हथुआ महावीरी अखाडा की यादें : लात जूता खाएंगे-बाईजी नचाएंगे से चली परंपरा और पाउच पीके डमघाऊंच

संजय कुमार.
बिहार कथा. हथुआ, गोपालगंज.  पुरानी स्मृतियों में जाइए. हथुआ का महावीरी अखाडा न जाने कब से इतना फेमस है. अनेक लोग दूर दूर से आते हैं. दूसरे के रिश्तेदारी निकाल कर यह मेला देखने के बहाने हथुआ आते हैं. बात नब्बे के दशक की है. शुरुआती दौर में अखाडा उठाने वाले गांव के लोगों का इस बात पर जोर रहता था कि उनमें ज्यादा से ज्यादा लाठी के साथ जय हो जय हो के जयकारे लगे. इसमें लाठी भांजने का शानदार प्रदर्शन भी. गांव के हर किशोर युवा की यह कोशिश होती थी कि वह कम से कम एक बार तो वह झुंड के बीच लाठी जरूर भांजे और उसे चारो ओर लाठी लेकर जय हो जय हो के जयकारे लगे. जो ऐसा मौका चूक जाता, उसके अंदर मलाल रहता था. गदका फरी का भांजना अब कितने लोग जानते होंगे. अखाडे के एक महीने पहले गांव में एक पूजा के माध्यम से लाठी प्रदर्शन सीखने की औपचारिक शुभारंभ होता था. एक गुरु या उस्ताद तय होते थे. शाम के समय एक महीने तक यह सीखने का माहौल मस्त होता था. तब मोबाइल जैसी कोई चीज नहीं. लाइट सपने जैसी थी. टंकी की लाइट पर यह रोमांचकारी अभ्यास. शानदार यादें होंगी यह अनेक लोगों के जेहन में. नब्बे के दशक के उतर्राद्ध में हर अखाडें तब आकेस्ट्रा की जगह बैंड पार्टी होती थी. इसी में लौंडा डांस का जबरजस्त मनोरंजन होता था. लेकिन यही वह दौर था जब न जाने कहां से एक कंसेप्ट आया कि आकेस्ट्रा में लडकियों का डांस हो. यह डांस बाईजी के नाम से मशहूर हुआ.

लात जूता खाएंगे, बाईजी नचाएंगे
एक बार की बात है हथुआ पंचायत के मनीछापन गांव के नोनियार पर गांव के लोगों ने बैठक की. उसमें अधिक से अधिक चंदा देने वालों की हिट लिस्ट की बनती थी. उस साल भी बनी. तभी गांव के एक बुर्जुग का प्रस्ताव आया. शायद वह शंकर डॉक्टर प्राइवेट कंपाउडर, दीनानाथ साह, जटाशंकर आदि लोगों का था कि अखाडे में युवा वर्ग थोडा संयम से रहे. यह प्रस्ताव इसलिए आया क्योंकि तब युवक पाउच पीकर डमघाऊंच यानी बवाल करते थे. साथ ही यह तय ​हुआ कि अखाडे में बैंक के लिए खर्च तो चंदे से दिया जाएगा लेकिन आकेस्ट्रा की बाईजी नचाने के लिए कोई खर्च चंदे के पैसे से नहीं दिया जाएगा. यह बात युवाओं का रास नहीं आई. उन्होंने कहा-लात जूता खाएंगे, बाईजी नचाएंगे. इसके लिए उन्होंने अलग से मीटिंग की. आपसे घरवालों के दिए गए चंदे के अंतिरिक्त अपना चंदा देने के लिए सूची तैयार हुई. कई युवाओं ने तो अपने घर से मिलने वाले चंंदे से दोगुने तीगुने ज्यादा चंदा बाईजी वााली आकेस्ट्रा के लिए देना सकारा. ऐसा हआ भी. कोई झंकार आकेस्ट्रा था. काफी महंगा था. वही साटा बंधाया. फिर गांव के लोगों के साथी मीटिंग हुआ. गांव के बडे बुर्जुगों ने यह समझाया कि आखांडे में आकेस्ट्रा के पीछे सब नहीं चलेंगे. शाम को जब रमना में आकेस्ट्रा खडा हो जाए तब ही युवा उसमें जाएं. लडकों ने यह शर्त मांग ली और यह सिलसिला साल दर साल चलता रहा. अब लाठी भांजने वालों की भीड कम और आकेस्ट्रा के पीछे भीड ज्यादा होती है.

