शहाबुद्दीन सबको चाहिए लेकिन ज्यादा किसे चाहिए
रवीश कुमार
राष्ट्रीय जनता दल के कार्यकारिणी के सदस्य मोहम्मद शहाबुद्दीन को ट्रायल कोर्ट से कई मामलों में एक साल, दो साल, तीन साल और दस साल की सजा हो चुकी है। दो मामलों में आजीवन कारावास की सजा हो चुकी है। ये सारी सजा 2007 से लेकर 2015 के बीच हुई है। इन मामलों को शहाबुद्दीन ने ऊपरी अदालत में चुनौती दी है। हाई कोर्ट में गवाही नहीं होती मगर सजा पर बहस होगी। वहां से फिर सुप्रीम कोर्ट। इससे पता चलता है कि इसके खिलाफ जाँच में काफी प्रगति हुई थी और ठोस तरीके से जाँच हुई थी।
शहाबुद्दीन के खिलाफ ट्रायल कोर्ट में ही 37 मामलों में गवाही पूरी हो चुकी है लेकिन बचाव पक्ष पेश नहीं हुआ इसलिए ये सारे मामले फैसले की मंजिÞल तक नहीं पहुँच सके। इसी स्तर पर 2012 में शहाबुद्दीन ने एक याचिका दायर की कि उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी है। वे वकील रखने में सक्षम नहीं है मगर उनकी मर्ज़ी के मुताबिक बेहतर वकील दिया जाए। ट्रायल कोर्ट के तत्कालीन जज ने उनकी याचिका मंजूर कर ली। राज्य सरकार इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट चली गई। वहाँ शहाबुद्दीन को मिली राहत पर स्टे लगा और उच्च अदालत ने निर्देश दिया कि शहाबुद्दीन ट्रायल में खुद हाजिÞर हों और अपना वकील रखें।
चार साल से हाईकोर्ट का यह नोटिस शहाबुद्दीन को रिसिव नहीं हुआ है। जबकि शहाबुद्दीन न्यायिक हिरासत में थे। उच्च अदालत के आदेश की कापी न्यायिक हिरासत में बंद व्यक्ति को न मिले,ये किस तर्क से संभव है। मैं कानून का जानकार नहीं हूँ लेकिन ट्रायल कोर्ट का ही काम होना चाहिए कि उच्च न्यायालय के नोटिस की तामिल कराये। ये काम जेलर का भी होगा। चार साल से उच्च न्यायालय को भी देखना चाहिए कि शहाबुद्दीन जेल में है, फिर भी नोटिस क्यों नहीं सर्व नहीं हो रहा। जमानत देते वक्त हाईकोर्ट ने इस बात पर क्या टिप्पणी की है, मुझे इसकी जानकारी नहीं है। फिर भी चार साल से ये बात सबको पता है,मगर कोई कुछ नहीं बोला। चार साल के दौरान गृह मंत्रालय नीतीश कुमार के पास ही था। तब बीजेपी जेडीयू की सरकार थी।
तभी से साफ था कि शहाबुद्दीन को जमानत मिल जाएगी क्योंकि 37 मामलों में शहाबुद्दीन के पेश न होने से ट्रायल शुरू नहीं हुआ। हाईकोर्ट से एक के बाद एक मामले में जमानत होने लगी। सबको पता था कि एक मामला रह गया है। उसमें जमानत मिलते ही आज या कल शहाबुद्दीन को बाहर आना ही है। आप गूगल कर सकते हैं कि तब जब जमानत मिलते जा रही थी तो न्यायिक प्रक्रिया में हो रही इस चूक के खिलाफ कौन कौन बोल रहा था। बीजेपी, जे डी यू, आर जे डी और कांग्रेस।
मई में जब सिवान के हिंदुस्तान ब्यूरो चीफ राजदेव रंजन की हत्या हुई थी तब इससे संबंधित कुछ जानकारी हमने प्राइम टाइम में शामिल की थी लेकिन बिहार के कशिश न्यूज के संतोष सिंह ने इस पर विस्तार से रिपोर्टिंग की थी। यू ट्यूब पर कशिश न्यूज का एपिसोड २ंल्ल३ङ्म२ँ २्रल्लॅँ ङ्मल्ल २ँुंिि४्रल्ल नाम से मौजूद है। उम्मीद है हिन्दुस्तान अखबार ने भी इसे लेकर खूब आंदोलन किया होगा। हंगामा किया होगा। उम्मीद इसलिए कह रहा हूँ कि अब मैं किसी अखबार का नियमित पाठक नहीं हूँ। आप गूगल कर इसकी जाँच कर सकते हैं।
