फर्श से अर्श तक पहुंचने वाले शेर शाह और हेमू में समानता

सुबोध गुप्ता 
दोनों के ही पूर्वज बाहर से आकर नारनौल बसे थे. यद्यपि दोनों का ही जन्म नारनौल में ही हुआ था तथापि दोनों की ही जन्म स्थली पर विवाद है. दोनों के पूर्वज व्यापारी थे. शेर शाह के दादा और पिता जहाँ घोड़े का व्यापार करते थे वहीँ हेमू के नमक या दैनिक प्रयोग में आने वाली पदार्थों का. अपने बचपन में जहाँ शेर शाह उपेक्षित था वही हेमू तंगहाल. दोनों ही वैभव की गोद में उत्पन्न नहीं हुए थे. दोनों की प्रारंम्भिक अवस्था एक समान थी.
शेर शाह और उसका परिवार अपनी जिंदगी की शुरुवात में हेमू के परिवार पर जहाँ आश्रित था तो वहीँ जीवन के अंतिम दिनों में हेमू का परिवार शेर शाह पर. कृतग्य शेर शाह ने सड़क पर संघर्ष करने वाले एक फेरी वाले हेमू और उसके पिता को यदि अपने साम्राज्य में सर्वोच्च स्थानों पर आसीन किया था तो वक्त आने पर कृतग्य हेमू ने नीचे गिरते हुए उसके स्वप्न (सूर साम्राज्य) को विखरने से रोक दिया था .
जिस तरह शेर शाह एक जन सामान्य (आम आदमी) होकर एक महान शासक बना था, उसी की गुणों को अपनाते हुए हेमू भी एक आम आदमी से बिक्रमादित्य बना था. दोनों ने ही अपने जीवन में कभी हार नहीं स्वीकारी थी. न ही कोई युद्ध हारा. दोनों को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाने वाले बिहारी थे.
शेर शाह ने जहाँ बाबर की नौकरी की तो हेमू ने शेर शाह की चाकरी. अपने स्वामी रहे बाबर के ही वंशजों का सर्वनाश कर स्वयं शेर शाह यदि गद्दी पर बैठा था तो वहीँ हेमू भी अपने स्वामी रहे शेर शाह के उतराधिकारियों का. शेर शाह ने जहाँ हुमायूँ को हिंदुस्तान से खदेड़ा था वहीँ हेमू ने उसके पुत्र अकबर को .
शेर शाह ने देश की जिन भूभागों को मुग़ल मुक्त कर दिया था, पुनः मुगलों के अधीन हो जाने के पश्चात, हेमू ने उनकी चंगुल से वापस छीन लिया था. शेर शाह ने जहाँ मुग़ल साम्राज्य का विध्वंस कर अपना सूर साम्राज्य स्थापित किया था वहीँ मुग़ल और सूर साम्राज्य दोनों को ही नेस्तनाबूद कर हेमू ने अपना हिन्दू स्वराज. जैसे- जैसे वे दोनों जीतते या हारते गए उनके किले भी समयानुकूल तब्दील होते रहे यथा ग्वालिअर,आगरा,चुनार तो कभी दिल्ली. किन्तु सासाराम (रोहतास) में हीदोनों की समान जड़ें होने की वजह से उनका पारिवारिक,सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र व राजधानी सदैव ही बना रहा. फलतः दोनों को ही सासाराम प्रिय था.
पर्शियन इतिहासकार दोनों के ही दुश्मन थे. अबुल फज़ल द्वारा दोनों के बारे में ही एक ही भाषा में अपशब्द कहे गए हैं. अबुल फज़ल ने दोनों को ही मिथ्यावादी और चाटुकार होना बताया जबकि दोनों ही मृदुभाषी और उच्च कोटि के रणनीतिकार थे. फज़ल ने दोनों को ही अवसरवादी होना बताया जबकि दोनों ही जीवन में आये किसी भी अवसर को अपने हाथ से नहीं निकलने देते थे . दोनों की ही मन्शा एक सामान गुप्त रहती थी. दोनों का ही चरित्र और संघर्ष एक समान था . दोनों ने ही अपने अथक परिश्रम और अदम्य साहस के बदौलत सड़क से सिंहासन पर आरूढ़ हुए थे. दोनों ही समान रूप से महान समाज सुधारक थे. इतिहास के इन दोनों महान नायक का प्रारंभ जिस देश में समाज के अत्यंत निचले पायदान से हुआ हो उसी देश के सर्वोच्च सत्ता धारी शासक के रूप में दोनों का अंत हुआ था. फरीद का जब अंत हुआ उस वक्त हिंदुस्तान की सर्वोच्च सिंहासन पर ‘शाह आलम हज़रत अली शेर शाह ‘ के रूप में आरूढ़ था तो हेमू विक्रमादित्य के रूप में. दोनों ने ही उस देश की शासन का सर्वोच्च मुकाम हासिल किया था जिस देश में कभी 2 वक्त की रोटी के लिए भी वे संघर्षरत थे . दो कौड़ी के खातिर दोनों अपनी बचपन में समान मोहताज थे किन्तु जीवन के अंतिम दिनों में दोनों ने अपने नाम का सिक्का देश में चलवाया था.
