्रसन्न होकर कृष्ण ने वचन दिया कि सामा हर साल कार्तिक के महीने में आठ दिनों के लिए उसके पास आएगी और कार्तिक की पूर्णिमा को पुनः लौट जायेगी। कार्तिक में सामा और चकेवा का मिलन हुआ। उसी दिन के याद में आज भी सामा चकेवा का त्यौहार मनाया जाता है।

इस त्यौहार में सामा और चकेवा की जोड़ी के साथ चुगला, वृन्दावन, बटगमनी, वृक्षों, पक्षियों आदि की मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्तियां बनायी जाती है। बांस की रंग-विरंगी टोकरियों में इन मूर्तियों को सजाकर उनकी अर्चना की जाती है। संध्या के समय गांव या नगर की युवा महिलाओं की टोली मैथिली लोकगीत गाती हुईं अपने घरों से बाहर निकलती हैं | सामा खेलते समय मैथिली लोक गीतों के साथ समां बंध जाता हैं। गीतों में आपसी नोकझोंक, हंसी-मज़ाक और ननद-भौजाई की चुहलबाजियां भी शामिल होती हैं। अंत में चुगलखोर चुगला का मुंह जलाने के बाद सभी महिलायें गाती-गुनगुनाती घर लौट जाती हैं | यह सिलसिला पूरे आठ दिनों तक चलता रहता है। कार्तिक पूर्णिमा के अंतिम दिन बहने अपने भाइयों के साथ खेतों में जाती हैं। चूड़ा, दही, गुड़ और मिठाई से मुंह जूठा कराने के बाद वे मूर्तियों को भाईयों के घुटने से तुड़वा देती हैं। उसके बाद अपने-अपने भाईयों की लम्बी उम्र की कामना के साथ वे सामा चकेवा का विसर्जन करती हैं। जाते-जाते चुगला की मूंछ में आग लगा दी जाती है। भाईयों को मिठाई खिलाकर और उनकी लंबी उम्र की प्रार्थनाएं करने के बाद अगले वर्ष फिर सामा चकेवा के आने की कामना के साथ इस आयोजन का समापन होता है।

इस आठ दिवसीय त्यौहार का एक प्राकृतिक और पर्यावरणीय सच भी है। इस आयोजन का एक बड़ा उद्धेश्य मिथिला क्षेत्र में आने वाले प्रवासी पक्षियों को सुरक्षा और सम्मान देना भी है। बरसात के बाद कार्तिक के महीने से सर्दियों की शुरुआत होती है। ताल-तलैया से भरे मिथिला के मैदानी इलाकों में दूर-दराज़ से दुर्लभ प्रजाति के रंग-बिरंगे पक्षियों का आगमन शुरू हो जाता है। ये पक्षी हिमालय या सुदूर उत्तर के देशों हिमच्छादित इलाकों से विस्थापित होकर यहां इसलिए आते हैं क्योंकि यहां सर्दी कम पड़ती है और पानी की सुविधाएं यहां भरी पड़ी हैं। प्रवासी पक्षियों के आगमन की शुरुआत सामा चकेवा नामक पक्षियों के जोड़े के आने से होती है। इन पक्षियों को शिकारियों के हाथों से बचाने और मनुष्य तथा पक्षियों के सनातन रिश्ते को मजबूती और स्थायित्व देने के लिए हमारे पूर्वजों ने सामा और चकेवा के धार्मिक और मिथकीय प्रतीक गढ़े। सामा और चकेवा पक्षियों की कल्पना कृष्ण की संतानों के रूप में की गई। चुगला का प्रतीक संभवतः पक्षियों के शिकारियों के लिए है। यह अकारण नहीं कि स्त्रियां तालाबों से मिट्टी लेकर सामा चकेवा पक्षी बनाने के बाद उन्हें पारंपरिक तरीके से सजाती भी हैं और उनके स्वागत में गीत भी गाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा को इस पक्षी जोड़े की बिदाई और चुगला रुपी शिकारी की मूंछे जलाने के साथ इस त्यौहार का अंत इस उम्मीद के साथ किया जाता है कि मेहमान पक्षियों को यहां के लोगों से कोई शिकायत नहीं होगी और अगले वर्ष वे फिर लौटकर यहां के मैदानों, झीलों और ताल-तलैया को अपने मासूम कलरव से एक बार फिर भर देंगे। मिथिला के तालाबों और सरोवरों में सर्दी के आरम्भ के साथ प्रवासी पक्षी अब भी दिख जाते हैं, लेकिन बढ़ते प्रदूषण और शोर की वज़ह से उनकी तादाद में निरंतर कमी आ रही है।

जीवन के हर क्षेत्र में आधुनिकता के प्रवेश का असर हमारी समृद्ध सांस्कृतिक और लोक परम्पराओं पर पड़ा है। सामा-चकेवा भी इसका अपवाद नहीं है। मिथिला संस्कृति का यह प्रतीक पर्व अब लोक से सिमट कर कुछ ही घरों तक यह सीमित रह गया है। जहां है, वहां भी इसकी रंगत फीकी हुई है। इसके आयोजन में उत्साह नहीं दीखता। शहरों में रहने वाले एकल परिवारों से तो यह लगभग लुप्त ही हो गया है, गांवों में भी इक्का-दुक्का दरवाजों पर ही दो-चार स्त्रियां इसे मनाती और गाती दिख जाती हैं। गांवों से पुरानी पीढ़ी के जाने के साथ शायद यह दुर्लभ दृश्य दिखना भी बंद हो जाय। अपनी जड़ों से कटे लोगों के बीच और निरंतर भागदौड़ से हांफते इस जटिल समय में जब कोई मानवीय मूल्य सुरक्षित नहीं है तो लोक आस्थाओं की मासूमियत भी भला कैसे बची रह सकती है ? मिथिला की आने वाली पीढियां अब किताबों से ही जान पाएगी कि उनकी संस्कृति में में कभी भाई-बहन के रिश्तों और पक्षियों के साथ एकात्मकता के ऐसे भोले-भाले उत्सव भी मनाए जाते थे। (धु्रव गुप्त पुलिस सेवा से सेवानिवृत अधिकारी हैं तथा गोपालगंज के रहने वाले हैं, आलेख उनके फेसबुक वॉल से सा•ाार)






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