बलिया के बाबुसाहब से क्या सिख ले सकते हैं आज के नेता

एक थे “युवा तुर्क” चन्द्र शेखर…आज इस चुनावी मौसम में नेताओ को चन्द्र शेखर साहब से उनकी जयंती के अवसर पर कुछ तो सीख लेनी ही चाहिए….

डॉ. शैलेश सिंह
उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में स्थित इब्राहिमपत्ती गांव के एक किसान परिवार का बेटा जो अपने छात्र जीवन से ही राजनीति की ओर आकर्षित था और क्रांतिकारी जोश एवं गर्म स्वभाव वाले वाले आदर्शवादी के रूप में जाना जाता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1950-51) से राजनीति विज्ञान में अपनी मास्टर डिग्री करने के बाद वे समाजवादी आंदोलन में शामिल हो गए। उन्हें आचार्य नरेंद्र देव के साथ बहुत निकट से जुड़े होने का सौभाग्य प्राप्त था। वे बलिया में जिला प्रजा समाजवादी पार्टी के सचिव चुने गए एक साल के भीतर वे उत्तर प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के संयुक्त सचिव बने। 1955-56 में वे उत्तर प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के महासचिव बने।
1962 में वे उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गए। वे जनवरी 1965 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। 1967 में उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का महासचिव चुना गया। संसद के सदस्य के रूप में उन्होंने दलितों के हित के लिए कार्य करना शुरू किया एवं समाज में तेजी से बदलाव लाने के लिए नीतियाँ निर्धारित करने पर जोर दिया। इस संदर्भ में जब उन्होंने समाज में उच्च वर्गों के गलत तरीके से बढ़ रहे एकाधिकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई तो सत्ता पर आसीन लोगों के साथ उनके मतभेद हुए।
वे एक ऐसे ‘युवा तुर्क’ नेता के रूप में सामने आए जिसने दृढ़ता, साहस एवं ईमानदारी के साथ निहित स्वार्थ के खिलाफ लड़ाई लड़ी। वे 1969 में दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘यंग इंडियन’ के संस्थापक एवं संपादक थे। इसका सम्पादकीय अपने समय के विशिष्ट एवं बेहतरीन संपादनों में से एक हुआ करता था। आपातकाल (मार्च 1977 से जून 1975) के दौरान ‘यंग इंडियन’ को बंद कर दिया गया था। फरवरी 1989 से इसका पुनः नियमित रूप से प्रकाशन शुरू हुआ। वे इसके संपादकीय सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे।
श्री चन्द्र शेखर हमेशा व्यक्तिगत राजनीति के खिलाफ रहे एवं वैचारिक तथा सामाजिक परिवर्तन की राजनीति का समर्थन किया। यही सोच उन्हें 1973-75 के अशांत एवं अव्यवस्थित दिनों के दौरान श्री जयप्रकाश नारायण एवं उनके आदर्शवादी जीवन के और अधिक करीब ले गई। इस वजह से वे जल्द ही कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष का कारण बन गए।
25 जून 1975 को आपातकाल घोषित किये जाने के समय आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया जबकि उस समय वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शीर्ष निकायों, केंद्रीय चुनाव समिति तथा कार्य समिति के सदस्य थे।
श्री चन्द्र शेखर सत्तारूढ़ पार्टी के उन सदस्यों में से थे जिन्हें आपातकाल के दौरान गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था।
