जयंत जिज्ञासु और राजद

पुष्य मित्र
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कल एक मित्र से बात हो रही थी. वे कह रहे थे, बताइये राजद जैसी पार्टी जिसकी छवि गुंडों वाली पार्टी की रही है, ने जेएनयू के लिए जयंत जैसा सुलझा और विचार संपन्न कैंडिडेट चुना है. जबकि नीतीश जी की पार्टी को देखिये, सेकेंड लाइन में खाली ठेकेदार और रंगदार मिलेंगे, गुंडों की बीवियां मिलेंगी और नेताओं के बच्चे मिलेंगे. राजद जहां अपनी छवि को बदलने के लिए जमीन से जुड़े विचार में पगे लोगों को सामने ला रहा है, जबकि दूसरी पार्टियां इस बारे में सोच भी नहीं रही है.

उनकी बात मुझे सच लगी. यह सिर्फ नीतीश जी के जदयू की बात ही नहीं है. तमाम पार्टियों में जो नये लोग आ रहे हैं, वे धन बल में मजबूत, धंधेबाज और दूसरे तरह की पृष्ठभूमि के हैं. आम लोगों के बीच से कोई समझदार और विचारशील व्यक्ति राजनीति में आ सके, इसके तमाम रास्ते बंद हैं. फिर चाहे कांग्रेस की बात हो, भाजपा की बात हो या बसपा-सपा-तृणमूल जैसी पार्टियों की ही बात क्यों न हो. ऐसे में राजद जैसी पार्टी द्वारा जयंत जिज्ञासु जैसे युवक को लोगों के सामने पेश करना और जयंत का इस मौके का भरपूर लाभ उठा लेना सचमुच बहुत सकारात्मक बात है.

जयंत को उम्मीदवार बनाते ही मैंने इस बात की बधाई राजद को दी थी, जयंत को नहीं. और यह राजद को मेरी पहली बधाई थी. अमूमन मैं इस दल से असहमत ही रहता हूं. आज जेएनयू के चुनाव का नतीजा जो भी हो मगर दिलचस्प तरीके से लेफ्ट यूनिटी के निशाने पर एबीवीपी कम जयंत अधिक था. लोग उससे शहाबुद्दीन के मसले पर सवाल कर रहे थे, लालू के गुंडाराज की मीमांसा करने कह रहे थे और भी कई तरह से घेर रहे थे. मगर यह कुछ अधिक ही था, एक नये छात्र नेता से उसकी पार्टी के 24-25 साल के कामकाज का हिसाब लेना ठीक नहीं. आप यह समझिये कि आखिर पार्टी बदल तो रही है.

सवाल उन दलों से भी कीजिये, जिन्हें आप पसंद करते हैं और वे नयी पीढ़ी के नाम पर नासमझ हुड़दंगियों को बढ़ावा दे रहे हैं. आखिर क्यों प्रेसिडेंशियल स्पीच के दौरान लेफ्ट यूनिटी का उम्मीदवार भी जयंत से उन्नीस रह गया. विद्यार्थी परिषद में तो नेता ही हुड़दंगी को बनाया जाता है. वही उम्मीदवारी की अहर्ता है. कांग्रेस सचिन पायलट को सात ताले में छिपा कर रखती है, कि कहीं उसकी छवि राहुल पर ग्रहण न बन जाये. हालांकि वहां नयी पीढ़ी के नाम पर जो लोग हैं, वे नेताओं के बच्चे ही हैं. भाजपा भी उसी रास्ते पर है, हालांकि उसे भी वरुण गांधी से भय आता है. यहां तक कि लेफ्ट में भी ले दे के कन्हैया नये नेता के रूप में आये हैं, जो इतने घिस चुके हैं कि उनमें कुछ भी फ्रेशनेस बची नहीं.

मगर लगता है, जयंत का किस्सा दूसरे दलों को प्रेरित करेगा. सोशल मीडिया ने ऐसे कई युवकों को मंच दिया है, पहचान दी है, जो वैचारिक रूप से सक्षम हैं. उनकी छवि बेदाग है. अब तक पार्टियां इन्हें आइटी सेल के स्वयंसेवकों के तौर पर ही इस्तेमाल करती आयी है, पर शायद अब पार्टियां रिस्क ले. अगर ऐसा होता है तो भले ही कुछ अरसे के लिए, मगर देश की राजनीति में थोड़ी ताजगी जरूर आयेगी.






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