बिहार में महादलित ही हैं तुरुप का पत्ता
ढोलक की धुन पर गाती-थिरकती इन महिलाओं को देखकर मांझी अपनी लोकप्रियता के इस बढ़ते हुए उफान से गद्गद हो उठे. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री ने उनसे कहा, ”दो महीने इंतजार करो. एनडीए की सरकार बनते ही हम आपकी सभी मांगें पूरी कर देंगे. ”
मांझी का गांव महाकार फतेहपुर से करीब 70 किमी दूर है. वहां दैनिक मेहनत-मजदूरी करने वाले रामाशेष मांझी मुसहर समुदाय के लड़कों के साथ ताश फेंटते हुए अपनी उत्सुकता को नहीं छिपा पाते. खेल देख रहे उनके साथी मजदूर 50 वर्षीय महेश्वर मांझी धीरे से कहते हैं, ”हम इस सरकार को सबक सिखाएंगे. ”
महादलित या जातियों के क्रम में सबसे निचले पायदान के इसी मुसहर समुदाय से पूर्व मुख्यमंत्री मांझी भी आते हैं. महाकार में फिलहाल बड़े पैमाने पर इन्फ्रास्ट्रक्चर और निर्माण से जुड़ी गतिविधियां चल रही हैं. ये सब मांझी के 278 दिनों के राजकाज का ही नतीजा हैं. इस गांव के करीब सौ घरों में से मुसहरों के सिर्फ 25 परिवार हैं. लेकिन रामाशेष और महेश्वर की तरह मांझी के पहले के नेता नीतीश कुमार के खिलाफ भावनाएं इस पूरे इलाके में देखने को मिलती हैं. राज्य में दलित या अनुसूचित जातियों की आबादी करीब 22 उप-जातियों में बंटी हुई है. इन सभी लोगों में राज्य के पहले मुसहर मुख्यमंत्री को हटाने के लिए अब भी नीतीश के खिलाफ काफी नाराजगी है.
नीतीश कुमार की समस्या की शुरुआत भी यहीं से होती है. राज्य में इन जातियों की आबादी करीब 15.9 फीसदी है. इसलिए ये अपने आप में किसी भी राजनैतिक मोर्चे की संभावनाएं उभारने या गिराने का दमखम रखती हैं. अगर दलित जातियां एक साथ वोट करने का मन बना लेती हैं तो ये बिहार में यादवों की तरह ही एक मजबूत वोट बैंक में तब्दील हो जाती हैं. हालांकि राज्य के कई हिस्सों में अब भी अनुसूचित जातियों में नीतीश कुमार के प्रति काफी सहानुभूति है. आखिर उन्होंने ही मूल रूप से 18 उप-जातियों में तीन और जातियों को मिलाकर उन्हें महादलित की श्रेणी में रखा था और उनके लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं चलाई थीं. लेकिन अब 70 वर्षीय मांझी नीतीश के सामने चट्टान की तरह खड़े हैं. दरअसल, इन्हीं दलित मतदाताओं ने जनता दल (यूनाइटेड) को 2009 के लोकसभा चुनावों और 2010 के विधानसभा चुनावों में साफ-साफ बढ़त दिलाई.
2009 के लोकसभा चुनावों तक अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित सीटें सभी पार्टियों में बंट जाया करती थीं. लेकिन उस साल जेडी (यू) कुल छह सुरक्षित लोकसभा सीटों में से चार पर जीत गई. फिर अगले साल विधानसभा चुनावों में कुल 38 सुरक्षित सीटों में से जेडी (यू) की अगुआई में एनडीए को 37 सीटें मिलीं. 1990 के दशक में पिछड़ों और दलितों के मसीहा माने जाने वाले लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी को महज एक सीट से ही संतोष करना पड़ा. इस बार कड़ी टक्कर वाले दो ध्रुवीय चुनावों में जेडी (यू) आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन को यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोटों में बड़ी हिस्सेदारी मिलने की उम्मीद है. वहीं बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए को ऊंची जातियों, बनिया-व्यापारियों के वोट बड़े पैमाने पर मिलने भरोसा है. साथ ही कुछ पिछड़ी जातियों के वोट मिलने की भी संभावना है. अति पिछड़ी जातियों के वोट भी बंटना तय लग रहा है. ऐसे में दलित वोटों का रुझान ही नतीजों को प्रभावित करने का दमखम रखता है.
