जनमानस के संत कवि संत शिरोमणि रैदास

पवन कुमार, शोध छात्र, गोरखपुर विश्विद्यालय गोरखपुर

भारतीय मध्यकालीन परिवेश में संस्कृति, धर्म और भाषा की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ मोटे तौर पर द्विस्तरीय रही हैं |भारतीय मध्यकालीन परिवेश सत्ता संघर्ष के साथ-साथ संस्कृति, धर्म और भाषा के आपसी द्वन्द का भी समय रहा। इसी की अभिव्यक्ति के रूप में निर्गुण और सगुण काव्यधारा दिखती है| दोनों ही काव्यधाराओं के कवियों की सामाजिक दृष्टि में अन्तर दिखाई देता है, इसके बावजूद वे सामाजिक और राजनीतिक सत्ता और संरचना से टकराती हुई साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ करते हैं । भक्तिकाल के निर्गुण संत परम्परा एक तरफ जहाँ अधिक जनतांत्रिक और मानवीय दिखाई देती है वहीं दूसरी तरफ सगुण संत परम्परा की काव्यभावना अपेक्षाकृत यथास्थितिवादी दिखती है| निर्गुण संतकाव्य की भावना में सामाजिक परिवर्तन और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रबल आग्रह दिखायी देता है| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि निर्गुण काव्य परम्परा के अधिकांस कवि निम्न वर्ग से आते हैं । उनके आध्यात्मिक चिन्तन में सामाजिक चिंतन को केन्द्रियता प्राप्त है। ऐसा कहा जा सकता है कि उनके आध्यात्मिक चिन्तन की दिशा भौतिक चिन्तन की ओर अग्रसर है| आध्यात्मिक चिन्तन पर भौतिक चिन्तन का दबाव उनकी अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि और सामाजिक संरचना के भीतर उनकी विषमता से उत्पन्न अनुभव के कारण है। चिन्तन की यह प्रक्रिया कमोवेश सम्पूर्ण संत काव्य में दिखायी देती है। कबीर की कविताओं में भी सामाजिक चिन्तन की सघनता है और तर्क के अपने अनुठे प्रयोग के कारण वे अपने समकालीन संत कवियों में अपेक्षाकृत आधुनिक दिखाई देते हैं ।
सामाजिक चिन्तन की सघनता के कारण ही कबीर तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं से टकराते हुए वैकल्पिक दुनिया का स्वपन देखने लगते हैं । जिसकी अभिव्यक्ति उनके निम्नलिखित पद में देखी जा सकती है।
“जह्वा से आयो अमर वह देसवा
पवन, पानी न धरती असकवा
चाद न सूर न रैन दिवसवा
ब्राह्मण क्षत्री न शुद् वैसवा “
मध्यकाल के सन्त काव्य परम्परा में सामाजिक चिन्तन का यह सघन रूप अपनी परम्परा की निरन्तरता में दिखाई देता है क्योंकि इस चिन्तन की छवियाँ नाथ और सिद्ध साहित्य में दिखाई देती हैं । जिस तरह कबीर ने अमर देसवा जैसी परिकल्पना प्रस्तुत की वैसी ही परिकल्पना सन्त काव्य धारा के पहचान बेगमपुरा के रूप में की जाती है –
अब हमसबु वतन घर पाया
ऊँचा खेरे सदा मन भाया
बेगमपुरा सहर को नाँव,
दुःख अन्दोह नहिं तेहि ठावँ
तसबीस खिराज न माल, खौफ न खता न तरस जुवाल
आवाराम रहम औजूद, जहा गनी आप बसै माजूद
काइम-दाइम सदा पतिसाही, दोम न सोम एक सा आही
कह रैदास खलास चमारा जो हम सहरी सो मीत हमारा