वह हमेशा सत्ता की राजनीति का विरोध करते थे एवं लोकतांत्रिक मूल्यों तथा सामाजिक परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता की राजनीति को महत्व देते थे।
आपातकाल के दौरान जेल में बिताये समय में उन्होंने हिंदी में एक डायरी लिखी थी जो बाद में ‘मेरी जेल डायरी’ के नाम से प्रकाशित हुई। ‘सामाजिक परिवर्तन की गतिशीलता’ उनके लेखन का एक प्रसिद्ध संकलन है।
श्री चन्द्र शेखर ने 6 जनवरी 1983 से 25 जून 1983 तक दक्षिण के कन्याकुमारी से नई दिल्ली में राजघाट (महात्मा गांधी की समाधि) तक लगभग 4260 किलोमीटर की मैराथन दूरी पैदल (पदयात्रा) तय की थी। उनके इस पदयात्रा का एकमात्र लक्ष्य था – लोगों से मिलना एवं उनकी महत्वपूर्ण समस्याओं को समझना।
उन्होंने सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा सहित देश के विभिन्न भागों में लगभग पंद्रह भारत यात्रा केंद्रों की स्थापना की थी ताकि वे देश के पिछड़े इलाकों में लोगों को शिक्षित करने एवं जमीनी स्तर पर कार्य कर सकें।
1984 से 1989 तक की संक्षिप्त अवधि को छोड़ कर 1962 से वे संसद के सदस्य रहे। 1989 में उन्होंने अपने गृह क्षेत्र बलिया और बिहार के महाराजगंज संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा एवं दोनों ही चुनाव जीते। बाद में उन्होंने महाराजगंज की सीट छोड़ दी।
चन्द्रशेखर जी जिनकी हम जयंती मना रहे है ।
एक प्रखर और स्पष्टवक्ता चन्द्रशेखर पहले पूरे देश में ” युवा – तुर्क ” के नाम से जाने गए और बाद में विचारोंवाली राजनीतिक धारा के अंतिम राजनेता बनकर उभरे । ठेठ गवई अंदाज , धोती , कुरता , चप्पलवाले , साधारण लिवास , बिन सवारे बाल , खिचड़ी दाढ़ी , अलमस्त चाल , मजबूत कद – काठी , आकर्षक व्यक्तित्व , आम और खास दोनों से बगैर बनावटी औपचारिकता बातचीत की बेवाक शैली … देशवासियों , खासकर ग्रामीण भारत से जुड़ाव उनकी विशिष्टता थी । वे भारतीय राजनीति के उन पुरोधाओं में थे , जिन्होंने राजनीति अपनी शर्तों पर की । शुद्ध बलियावी ठसक के साथ ।
सुविख्यात समाजवादी चिंतक मधु लिमये नेचन्द्रशेखर को धोती , कुरता , चप्पलवाला अक्खड़ प्रधानमन्त्री बतलाया । शपथ या विदेश दौरों के लिए जिन्होंने रातों – रात शूट या शेरवानी नहीं बनवाई । राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जिसने पढ़ कर भाषण नहीं किया । जब जो अंदर मन ने कहा , वही बाहर रखा । वे ‘ पोलिटिशियन ‘ नहीं ‘ स्टेट्स मैन ‘ थे । उनके पास छुपाने को कुछ नहीं था । जो सोचते थे – वही कहते थे , जो कहते थे – वही करते थे । अदभुत निर्णयक्षमता के धनी चन्द्रशेखर सही अर्थों में ‘ गाँव और गुदड़ी ‘ के लाल थे । कई – कई बार अपने ढंग से उन्होंने देश को दिशा दी । गरीबी हटाओ , बैंको का राष्ट्रीयकरण , प्रिविपर्स की समाप्ति जैसे काँग्रेस और इंदिरा जी के समाजवादी कदमों के पीछे चन्द्रशेखर जी की ही सोच थी ।