2009 और 2010 के पिछले दो चुनावों में इन्हीं दलित वोटों के एनडीए के पक्ष में रुझान से लालू और तब उनके सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान को मुंह की खानी पड़ी थी. पासवान तब बिहार के सबसे बड़े दलित नेता कहे जाते थे. पासवान जाति के समर्थन के बावजूद 2009 में लोक जनशक्ति पार्टी का खाता तक नहीं खुला, जबकि अगले साल विधानसभा चुनावों में उन्हें महज तीन सीटों से संतोष करना पड़ा. तो लालू की पार्टी विधानसभा में सबसे कम 22 सीटों पर सिमटकर रह गई.
अभी साल भर पहले तक नीतीश कुमार के लिए यह सिरदर्दी दूर-दूर तक नहीं थी. अलबत्ता 2014 के आम चुनावों में हिंदी प्रदेशों में बाकियों की तरह दलित समुदाय भी मोदी लहर में बह गया था, लेकिन आम चुनाव और विधानसभा चुनाव में बहुत फर्क है. विधानसभा चुनाव अलग ही मैदान में लड़े जाते रहे हैं. अब जीतनराम मांझी के दलित नेता के तौर पर उभरने से यह सारा गणित गड़बड़ा गया है. नीतीश ने मुख्यमंत्री रहते गैर-पासवान दलित वोटों का जो राजनैतिक समीकरण तैयार किया था, वह सिर के बल खड़ा हो गया है.
नीतीश ने सबसे निचले पायदान की दलित उप-जातियों के कल्याण के लिए 2007 में महादलित आयोग का गठन किया. उसके बाद उन्होंने इनके लिए कई कल्याणकारी योजनाओं की भी घोषणा की. इसे उनका पहला मास्टर स्ट्रोक माना गया. और जब 2014 की अपमानजनक हार के बाद नीतीश ने इस्तीफा देकर एक महादलित मांझी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया तो राजनैतिक पंडितों ने इस कदम को उनका दूसरा मास्टर स्ट्रोक बताया.
लेकिन मुख्यमंत्री मांझी ने दलित नायक के रूप में उभरने में समय जाया नहीं किया. और दलित समुदाय के बीच जगह बना ली. उनके पहले राज्य के पहले और आखिरी दलित मुख्यमंत्री रामसुंदर दास ही हुए थे. उनका 303 दिनों का राजकाज मांझी के कार्यकाल से ठीक 35 साल पहले फरवरी, 1980 में खत्म हुआ था. वैसे, मांझी का दस महीने का कार्यकाल विवादास्पद बयानों और फैसलों से भरा पड़ा था, लेकिन अपने कुछ फैसलों से उन्होंने दलितों के बीच अपने लिए ढेर सारी सहानुभूति भी अर्जित की. इनमें दलितों को जमीन मुहैया कराने, दलित लड़कियों के लिए मुक्रत शिक्षा और अपने कार्यकाल के अंत में पासवानों को महादलित में शामिल करने जैसे फैसले बहुत अहम रहे हैं.
हालांकि मांझी बिहार के इकलौते बड़े दलित नेता नहीं हैं. जेडी (यू) में विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी, मंत्री श्याम रजक और रमई राम हैं तो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी भी दलित हैं. एलजेपी के मुखिया पासवान भी पिछले कई सालों से चुनावी खेल खेलते रहे हैं. लेकिन महाकार के मांझी ने दलित पहचान और गौरव के कार्ड को बड़े करीने से खेला है. सो, आश्चर्य नहीं कि इस बार उनके हिंदुस्तान अवाम मोर्चा-सेकुलर (हम-एस) और पासवान की एलजेपी के साथ एनडीए के पास तुरुप की बाजी है. सांत्वना यही है कि बीजेपी 38 सुरक्षित सीटों में से करीब 20 सीटें अपने सहयोगी दलों के लिए छोड़ दे. हालांकि बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती पासवान और मांझी के रिश्तों को सहज करना है. बीजेपी 243 में से करीब 150 सीटों पर खुद चुनाव लडऩे का मन बना रही है.
