आज देश को कबीर के विचारों की ज्यादा जरूरत

आज देश को कबीर के विचारों की ज्यादा जरूरत

Shambhu Bhadra

कार्ल मार्क्स ने कहा था धर्म हफीम है। आज भारत उसी हफीम के नशे में है। चाहे हिंदू हो या मुसलमान, धर्मांधता के चरम पर हैं। दोनों में एक धर्मांध कट्टर वर्ग तैयार हो रहा है या तैयार किया जा रहा है। सर्वधर्म समभाव वाले देश भारत के लिए यह खतरनाक स्थिति है। वसुधैव कुटुंबकम की दृष्टि चाले भारत संवैधानिक रूप से बेशक धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन मजहब को सियासत का औजार बनाने के बाद से देश में सामाजिक, सांप्रदायिक विभाजन गहराता जा रहा है, पता नहीं यह कहां रुकेगा। ऐसे में आज देश को महान संत, समाज सुधारक महामानव कबीर के विचारों की अधिक जरूरत है।

मध्ययुग में कबीर की वाणी ने जो अलख जगाया वह आज भी उतना ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। कबीर सारग्राही महात्मा थे। वे सच्चे भक्त होने के साथ-साथ एक साहसी व निर्भीक स्पष्ट वक्ता थे। सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों-आडंबरों, दुराचार, पाखंडादि का उन्होंने तीव्र विरोध किया। कबीर के रचनाकाल का युग मुगलों के आक्रमणों, धर्मांतरण, देशी राजाओं की विलासिता, धार्मिक पाखण्ड से उपजे असुरता, भय, कुंठा, सांप्रदायिकता, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं कुरीतियों का था। हताश-निराश जनता मंत्र, योग, जात-पांत, छुआछूत, सामंतशाही, दमन-शोषण से त्रस्त थी। समाज नैतिक पतन के गहरे गर्त में गिर रहा था। ऐसे वक्त में कबीर ने अपनी रचनाओं से समाज को दिशा दिखाई।

कबीर युग दृष्टा कवि थे। उन्होंने अपने वर्तमान को ही नहीं भोगा बल्कि भविष्य की चिरंतर समस्याओं को भी पहचाना। कबीर के समय में मध्य युगीन समाज जात-पांत, छुआछूत, धार्मिक पाखंड, मिथ्याडंबरों, रुढ़ियों, अंधविश्वासों, हिन्दू-मुस्लिम वैमनष्य, शोषण-उत्पीड़न आदि से त्रस्त तथा पथभ्रष्ट था। समाज के इस पतन में धर्म के ठेकेदारों की अहम भूमिका थी। आज 21वीं सदी में भी हमारे आधुनिक वैज्ञानिक समाज की कुछ वैसी ही स्थिति बनती जा रही है। ऐसे में कबीर के विचार देश को दिशा दिखा सकते हैं। कबीरदास का वैचारिक आंदोलन आज भी वर्ग-विहीन समाज के निर्माण, मानवता की बहाली, प्रेम की स्थापना, हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द, आडंबरहीन भक्ति तथा नैतिकता के निर्माण के लिए नितांत प्रासंगिक है।

कबीर ने कहा कि राम और रहीम एक ही हैं। उन्होंने राम-रहीम की एकता का प्रतिपादन कर सारे देश को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया। उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों के वैमनस्य और भेदभाव की चौड़ी खाई को पाटने का वैचारिक प्रयास किया। धर्म का वह स्वरूप लुप्त सा हो गया है जो हिन्दू और मुसलमान संप्रदाय में प्रेम, सौहार्द, भाईचारा एवं मानवता को बढ़ावा दें। कबीर ने निर्गुण भक्ति के द्वारा धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक मुक्ति के प्रश्नों को उठाया। उसके मूल में मानव मात्र की समता, स्वतन्त्रता एवं भातृत्व की भावना प्रमुख थी। स्वतंत्र भारत में वैधानिक रूप से सभी को समता, स्वतन्त्रता एवं समाधिकार प्राप्त हैं। बावजूद इसके समाज का एक विशाल वर्ग जातिगत भेदभाव, धर्मांधता, छुआछूत, अशिक्षा, गरीबी से ऊबरा नहीं है। उनके लिए समता और स्वतंत्रता के मायने क्या होंगें? कबीर ने मध्ययुग में एक ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक आंदोलन का सूत्रपात किया जो वर्तमान में वर्ग-विहीन, जाति विहीन समता मूलक समाज की स्स्थापना के लिए नितांत प्रासंगिक है। उन्होनें जिन विसंगतियों, वर्जनाओं, कुरीतियों एवं कुप्रथाओं के खिलाफ आजीवन संघर्ष किया वे आज भी यथावत हैं।

कबीर के अनुसार आडंबर ही समाज में लड़ाई-झगड़े, संकीर्णता और असहिष्णुता के कारण बनते हैं। आडंबरों से समाज में कभी स्थायी सुख, शांति एवं भाईचारे की बहाली नहीं हो सकती। समाज को एक सूत्र में बांधने के लिए उन्होंने धर्म एवं भक्ति के बाह्याचारों का कड़ा विरोध कर सात्विक भक्ति पर जोर दिया। आज भी स्थिति बदली नहीं है। धर्म और भक्ति का रूप और विकृत होता जा रहा है। इनमें व्याप्त दिखावा, बाह्याचारों की प्रदर्शनी, बड़प्पन की मानसिकता ने समाज में संकीर्णता, असहिष्णुता, एवं धार्मिक अराजकता को बढ़ावा दिया है।

कबीर ने धार्मिक ठगों से भी समाज को सावधान किया है। कबीर समाज में प्रचलित अंधविश्वासों को उखाड़ फेंकना चाहते थे। कबीर को मृत्यु से डर न था। वे इस रहस्य को समझ चुके थे कि मृत्यु अनिवार्य है। इस ज्ञान ने उन्हें निर्भय बना दिया था। यही कारण था कि उन्होंने सदैव अधर्म, अन्याय और असंगतियों का विरोध किया। मुल्ला, मौलवियों, पंडितों और जोगियों से भी उलझ पड़ते थे। मृत्यु के भय से कभी सत्य का दामन नहीं छोड़ा।

कबीर आर्थिक स्वार्थ को त्यागकर संयमित होने की शिक्षा देते हैं। मनुष्य अपनी जरूरत के अनुसार ही धन संचय करें। तभी समाज में समता, नैतिकता एवं मानवता की बहाली हो सकेगी। आर्थिक स्वार्थ से नैतिकता का ह्रास होता है। अगर देखें तो, कबीर कालीन विकृतियों, रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों से आज भी हमारा समाज मुक्त नहीं हो पाया है। आज भी धर्मांधता, सांप्रदायिकता, जात-पांत, छुआछूत, अशिक्षा, अंधविश्वास, जातिवाद, कर्मकांड के पाखंड जैसी विषमताएँ जड़ जमाये बैठी हैं। आर्थिक स्वार्थ, दंभ, नैतिक पतन ने व्यक्ति को संवेदनहीन और स्वार्थी बना दिया है। शोषण, उत्पीड़न, झूठ, फरेब आज और भयानक रूप में देखा जा सकता है। इसलिए कबीर के समता, स्वतंत्रता और भाइचारे गढ़ने के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। प्रेम, मानवता, सद्भाव, सौहार्द और नैतिकता की बहाली के लिए कबीर के विचारों का पुनः अनुसरण समय की मांग है।

आज कबीर के दोहे –
“पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होइ॥”11
की सख्त जरूरत है।






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