‘उचितवक्ता’ के अनन्य संपादक दुर्गाप्रसाद मिश्र

‘उचितवक्ता’ के अनन्य संपादक दुर्गाप्रसाद मिश्र
कृपाशंकर चौबे
डॉ. श्रीरमण मिश्र के सौजन्य से मुझे उत्तर उन्नीसवीं शताब्दी के अत्यन्त तेजस्वी समाचार पत्र ‘उचितवक्ता’ की फाइल देखने और समाचार पत्र पढ़ने का सुयोग मिला। पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र के संपादन में यह अखबार सात अगस्त 1880 को निकला था। इसका आदर्श वाक्य था, ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ‘ यानी इस संसार में ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन है, जो आपके हित के लिए भी बोले और उसकी वाणी में कठोरता भी न हो, अर्थात् हितकारी बात मधुरता के साथ प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति दुर्लभ होते हैं। इसी भावना से उचित परामर्श देने में पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र का कोई जवाब न था। ‘उचितवक्ता’ ने 12 मई 1883 को देशी पत्रकारों को सलाह दी थी, “देशी सम्पादको! सावधान!! कहीं जेल का नाम सुनकर कर्तव्य विमूढ़ मत हो जाना, यदि धर्म की रक्षा करते हुए यदि गवर्नमेंट को सत्परामर्श देते हुए जेल जान पड़े तो क्या चिन्ता है। इससे मान हानि नहीं होती है। हाकिमों के जिन अन्याय आचरणों से गवर्नमेण्ट पर सर्वसाधारण की अश्रद्धा हो सकती है उनका यथार्थ प्रतिवाद करने में जेल तो क्या यदि द्वीपांतरित भी होना पड़े तो क्या बड़ी बात है? क्या इस सामान्य विभीषिका से हमलोग अपना कर्तव्य छोड़ बैठे?” उचित-अनुचित विवेक के चलते ‘उचितवक्ता’ के सम्पादक ने ‘उचितवक्ता’ के क्रोड़-पत्र में ‘भारतमित्र’ तक को खूब खरी-खोटी सुनायी थी और ‘भारतमित्र’ सम्पादक को सम्पादकीय धर्म और नैतिकता समझाई थी। 15 जुलाई 1881 के ‘भारतमित्र’ में एक पत्र प्रकाशित हुआ था जिसमें स्वच्छ वेद निन्दा’ थी। उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ‘उचितवक्ता’ ने लिखा था, ‘भारतमित्र’ के सम्पादक को ऐसा छापने का ही क्या अधिकार है? क्या पत्र सम्पादक का यही कर्तव्य है कि जो आवे सो छापना वाह जी वाह!

कृपाशंकर चौबे

‘उचितवक्ता’ ने अपनी सम्पादकीय टिप्पणियों में जातीय प्रश्न को बड़ी निर्भीकता से उठाया या। प्रथम वर्ष के 15 वें अंक में सम्पादकीय टिप्पणी का शीर्षक है-‘भारत दिनोंदिन क्यों दरिद्र हुआ जाता है।’ 11 सितम्बर 1880 के अंक की सम्पादकीय टिप्पणी में कहा गया है कि भारत-वर्ष की दयनीय दशा का एकमात्र कारण ब्रिटिश शोषण है : “भारतवर्ष को अँग्रेज राज-पुरुषों ने शोषण कर लिया है। इसे ऐसा दुहा है कि, यह अब इसके शरीर में रक्त मांस का लेशमात्र भी नहीं रहा।
दुर्गाप्रसाद मिश्र ने अपने संपादकीय धर्म का निर्वाह लगातार घाटा उठाकर भी पूरा किया। उचितवक्ता’ के 26 मई 1891 के अंक में पं. दुर्गांप्रसाद मिश्र ने लिखा है, “जिस समय मैंने ‘भारतमित्र’ को जन्म दिया था, जिस समय ‘सारसुधानिधि’ को निकालने का उद्योग मैंने किया था, तब बहुत घाटा हुआ था। प्रथम ‘उचितवक्ता’ सुनियम और सुदृढ़ता से चलता रहा, यद्यपि ग्राहकों की नादेहन्दी आरम्भ ही से बनी रही तथापि उद्योग और अध्यवसाय के बल से चलाया गया।

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