मई में जब राजदेव रंजन की हत्या हुई तो उसमें शहाबुद्दीन का नाम उछला था। कुछ घंटों के भीतर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सीबीआई जाँच की सिफारिश कर दी थी। मई से अगस्त बीत गया, सीबीआई ने ह्यमोहम्मद शहाबुद्दीनह्ण जैसे बाहुबली के खिलाफ जाँच शुरू नहीं की। ये हो सकता है क्या? 9 सितंबर के इंडियन एक्सप्रेस के संतोष कुमार सिंह की रिपोर्ट आप गूगल कर सकते हैं। उस दिन राजदेव की पत्नी आशा रंजन ने दिल्ली आकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात कर उनसे कहा कि वे सीबीआई से कहें कि जाँच का काम अपने हाथ में ले क्योंकि सबूतों से छेड़छाड़ हो रही है। मुझे नहीं मालूम कि इस देरी में कौन किससे मिला है लेकिन उम्मीद करता हू कि सीबीआई जाँच में देरी को लेकर बीजेपी के प्रवक्ताओं ने हंगामा मचा दिया होगा। पत्रकार संतोष कुमार सिंह ने लिखा है कि पुलिस ने सबूतों के अभाव में शहाबुद्दीन का नाम तक नहीं लिया है। आशा रंजन ने डर के कारण अपने बेटे को सीवान से बाहर भेज दिया है। आप पता कर सकते हैं कि 9 सितंबर की मुलाकात के बाद क्या सीबीआई ने त्वरित कार्रवाई की?
चार महीने से सीबीआई उस केस को हाथ में नहीं ले सकी है और बीजेपी से लेकर तमाम लोग चुप रहे। उम्मीद है हिंदुस्तान अखबार ने समय समय पर इसे उजागर ही किया होगा। अपने पत्रकार के लिए तो कम से कम हेडलाइन लगाया ही होगा। ये हालत है सीबीआई से लेकर ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट तक की। क्या सभी शहाबुद्दीन के बाहर आने का इंतजार कर रहे थे कि आते ही राजनीति करेंगे। अगर नीतीश कुमार शहाबुद्दीन से मिले हुए हैं तो क्या सीबीआई भी शहाबुद्दीन से मिली हुई है? बीजेपी के सांसदों ने क्यों नहीं दबाव डाला।
शहाबुद्दीन जेल से बाहर है तो बीजेपी नीतीश कुमार पर हमला कर रही है। उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव अमित शाह का मामला उठा रहे हैं। कह रहे हैं कि क्या बीजेपी ने उनकी जमानत कराई थी? बीजेपी सांसद गिरिराज सिंह का बयान दिलचस्प लगा कि नीतीश कुमार शहाबुद्दीन को बाहर कर रहे हैं और अनंत सिंह को क्रीमिनल कंट्रोल एक्ट लगा कर जेल भेज रहे हैं। मोकामा के विधायक अनंत सिंह जेल में हैं। जमानत मिलने पर भी बाहर न आ सके इसलिए राज्य सरकार ने उन पर क्रीमिनल कंट्रोल एक्ट लगाया है। अगर कोर्ट ने इसे कंफर्म नहीं किया तो इस साल अनंत सिंह बाहर आ सकते हैं। लेकिन गिरिराज सिंह शहाबुद्दीन के बहाने अनंत सिंह का रोना क्यों रो रहे हैं? क्या इसलिए वे सजातीय हैं? अनंत सिंह भी जे डी यू के विधायक थे लेकिन इस बार टिकट नहीं मिला फिर भी जेल से ही जीत गए। शहाबुद्दीन ही बाहुबली बनकर कथित रूप से लोकप्रिय नहीं है, अनंत सिंह जैसे भी हैं।
बिहार की राजनीति को गौर से देखिये। गिरिराज का यह बयान सीधा सीधा ध्रुवीकरण का मामला लगता है। अनंत सिंह पर भी कम संगीन मामले नहीं हैं। अनंत सिंह को नीतीश कुमार छोड़ देते तो क्या गिरिराज सिंह शहाबुद्दीन के बाहर आने का स्वागत करते। अनंत सिंह के बाहर आने पर भी क्या गिरिराज सिंह नीतीश कुमार पर हमला करेंगे? बीजेपी सांसद की हमदर्दी एक निर्दलीय विधायक से क्यों हैं? जंगल राज की अवधारणा में क्या अनंत सिंह संत हैं? गौर से देखेंगे कि वे किस तरह से ध्रुवीकरण कर रहे हैं। गौर से देखेंगे तो आर जे डी नेता किसी तरह से ध्रुवीकरण कर रहे हैं। आर जे डी कह रही है कि कोर्ट ने छोड़ा है,हमने नहीं। बीजेपी अमित शाह के बारे में भी तो यही कहती थी।