काँग्रेस प्रवेश के वक्त इंदिरा जी ने पूछा – आपके जैसे मुखर समाजवादी आखिर काँग्रेस में आने को क्यों तैयार हुए ? उनका स्पष्ट जवाब था – मैं कांग्रेस के चाल – चरित्र और चेहरा को बदलने आया हूँ । फिर इंदिरा जी ने पूछा – अगर ऐसा सम्भव नहीं हुआ ? चन्द्रशेखर जी ने सवाल पर सवाल दागा , सच सुनेंगी ? इंदिरा जी ने कहा – मैं आपसे सच की ही उम्मीद रखती हूँ । उनका जवाब था – फिर मैं कांग्रेस को तोड़ दूंगा ।कांग्रेस विभाजन के वक्त के. कामराज , मोरारजी देसाई , निजलिंगगप्पा , नीलम संजीव रेड्डी , चन्द्रभानू गुप्त , सत्येन्द्र नारायण सिंह , तारकेश्वरी सिन्हा , डॉ. राम सुभग सिंह जैसे सिंडिकेट के धाकड़ों की बनिस्बत अपेक्षाकृत कमजोर इंदिरा जी के साथ खड़ा होना , ‘ अंतरात्मा की आवाज ‘ के नाम पर राष्ट्रपति वी. वी. गिरी के चुनाव में उनकी वैचारिक भूमिका और फिर इंदिरा जी के विरोध के बावजूद कांग्रेस – कार्यसमिति में उनके प्रत्याशी को हराकर भारी अंतर से जीत ने बहुत पहले ही उन्हें भारतीय राजनीति में ‘ विशिष्ट ‘ बना दिया था । उन्हें लीक पर चलना स्वीकार नहीं था । अपनी दृढ़ वैचारिक पृष्ठभूमि के चलते वे धारा के प्रतिकूल चलने और साहस के साथ सार्थक हस्तक्षेप करनेवाले भारतीय राजनीति की शायद अंतिम कड़ी थे ।
कश्मीर पर शेख अब्दुल्ला का मजबूती से साथ , डी. के. बरुआ की ‘ सीमित तानाशाही के सिद्धांत ‘ पर कदम बढ़ा चुकी इंदिरा जी की ‘ इमर्जेंसी के खिलाफ कांग्रेस में रहते श्री कृष्णकांत , मोहन धारिया , रामधन ‘ जैसे मित्रों सहित 60 सांसदों के साथ जे. पी. के पक्ष में खड़ा होना और जेल जाना , ऑपरेशन ‘ ब्लू स्टार ‘ की वाह – वाही के बीच उसे ‘ अक्षम्य अपराध ‘ और ‘ एतिहासिक भूल ‘ करार देना , नेपाल में राजशाही के खात्में और लोकशाही की स्थापना के संघर्ष में अविस्मरणीय भूमिका उनके ‘ एकला चलो ‘ राजनीति के उदाहरण हैं । आतंकवादियों के खिलाफ सिख आस्था के प्रतीक ‘ स्वर्ण मंदिर ‘ पर सैनिक अभियान पर कई विकल्प सुझाते हुए उनका दूरंदेशी कथन कि ‘ देश को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी ‘ । बाद के दिनों में प्रधानमन्त्री इंदिरा जी की हत्या और देशव्यापी सिख – विरोधी दंगों में जान – माल की अपार क्षति ने उनकी भविष्यवाणी को सच साबित कर दिया ।धोखे और धुर्तई की आज की राजनीति में वो दोस्ती और वचन निभानेवाले राजनेता के रूप में मशहूर थे । वे यारों के यार थे ।कांग्रेस के समर्थन के कारण भारी आलोचनाओं , युवा आक्रोश के विस्फोट और उन्माद में जलते देश की बागडोर संभालने के साथ ही चौतरफा शांति , बाबरी मस्जिद – रामजन्मभूमि विवाद पर सदभावपूर्ण सार्थक पहल , उनके कुशल नेतृत्व के कुछ प्रमाण थे , जिसे समयाभाव में अंजाम नहीं मिल पाया । देश यह भी जानता है कि बात – बेबात कांग्रेस की समर्थन वापसी की धमकी से तंग आकर एक दिन जब उन्होंने इस्तीफे का मन बना लिया तो दोनों ही तरफ के मित्रों ने समझौते की पहल की । राजीव जी तो मान गये , परन्तु चन्द्रशेखर जी अड़ गये । उन्होंने कहा – प्रधानमन्त्री का पद देश के सम्मान से जुड़ा है । छोटी – छोटी शर्तों पर उसके झुकने से इस पद की मर्यादा जाती रहेगी । बतौर व्यक्ति चन्द्रशेखर कहीं झुक भी सकता है , परन्तु प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर कदापि नहीं ।