शेर शाह योद्धा होते हुए भी राजस्व के मामले में बनिया था तो हेमू जन्म से ही बनिया तो युद्ध के मामले में योद्धाओ का भी योद्धा था. शेर शाह की सफलता के पीछे यदि हेमू का परिवार था तो हेमू के पीछे शेर शाह का. शेर शाह का परिवार ने जहॉ हिन्दुओं पर भरोसा किया था तो वहीँ हेमू ने अफगानों पर.
शेर शाह को यदि प्रथम मुस्लिम सेक्युलर शासक होने की संज्ञा दी जा सकती है तो हेमू एक मात्र हिन्दू सेक्युलर शासक होने का गौरव रखता है . शेर शाह अगर रुढ़िवादी मुसलमान था तो हेमू अपरिवर्तनवादी हिन्दू. किन्तु दोनों ही धर्मांध नहीं थे. कई लोग हेमू को धर्मान्ध हिन्दू बता कर उसका चरित्र हनन करते हैं जबकि इतिहास से हम अवगत होते हैं कि आगरा को अधीन करने के पश्चात शेख मुबारक ( अबुल फज़ल का पिता) के आग्रह पर कई उलेमाओं एवं संभ्रांत मुस्लिमों को उसने रिहा कर दिया था. धर्म के नाम पर दोनों में से किसी ने भी युद्ध नहीं किया . हाँ, अपनी साम्राज्य का विस्तार करने के लिए शेर शाह ने जहाँ पूरण मल, कीरत सिंह आदि हिन्दू राजाओं से युद्ध किया था वहीँ हेमू का सभी युद्ध मुगलों एवं अफगानों के ही विरुद्ध था. शेर शाह का सभी युद्ध, एकाध को छोड़ कर, अपने ही धर्म वालों के विरुद्ध था जबकि हेमू ने कोई भी युद्ध हिन्दुओं के खिलाफ नहीं लड़ा .
शेर शाह के पास जहाँ अन्य मुस्लिम शासको कि भाँति कोई हरम नहीं था या बिभिन्न पत्निया नहीं थी वहीं हेमू की भी एक ही पत्नी थी. दोनों ही एक समान पारखी, महत्वाकांछी, मिलनसार और अपने गर्दिश के दिनों को कभी न भूलने वाले इंसान थे. दोनों ने ही अपनी –अपनी कौम को गौरवान्वित किया था. हेमू के पिता अगर शेर शाह के गुरु थे तो शेर शाह हेमू का.
लगभग 15 वर्षों तक सत्ता के शिखर पर रहने के बावजूद शेर शाह अपना अंतिम श्वास यदि उस पछतावे के साथ लिया था कि अल्लाह ने देश की सेवा और अधिक करने का अवसर उसे नहीं दिया जबकि हेमू उस अफ़सोस के मध्य कि काश ईश्वर मात्र 15 मिनटों की मोहलत उसे और दे दिया होता
दोनों ही अपने अन्तिम समय में बुरी तरह घायल होने के बावजूद भी युद्ध का नेतृत्व पूरी हौसले के साथ किया था. अंतिम युद्ध में दोनों के साथ धोखा हुआ था. बदायूँनी बताता है कि कालिंजर में शेर शाह के साथ साजिस रची गयी थी तो पानीपत में हेमू के साथ विश्वासघात किया गया था. दोनों की मौत गृह जनपद से दूर लड़ाई के मैदान में हुई थी. शेर शाह की जहाँ चीथड़े उड़ गए थे वहीँ हेमू दो टुकड़ों में. घायल होने के पश्चात दोनों ही सामान रूप से लगभग 4-5 घंटों तक जिन्दा थे.
फर्क सिर्फ इतना था कि शेर शाह अपने दुश्मनों से परिस्थिति के अनुसार समझौता तक कर लेता था तो हेमू उनके घुटने टेकवा देता था. शेर शाह अफगानी साम्राज्यविस्तार हेतु युद्ध कर रहा था तो हेमू अफगानी और मुगलों दोनों के साम्राज्य का उन्मूलन हेतु. चिथड़ों में बंटा शेर शाह की निगाहें यदि सासाराम की तरफ थी तो टुकड़े हुए हेमू की काबुल की तरफ. शेर शाह के अपने समुदाय ( अफगान) वालों ने अपनी शहादत देकर अपनी कमांडर (शेर शाह) की अंतिम इच्छा को पूरा कर दिया था किन्तु हेमू के अपने समुदाय वाले भाग गए थे . फलतः शेर शाह ने चैन से अपनी अन्तिम श्वास लिया था तो हेमू ने बेचैनी में. शेर शाह के उपरांत उसका साम्राज्य उसके वंशजों ने जारी रखा किन्तु हेमू का स्वराज नहीं.
आखिर कौन था-हेमू?
साभार : सुबोध गुप्ता
रौनियार सेवा संसथान ( दिल्ली)





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