कुलमिलाकर शहाबुद्दीन को लेकर सब फुटबॉल खेल रहे हैं। जेल के अंदर रहने से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संभावना समाप्त हो गई थी। इसीलिए सीबीआई सुस्त पड़ गई। चार साल तक विपक्ष सुस्त पड़ा रहा। और सबसे चिंता की बात है कि न्यायपालिका ने सक्रियता नहीं दिखाई। पैंतीस से अधिक मामले में ट्रायल रूका रहा और किसी ने चूं तक नहीं की। देखते हैं सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या संज्ञान लेता है।
दस ग्यारह साल बाद कोई जेल से निकले तो उसके चेहरे पर प्रायश्चित तो कम से कम दिखता। शहाबुद्दीन का हाव भाव बता रहा था कि जेल से नहीं, संसद से लौट कर आ रहे हैं। बिहार में शहाबुद्दीन एक भयावह दौर का प्रतीक रहे हैं। कोई अब यह नहीं देखेगा कि मुसलमानों ने भी शहाबुद्दीन को खारिज कर लालू राज के खिलाफ वोट किया। अब बिहार में शहाबुद्दीन बीफ और बिरयानी का नया संस्करण बनेंगे और इसके जरिये एक वर्ग को लांछित किया जाएगा और दूसरे वर्ग के एक हिस्से का ध्रुवीकरण। सबको पता है सिवान में शहाबुद्दीन को किन ऊँची जाति के लोगों ने समर्थन दिया था और किसके खिलाफ।इस तरह का राजनीतिक बाहुबली एक तबके के समर्थन से नहीं बनता। इन्हें पाला पोसा जाता है ताकि दोनों पक्ष मुर्ग़ी पकड़ने का खेल खेल सके।
शहाबुद्दीन ने कहा कि लालू हमारे नेता है। लेकिन यह कहना कि नीतीश कुमार परिस्थितियों के कारण मुख्यमंत्री बने हैं तो इसे लेकर राजद को भी शर्म आनी चाहिए और राजद से ज्यादा नीतीश कुमार को शर्म आनी चाहिए। उन्हें सीधे सीधे चुनौती दी गई है। शहाबुद्दीन को पता होना चाहिए कि नीतीश कुमार गठबंधन के नेता हैं। यह चुनौती नीतीश कुमार पर ज्यादा है। बहरहाल एक बात याद रखनी चाहिए। जे डी यू के नेता के सी त्यागी और अली अनवर कोर्ट की दुहाई दे रहे हैं। यहाँ तक वे बिल्कुल ठीक हैं लेकिन वे अपने नेता का बचाव नहीं कर रहे हैं, क्या ये भी ठीक है? तेजस्वी ने भी अपने मुख्यमंत्री का बचाव नहीं किया। अमित शाह का नाम लेकर शहाबुद्दीन का बचाव नहीं हो सकता। तब भी जब अमित शाह फर्ज़ी एनकाउंटर के मामले में रिहा हुए थे तो इसलिए नहीं किये गए कि इनके नाम पर शहाबुद्दीन को भी छोड़ा जाएगा। एक के सहारे दूसरे को सही करने का यह खेल अब पकाऊ हो चुका है।
अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता और अपराधीकरण से ही धारमनिरपेक्षता की राजनीति कमजोर हुई है और इससे अल्पसंख्यकों का ही ज्यादा नुकसान हुआ है। यह मोटी बात याद रखनी चाहिए। लालू यादव को भी और नीतीश कुमार को भी । बाकी शहाबुद्दीन बनाम अमित शाह की राजनीति पर अफसोस ही कीजिये कि हम किसके लिए इतने अंतर्विरोधों को समेट रहे हैं ? सोचिये जरा।
नोट: वैसे बंगाल से मदन मित्रा के जमानत पर छूटने की खबर आ रही है। शारदा स्कैम में लाखों गरीबों को लूटने का आरोपी मदन मित्रा। इतने महीनों में जाँच मुकम्मल क्यों नहीं होती है? प्रधानमंत्री ने तो वादा किया था कि सांसदों के मामलों को स्पीड ट्रायल करा कर एक साल के भीतर फैसले तक पहुँचायेंगे। भले उनके सांसदों की सदस्यता क्यों न चली जाए।मदन मित्रा को जमानत मिली है लेकिन घर जाने की नहीं । क्या शहाबुद्दीन के मामले में ऐसा नहीं हो सकता था? सिवान जाने की इजाजत ही क्यों दी गई?
(आलेख वरिष्ठ टीवी पत्रकार रबिश कुमार के ब्लॉग नई सड़क से साभार)
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