झांकियों की ऐसी है यादें
तब झांकियां रमायण के पात्रों पर कें​द्रित होती थी. क्योंकि टीवी पर रामायण धारावाहिक के रूप में प्रसारित होने के काफी लोकप्रिय व प्रभावी था. मनीछापन गांव इन सबमें आगे रहता था. गांव के ब्यास जी, हमेशा से ही विभिषण का रोल करते थे. गोपेश्वर कॉलेज के एक कर्मचारी ईश्वर जी कभी ताडका तो कभी चुडैल के रूप में रहते थे. मनीछापर के देखादेखी पडोस के पिपरपाती गांव ने भी झांकी निकालने का प्रयास शुरू किया. पहला प्रयास उसका द्रौपदी चीरहरण का था. इसके बाद दूसरे गांवों से भी इक्का दुक्का झांकियां निकलने लगी. मनीछापर गांव में जो झांकी ​निकलती थी, उसे बाद में जलालपुर के आखाडे वाले बुक कर ले जाते थे और वहां वैसी झांकी ​निकलती थी. झांकियों में जो राम, लक्ष्मण और सीता बनते थे, आखाडे के बाद घर लौटने के बाद उनकी मंगल गीतों के साथ आरती उतारी जाती थी. बच्चों में हथुमानजी बनने का बहुत क्रेज था. इस काम में गया प्रसाद बारी उस्ताद थे. वे बच्चों के शरीर पर माढ सिंदुर पोत कर उस पर रूई चिपका देते थे.

काम छोड कर लद्दाक से आते रहे हैं लडके
नब्बे के दशक में हथुआ व आसपास के लडके लद्दाक में मजदूरी करने जाते थे. अक्टूबर के अंत या फिर ​नवंबर में पडने वाली दिवाली छठ तक कमाकर लौटते थे. लेकिन महावीरी अखाडा अक्सर सितंबर में ही पडता था. इसलिए अनेक लडके अपना काम छोड कर यह जानते हुए भी कि एक गांव में बेरोजगार बैठना पडेगा, वे अखाडा देखने आते थे. मजे की बात तो यह है कि जो अखाडे में बाहर से आता था, चंदा वाले उससे घेर लेते थे और दूसरे की अपेक्षा ज्यादा चंदा लेते थे.

प्रशासन हमेशा नियम का पाठ पढाता रहा.
ऐसा हर साल होता है. हम बचपन से देख रहे हैं. महावीरी अखाडा को लेकर प्रशासन हमेशा से ही इस तरह की व्यवस्था करता है. लेकिन लोग मनमानी करते हैं. जब हम छोटे थे, नब्बे के दशक में तब गांव के लोग बताते थे कि प्रशासन से जो लाइसेंस लिया जाता है अखाडे के लिए उसमें 10—12 भाले, फरसे आदि की ही अनुमति होती है. लेकिन रियालिटी में यह कही ज्यादा हमेशा से रहा है. कुछ साल पहले गोपालगंज में अखाडे के दौरान भाला घोंप कर भी मर्डर हुआ था. अश्लील डांस पर जोश में युवाओं की मारपीट आम रही है. प्रशासन डीजे और अश्लील डांस ही तो नहीं कराने को कह रहा है न.जब अखाडे के लोग शांति समिति की बैठक में जाते हैं तो मुंह में दही जमा लेते हैं. वहां अपनी बात नहीं रखते हैं. प्रशासन की बात में हां में हां मिलाते हैं. फिर वहीं जब कागज में नियम जारी होता है तो हल्ला करते हैं. कुछ प्रशासनिक औपचारिकताएं जरूरी होती हैं.






Related News

  • लोकतंत्र ही नहीं मानवाधिकार की जननी भी है बिहार
  • भीम ने अपने पितरों की मोक्ष के लिए गया जी में किया था पिंडदान
  • कॉमिक्स का भी क्या दौर था
  • गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र
  • वह मरा नहीं, आईएएस बन गया!
  • बिहार की महिला किसानों ने छोटी सी बगिया से मिटाई पूरे गांव की भूख
  • कौन होते हैं धन्ना सेठ, क्या आप जानते हैं धन्ना सेठ की कहानी
  • यह करके देश में हो सकती है गौ क्रांति
  • Comments are Closed

    Share
    Social Media Auto Publish Powered By : XYZScripts.com