कहां जाएगी पत्रकारिता..जब उसकी पढ़ाई का ऐसा हाल होगा..

उमेश चतुर्वेदी

हाल के दिनों में मेरा साबका पत्रकारिता के कुछ विद्यार्थियों से हुआ…सभी विद्यार्थी दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कुछ संस्थानों में पढ़ रहे हैं..कोई पहले साल का छात्र है तो कोई तीसरे साल का..
इन सभी छात्रों में एक समानता नजर आई…वे आज के टेलीविजन के एंकरों को खूब जानते हैं..लेकिन समाचार या विचार को नहीं..सोशल मीडिया में इन एंकरों की जो छवि है..जिस वैचारिक धारा के वे एंकर हैं..उनकी भी सोच कमोबेश वैसी ही है..
दो किश्तों में इन छात्रों से मुलाकात हुई..इनमें से दो या तीन ही ऐसे मिले, जो अखबार पढ़ते हैं..उन्हें अखबारों की जानकारी नहीं है..ना हिंदी, ना अंग्रेजी..भारत और पत्रकारिता के इतिहास में जिन अखबारों ने बड़ी भूमिका निभाई..उनके संदर्भ में इन छात्रों की जानकारी सिफर है..अखबार पढ़ना तो दूर की बात है..इसलिए सामान्य ज्ञान की बात को छोड़ ही दीजिए..
एक बात और..
राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य और समाजशास्त्र को इन छात्रों के संदर्भ में याद भी मत कीजिए..हां, हर सवाल का उनके पास एक जवाब जरूर है..सर गूगल है न..
एक तथ्य और..
पत्रकारिता के लिहाज से इनमें सिर्फ कमियां ही कमियां नहीं है..बल्कि वे काफी अच्छा बोलना जानते हैं…व्यवहारिकता की समझ उनकी बहुत अच्छी है…मैं उनके सामने इस मामले निरा बेवकूफ ही हूं..
किसे कैसे सेट करना है, किससे क्या बात करनी है..इन्हें बखूबी पता है..
कौन Buttering से खुश हो सकता है, किसको केवल Polite अंदाज में बात करके ही साधा जा सकता है..उन्हें पता है..कहां चुप रहना है..और कहां बोलना है…यह भी वे खूब समझते हैं..
किताबों के नाम पर उन्हें अपनी मातृभाषा और हिंदी की किताबों की जानकारी नहीं है.. हां,नए दौर से अंग्रेजी लेखक जैसे चेतन भगत और उनकी किताबों को वे जानते हैं..कुछ ने पढ़ा भी है..
एक तथ्य और…सब ऐसे संस्थानों में पढ़ रहे हैं..जिनकी फीस लाखों में है..इनमें से ज्यादातर अच्छे और आर्थिक रूप से ठीकठाक परिवारों के हैं..हां, शौक, हावी या पैशन के चलते पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं कर रहे हैं, बल्कि ज्यादातर को किसी ठीकठाक कॉलेज या कोर्स में दाखिला नहीं मिला तो एक डिग्री हो जाए, इस भाव से पत्रकारिता में आ गए हैं..
इन छात्रों से मिलकर कुछ सवाल उठते हैं..कुछ विचार भी..
एंकरों और उनकी विचारधारा से इन छात्रों का प्रभावित होना, एंकरों की सफलता मानी जा सकती है..लेकिन क्या पत्रकारिता को ऐसी सोच और समझ वाले छात्रों से उम्मीद पालनी चाहिए..
हम टेलीविजन के वर्चस्ववादी पत्रकारिता के दौर में हैं..जहां पत्रकारिता कम, बाकी काम ज्यादा हैं..जहां नौकरियों के लिए पारंपरिक योग्यता दूसरे पायदान पर आती है..बाकी चीजों को वहां ज्यादा तवज्जो दी जाती है..
दिल्ली-एनसीआर के व्यवहारिक ये बच्चे उनमें नौकरियां भी पा लेंगे..
तब वे अपनी पृष्ठभूमि के ही हिसाब से चलेंगे..करेंगे…फिर समाज का कथित प्रबुद्ध वर्ग उनके कर्मों को देख रूदन करेगा..क्रोधित होगा..मजाक उड़ाएगा,मीम्स बनाएगा..
सोचिए…कहां जाएगी पत्रकारिता..जब उसकी पढ़ाई का ऐसा हाल होगा..






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