संत रैदास एक सामाजिक और राजनीतिक चिन्तक की तरह दिखाई देते हैं| इसीलिए उनकी काव्य भावना में एक आधुनिक नागरिक की परिकल्पना व्यक्त होती है।
वे एक तरफ मानव समानता की बात करते हैं । दूसरी तरफ इस परिणत समानता को कार्य रूप में करने की संस्था के रूप में राज्य-व्यवस्था की परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं | इसलिए गम रहित राज्य और समाज के घोषणा-पत्र के रूप में इनकी कविताएँ समाज को प्रेरित करती हैं|
यह अनायास नहीं है कि आधुनिक भारत के प्रमुख परिकल्पनाकार बाबा साहब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर भी उनके सामाजिक चिन्तन से प्रेरणा ग्रहण करते हैं ।
संत रैदास के काव्य में बेगमपुरा की अवधारणा हर जगह किसी न किसी रूप में समाहित दिखती है। वे अन्न वितरण-प्रणाली से लेकर राजा की नैतिकता तक और मानव की स्वाधीनता से लेकर उसकी सामाजिक मुक्ति तक चिन्तन की भावना से ओत-प्रोत दिखाई देते हैं | बेगमपुरा के रूप में वैकल्पिक राज्य की अवधारणा अभिव्यक्त होने के कई सारे कारण है
जिसका सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों की जटिलता और उसमें व्याप्त विषमता और अलोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना से है
मध्यकलीन सत्तों में विशेषतः कबीर, रैदास, पीपा और धन्ना ने निर्गुण मार्ग का रास्ता अपनाया। निर्गुण काब्य परम्परा में अध्यात्म और धर्म के साथ-साथ सामाजिक आन्दोलन की भी प्रवृत्ति था। भारतीय इतिहास में मध्यकाल वैचारिक रूप से समद्ध रहा अध्यात्म,दर्शन धर्म का उन्नयन और विकास नये तरह से हुआ। क्योंकि मुस्लिम शासन काल में इस्लाम भक्त (सूफी) का प्रभाव कवियों पर पड़ा। इस्लाम से पहले भारतीय व्यवस्था, संरचना में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जैसी श्रेणियाँ थी । व एक वर्ग सबसे अलग अछूत कहलाया। जिसे विधिक भाषा में अनुसूचित जाति तथा आधुनिक रूप से दलित (आजीवक) के रूप में जाना जाता है । संत रैदास इसी अछूत सामाजिक पृष्ठभूमि से आते थे।वे अपनी काब्य रूपी चेतना के कारण दलित साहित्य के प्रणेता कवि के रूप में हैं |
भारतीय समाज में थोपी गयी सामाजिक व्यवस्था ऊँच-नीच की खाई को पाटने का काम संत कवियों ने किया| संत रैदास मानव स्वाधीनता के प्रबल आग्रही थे | स्वराज को ही सुख का प्रमुख आधार मानते हैं | उन्होंने अपने पदों में भाव को प्रमुखता से वयक्त किया है –
रैदास मानुष बसन कह मुख कर है दुहठाव।
एक सुख है स्वराज मह दूसरा मरघट गांव।।
रैदास की कविताओं में वैकल्पिक राज्य व्यवस्था की कल्पना इसीलिए करते हैं जाहिर है जिस वैक्लापिक राज्य की परिकल्पना है उसका स्वरूप कल्याणकारी हैं –
ऐसा चाहु राज मै जहा मिलै सबन को अन्न।
छोटे-बड़े सब सम बसै रैदास रहे प्रसन्न।।
इसी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संत रैदास ने कार्ल मार्क्स से पहले ही समाजवाद की एक अवधारणा प्रस्तुत कर दी थी। ‘ऐसा चाहु राज मै जहा मिलै सबन को अन्न छोटे-बड़ो सब-सम बसै रैदास रहे प्रसन्न’ यह वह सिद्धान्त है जिसके आधार पर मार्क्स ने आर्थिक तह में जाकर समाजवाद का नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया है इसीलिए रैदास आज भी जनमानस में प्रासंगिक है।

शोध छात्र पवन कुमार
शोध का विषय “संत रैदास के काव्य में वेगमपुरा की अवधारणा”
गोरखपुर विश्विद्यालय गोरखपुर






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