सदन में एक प्रतिपक्षी मित्र के इस व्यंग्य कि – ‘ इतिहास में प्रधानमन्त्री के रूप में चन्द्रशेखर सबसे छोटे कार्यकाल के लिए जाने जायेंगे ‘ , उन्होंने जवाब में कहा – एवरेस्ट पर लोग झंडा गाड़ने जाते हैं – घर बनाने नहीं … उनके ही जयंती समारोह पर अपने उदगार में तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल जी ने ठीक ही कहा था – अपने पाँच दशकों के संसदीय जीवन में मैंने लोकतंत्र के दो ही पक्ष देखे – ‘ सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष ‘ लेकिन चन्द्रशेखर की मौजूदगी ने भारतीय लोकतंत्र को तीसरा मजबूत पक्ष दिया – ‘ निष्पक्ष ‘…! सच , आनेवाली पीढ़ी चन्द्रशेखर को एक निर्भीक और निष्पक्ष नायक के रूप में याद करेगी । पगडंडियों से चल कर राजपथ और गाँव और गरीबी के परिवेश से निकलकर शिखर तक पहुँचनेवाले चन्द्रशेखर देश की राजनीति के विरल पुरुष थे ।
महात्मा गाँधी को प्रेरक और आचार्य नरेन्द्र देव को अपना आदर्श माननेवाले चन्द्रशेखर जी जयप्रकाशी थे । आपातकाल के पूर्व , जयप्रकाश आन्दोलन के दौरान उन्होंने जे. पी. से न भिड़ने की इंदिरा जी को बार – बार सलाह दी । उन्होंने समझाया – ‘ सत्ता जब – जब संत से टकराई है , पराजय सत्ता की ही हुई है ‘ ।
गाँधी और विनोवा के बाद वह चन्द्रशेखर ही थे जिन्होंने पाँव – पैदल ‘ भारत यात्रा ‘ की । उस यात्रा – क्रम में उन्होंने देश की दारुण दुर्दशा , भूख , प्यास , बेबसी और बीमारी को और करीब से देखा । वे ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि – प्रवक्ता थे , जिन्होंने गरीबी को न सिर्फ देखा था बल्कि स्वंय भोगा भी था । उनके राजनीतिक जीवन और चिन्तन के मूल में ‘ गाँव और गरीब ‘ थे । इसलिए वो मन और आचरण से समाजवादी थे । उनके निधन से समाजवाद का एक बड़ा आधारस्तंभ ढह गया । डंकल हो या गैट , उदारीकरण हो या नई आर्थिक नीति , उन्होंने देश को इसके दुष्परिणामों से लगातार सचेत किया । वे अपनी अस्वस्थता के पूर्व अकेले घूम – घूम कर इसका मुखर विरोध करते रहे । उनका स्पष्ट मत था , कि भारत अपने स्वदेशी और स्वावलंबन के गाँधीवादी समाजवाद के फ्रेम में ही आगे बढ़ेगा।
चन्द्रशेखर जी से मेरी कई व्यक्तिगत यादें जुड़ी है । विस्तार में जाने का यह वक्त नहीं है , लेकिन मैं उन खुशनसीबों में हूँ , जिसके शादी – समारोह में प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर ने वायुसेना के कई हेलिकॉप्टरों से अपने आधे कैबिनेट के साथ मेरे गाँव पंचगछिया पहुँचकर मेरा मान बढ़ाया । पूरे भरोसे के साथ बिहार पार्टी के ‘ उर्जा श्रोत ‘ की युवा – शाखा की मुझे कमान सौंपी । विधायक बनने के तुरंत बाद वर्ष 1990 में नेपाल में राजशाही के खिलाफ लोकशाही की स्थापना की निर्णायक लड़ाई में कूदने का आदेश दिया।
पदार्पण से प्रस्थान तक चन्द्रशेखर जी भारतीयराजनीति में हर समय प्रासांगिक थे । इस विचारवान विराट व्यक्तित्व को कुछ करने के लिए निहायत सीमित समय ( चार महीना मात्र ) मिला … परन्तु गांधी , लोहिया , जयप्रकाश की विरासत इस व्यक्ति ने देश की राजनीति पर अपने ढंग से अलग छाप छोड़ी । अब वे हमारे बीच आज सशरीर नहीं हैं , फिर भी उनके संघर्ष , विचार और आदर्श युवा पीढ़ी को अपनी पूरी प्रासंगिकता के साथ मार्गदर्शन करते रहेंगे ।
उनकी जयंती पर शर शत नमन….
साभार-डॉ. शैलेश सिंह।



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