एनडीए के प्रचार का फोकस सामाजिक सशक्तिकरण और दलित समुदाय के लिए कल्याण कार्यक्रमों पर है. हालांकि किसी विशेष योजना की घोषणा नहीं हुई है. दलित वोटरों का रुझान किधर रहेगा? इस सवाल पर बीजेपी के प्रवक्ता देवेश कुमार पूरे भरोसे से कहते हैं, ”नीतीश कुमार ने सिर्फ चुनावी फायदे के लिए दलितों का इस्तेमाल किया है. उन्होंने उन्हें सिर्फ बांटा, इस्तेमाल किया और फिर अपमानित भी किया है. दलित इसे बखूबी समझते हैं. ”
उधर, जेडी (यू) दलितों को आकर्षित करने की नीतीश की नई कोशिशों के आसरे है. पार्टी नेताओं का दावा है कि उन्होंने उनकी सामाजिक-आर्थिक हालत सुधारने में काफी मदद की है. बिहार के खाद्य तथा नागरिक आपूर्ति मंत्री रजक के मुताबिक, दलितों को पता है कि नीतीश ने उन्हें सामाजिक सम्मान दिलाया है और उन्हें लाभ पहुंचाने की कोशिश की है. वे कहते हैं, ”वे नीतीश कुमार का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे. ”
पटना के पुराने सचिवालय में जहां रजक बैठते हैं, वहां से बमुश्किल सात किमी की दूरी पर उनका विधानसभा क्षेत्र फुलवारी शरीफ है. यहां भी फतेहपुर और महाकार की तरह महादलितों में नीतीश विरोधी भावनाएं व्यापक हैं. इसी क्षेत्र के ढिबरा-शाहपुर इलाके के दैनिक मजूरी करने वाले 45 वर्षीय लाला मांझी कहते हैं, ”आप ऐसे आदमी के बारे में क्या कह सकते हैं, जो आपके आगे थाली परोसता है और जैसे ही आप खाना शुरू करते हैं, वह थाली खींच लेता है? नीतीश कुमार ने तो यही किया है. नीतीश कुमार को यह बात पच नहीं पाई कि कोई मुसहर—चूहा खाने वाला और सूअर चराने वाला—भला उनसे ज्यादा लोकप्रिय कैसे हो जाएगा. ”
मांझी कभी ढिबरा नहीं आए हैं, मगर नीतीश वहां पहुंचे हैं. वे यहां 15 अगस्त को दलित बस्ती में तिरंगा फहराने गए थे और भाषण भी दिया था. लेकिन ढिबरा के महादलित निवासियों को याद नहीं आता कि नीतीश ने कभी उनकी दशा सुधारने के लिए कुछ किया हो. उनके दिमाग में तो नीतीश की छवि मांझी को बाहर निकालने वाले नेता की ही है. ऐसे में फुलवारी शरीफ में जेडी (यू) के लिए कितनी संभावना है और वह कितनी सुरक्षित है? फुलवारी शरीफ में रजक के खासमखास 57 वर्षीय अजय सिन्हा कहते हैं, ”मंत्री जी अभी भी आसानी से जीत जाएंगे. हमें उम्मीद है कि यादव, कुर्मी और मुसलमानों के वोट हमें मिलेंगे. मैं महादलित वोटों को लेकर आश्वस्त नहीं हूं. ”
फिलहाल तो इन वोटों को लेकर कोई आश्वस्त नहीं लगता. दोनों ही बड़े गठबंधनों का भाग्य अभी अधर में ही लटका हुआ है. बिहार की उलझन भरी और बुरी तरह बंटी हुई चुनावी राजनीति में बटन दबाते वक्त किस समुदाय या उप-जाति का रुख किस ओर रहता है, यह अभी से कहा नहीं जा सकता. लेकिन जीत और हार की दिशा तो इसी से तय होगी. source- aajtak.intoday.in/story/bihar-election-2015-why-mahadalits-hold-the-trump-card-1-832757.html
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