बस जाति पूछो 'नेता' की

bihar electionप्रसिद्ध संत कबिर कहते थे कि साधु की जाति नहीं होती। पहले राजनीति में आने वाले संत की तरह माने जाते थे। कबीर भी नहीं रहे। राजनीति में वह सेवा वाली भावना भी नहीं रही। अपने प्रदेश की राजनीति में जाति वैसे ही घुली मिली है जैसे  शरीर के नसों में रक्त का संचार होता है। भले ही समाज की शुरुआती दौर में जाति की मूल कल्पना समाज व्यवस्था के लिए की गई थी। लेकिन तब किसी को यह अहसास नहीं था कि कालांतर में यही जाति एक कैंसर की तरह सत्ता और सियासत के रगों घुलमिल जाएगी और इससे विकास प्रभावित होगा। बिहार के कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां जाति के कारण विकास की बयान मंद है। आज कौन ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो इसे अपना बड़ा समीकरण नहीं मानती है। पंचायत से लेकर संसद तक के सभी चुनाव जातिवाद के आधार पर ही टिकट का बंटवारा होता है। आगामी विधानसभा चुनाव में ही इसी कारण को हर पार्टी ध्यान में रख रही है। विधानसभा चुनावों से पहले ही जातिय आधार पर कई सम्मेलन हुए हैं। हर व जाति जो दबी कुचली और पिछड़ गई, राजनीति में अपना प्रतिनिधित्व खोजने लगी है। पटना में होने वाले जातिय आधारित रैलियों में नेता इसी मुद्दे की दुहाई देते हैं। सभी अपनी-अपनी मांगों को लेकर विभिन्न दलों पर दबाव बनाने की तैयारी करने लगे। जिस विधानसभा क्षेत्र में जिस जाति के लोगों की बहुलता है, वहां टिकट भी उसी आधार पर बांटे जाते रहे हैं। यह यह सच नहीं है कि जातिवाद की राजनाीति के कारण ही कई योग्य उम्मीदवार टिकट से वंचित हो जाते हैं। जति के आगे अन्य तमाम जनहित के मुद्दे गौण हो जाते हैं। यही कारण है कि अशिक्षा, पिछड़ापन आदि की समस्याएं हाल के दिनों में विकराल हो चुकी है। हालांकि हाल के वर्षों में जाति से ज्यादा विकास के मुद्दे बुलंद हुए हैं, लेकिन टिकट के बंटवारे और वोट प्रतिशत के आंकड़े देख कर तो यही लगता है कि बिहार में बिना जाति नेताओं की तमाम योग्यताएं कमतर हैं।-






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