पत्रकारों से संवाद की अटल-कला

रुचिर गर्ग
वो क्या चीज़ है जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को अटल जी बनाती है ?
इसका जवाब उनके निधन पर आईं श्रद्धांजलियों और संस्मरणों में मिल जाता है ।
ऐसा लगता है कि हर व्यक्ति के पास बताने को उनसे जुड़ी कोई याद है या उनके बारे में कहने को कुछ है ।
अटलबिहारी बाजपेयी ना ही भाजपा की राजनीतिक लाइन से कभी अलग हुए और ना ही कभी उन्होंने अपनी विचारधारा का दामन ही छोड़ा । लेकिन फिर भी कट्टर राजनीतिक सहयात्रियों के बीच श्री बाजपेयी के बारे में यह कहना मुश्किल होता कि वे कट्टर हैं या कट्टरता से मुक्त स्वयंसेवक हैं ।
बात राजनीति से परे हो तो समकालीन राजनेताओं में उनकी स्वीकार्यता गज़ब की थी और इसकी वजह शायद इस राजनेता के भीतर मौजूद एक ऐसा इंसान था जिसमें उदारता थी,जिसमें दोस्त बनाने के गुण थे,जिसमें साफगोई भी थी ,जो खुद को कविताओं से भी अभिव्यक्त करना चाहते थे और एक बेहतरीन वक्ता तो वो थे ही !
वो छत्तीसगढ़ जब भी आते बतौर रिपोर्टर मुझे उन्हें कवर करने का अवसर मिलता रहा, बल्कि रायपुर के माना हवाई अड्डे की बरसों पुरानी एक तस्वीर हमारे तब के चीफ रिपोर्टर वरिष्ठ पत्रकार श्री आसिफ इकबाल # Asif Iqbal ने कई बार फेसबुक पर शेयर भी की है।
उन्हीं दिनों की कई यादें आज भी ज़ेहन में हैं ।
1998 के लोकसभा चुनाव अभियान का वक़्त था। भाजपा ने नारा दिया था -‘राजतिलक की करो तैयारी,आ रहे हैं अटल बिहारी’ । भाजपा ने इस चुनाव में अटल बिहारी बाजपेयी को ही अपना चेहरा बनाया था । इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के शब्दों में पोस्टर बॉय !
अटल जी सर्किट हाउस में प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे ।उनकी हाज़िर जवाबी के तो लोग कायल ही होते । उनकी प्रेस कांफ्रेंस भी कभी बोझिल नहीं होती। बातचीत खत्म होने को थी कि एक सवाल मैंने भी पूछा । सवाल से ज़्यादा यह मेरी उत्सुकता थी । उत्सुकता आपातकाल के खिलाफ लड़ाई की नेतृत्व पंक्ति में से एक अटल बिहारी बाजपेयी के लिए भाजपा के इस नारे को लेकर थी जिसमें पार्टी नायकत्व को मुद्दा बना कर चुनाव मैदान में थी जबकि इस पार्टी का पुराना अवतार 1977 में आपातकाल को मुद्दा बना कर इस देश में विरोध की एक लहर पैदा कर चुका था । मैंने पूछा कि आपातकाल के तुरंत बाद हुए चुनाव अभियान का केंद्रीय नारा था – ‘ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ‘ लेकिन आज नारा है – ‘ राजतिलक की करो तैयारी ,आ रहे हैं अटल बिहारी ‘ तो इन दोनों नारों की फिलॉसॉफी में क्या फर्क है ?
इससे ठीक पहले के चुनाव में भाजपा का नारा था – अबकी बारी ,अटल बिहारी । लेकिन 1998 में तो ‘जनता’ की जगह बाकायदा ‘राजतिलक’ था ।
मैं तो राजनीति के इस दिग्गज से इस फर्क को समझना चाहता था लेकिन सबसे सामने बैठे वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर जी और स्व. गोविंद लाल वोरा जी ने ज़ोर से ठहाके लगाए और मुझे आज भी याद है कि अटल जी के चेहरे पर एक शर्मीली मुस्कान थी… वो बोले – नो कमेंट्स !
आज इतने बरस बाद अगर मैं इसे समझना चाहूं तो मुझे लगता है कि बाजपेयी जी ‘जनता’ और ‘राजतिलक’ के फर्क को ,इस फर्क के संदेश को ठीक तरह से दर्ज कर रहे थे और वे वाकई इस फर्क पर टिप्पणी नहीं करना चाहते थे ।
किसी और अवसर पर हुआ एक सवाल और याद आता है । ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन में रहने का आपको कोई लाभ हुआ था क्या ? जवाब था – हां ! पढ़ने की आदत लगी।
उनकी राजनीति से किसी की सहमति या असहमति हो सकती है लेकिन वे असहमति के विरूद्ध नहीं होते थे ।
प्रधानमंत्री रहते हुए उनके बहुत से निर्णय या अनिर्णय अलग व्यख्या का विषय हैं । लेकिन पत्रकारों से बातचीत में वो बिगड़ पड़े हों, याद नहीं आता ।
आज एक रिपोर्टर को महसूस होता है कि प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों से संवाद की अटल-कला अब विलुप्त हो रही है !
भारतीय राजनीति में ऐसी सहजता के उदाहरण कम नहीं हैं। त्रिपुरा के तत्कालीन मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती से किसी का संवाद हुआ हो तो उसे ऐसी ही सहजता याद आएगी।
शायद इन्हीं वजहों से अटल बिहारी बाजपेयी अटल जी रहेंगे।
( यह आलेख वरिष्ठ पत्रकार रुचिर गर्ग के फेसबुक टाइम लाइन से साभार ) 





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