हे कर्णावती! मत भेजना हुमायूँ को राखी

अवधेश कुमार ‘अवध’
सावन के महीने में शुक्लपक्ष की पूर्णिमा के दिन राखी का त्यौहार न सिर्फ भारत बल्कि कई अन्य देशों में भी धूमधाम से मनाया जाता है। रक्षा बंधन का यह पर्व सिर्फ भाई – बहन तक सीमित न होकर गुरु – शिष्य, पिता – पुत्री, वरिष्ठ – कनिष्ठ, मामी – भांजा, मनुष्य – वृक्ष आदि सामाजिक व पारिवारिक रिश्तों के बीच भी होता है। आज के समय में कई प्रकार की राखियों से बाजार भरा पड़ा है किन्तु इन सबके बीच एक ही सत्य कायम है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति को इस भरोसे के साथ कच्चा धागा रूपी राखी बाँध सकता है कि समय आने पर वह उसकी रक्षा करेगा।
भारत भूमि का यह बहुत प्राचीन त्यौहार है। देव – दानव युद्ध में भी इसका प्रसंग आता है। राजा बलि की कहानी भी इससे सम्बंधित है। वृक्षों में भी कच्चा धागा लपेटने की प्राचीन परम्परा अब भी पाई जाती है। कृष्ण – द्रौपदी प्रसंग भी जगजाहिर है। सिकंदर की पत्नी ने महाराज पुरु को इस धागे से बाँधकर सिकंदर को पुरु से बचा लिया था। अन्य बहुत से ऐसे प्रसंग हैं जो वर्षों से इस पर्व को दर्शाते हैं। इनके साथ एक ऐतिहासिक प्रसंग भी है जिसके बारे में शायद ही कोई अनभिज्ञ हो। मेवाड़ के महाराज स्व० राणा सांगा की धर्मपत्नी कर्णावती और मुगल बादशाह हुमायूँ के बीच रक्षा का सम्बंध जिस तरह घटित हुआ था, उससे उन समस्त बहनों की आँखों से पट्टी हट जाएगी और उन समस्त भाइयों के दोहरे चरित्र उजागर हो जाएँगे।
सन् 1527 ई. में खानवाँ के युद्ध में बाबर से लड़ते हुए राणा सांगा कुर्बान हुए थे। उनके दोनों बच्चे छोटे थे जिनमें विक्रमादित्य की हत्या परिवार वालों ने कर दी थी और उदय को पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर बचा लिया था। रानी कर्णावती असहाय – सी हो गई थी। इधर बाबर की मृत्यु और उसके पुत्रों और रिश्तेदारों के आपसी झगड़े तथा शेरशाह की बढ़ती ताकत ने हुमायूँ को अमरकंटक के जंगलों की राह दिखाई थी। अमरकंटक के राणा ने सारी कहानी जानते हुए भी शरणार्थी हुमायूँ को परिवार सहित शरण दिया था। समय करवट लिया और हुमायूँ फिर बादशाह बन गया और कर्णावती आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं से घिरी रही।
हुमायूँ के बगावती भाइयों और दुश्मनों को गुजरात के बादशाह बहादुर शाह के यहाँ पनाह मिली थी इस वजह से बहादुर शाह और हुमायूँ एक – दूसरे के जानी दुश्मन बने हुए थे। कर्मावती की मजबूरी को देखते हुए बहादुर शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। अमरकंटक में राणा के यहाँ शरणार्थी रहे हुमायूँ को भाई बनाकर चित्तौड़ के किले से रानी ने सहायतार्थ पत्र भेजा। हुमायूँ की मानवता हिलोरें मारने लगी और वो सैन्य बल के साथ आगरा से चित्तौड़ के लिए अविलम्ब कूच कर दिया। उसे लगा कि इस सैन्य अभियान द्वारा वह राखी की लाज रख सकेगा और अपने दुश्मनों का नाश भी। बहादुर शाह को हुमायूँ की मंशा पता चल गई और उसने हुमायूँ के नाम एक पत्र भेजा। जब पत्र हुमायूँ को मिला तो वह ग्वालियर तक पहुँच गया था।
 
पत्र में लिखा था कि ‘जब बात काफ़िर की हो तो सभी मुसलमानों को एक हो जाना ही अल्लाह का आदेश है’ और इसके साथ ही हुमायूँ के भीतर जागी राखी रूपी मानवता मज़हबी आग में जलकर राख हो गई और वह इरादा बदलकर वहीं डेरा जमाये रहा।
इधर, सन् 1935 में बहादुर शाह से लड़ते हुए सारे पुरुष खप गए। महिलाओं ने पल – पल बादशाह – भाई की राह निहारा किन्तु सब सिफर रहा। अपने नन्हें तकरीबन 3000 बच्चों को महिलाओं ने खाईं या कूएँ में फेंककर मार डाला ताकि ये मुगलों के हाथ न लगें। अन्तत: 13000 क्षत्राणियों ने जौहर का व्रत किया इस आरजू के साथ कि उनका सशक्त व समर्थ भाई पहुँचता ही होगा…..। सब मिलाकर लगभग 32000 लोगों ने अपने प्राण न्योछावर किए। तथाकथित भाई हुमायूँ वहाँ पहुँचा और लूट पाटकर लौटती सेना के पीछे कुछ वक्त भी जाया किया लेकिन तब तक पूरा एक साल बीत चुका था…..जौहर के ज्वाला की राख भी ठंडी होकर उड़ चुकी थी। बादशाह कर वसूली में लगा रहा।
आज के समय में हुमायूँ जैसे या उससे भी पतित और स्वार्थी भाइयों की बड़ी संख्या समाज में भोली – भाली बहनों की तलाश में है। किन्तु इसी समाज में उनसे बड़ी संख्या में राखी की लाज रखने वाले करोड़ों रक्षक भी मौजूद हैं । धर्म, मजहब, जाति, क्षेत्र, और आर्थिक स्तर इसमें कहीं भी बाधक नहीं होना चाहिए। इसलिए आवश्यक है कि राखी बाँधने वाले और बँधवाने वाले उभय पक्ष, राखी की महत्ता को न सिर्फ कायम रखें बल्कि निभाएँ, बढ़ाएँ और सर्वव्यापी बनाएँ। यह त्यौहार तभी सार्थक होगा जब कोई भी कलाई राखी के बिना सूनी न होगी और कोई भी व्यक्ति असुरक्षित न रहेगा।
अवधेश कुमार ‘अवध’





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