ताड़ी को लेकर भारी कंफ्यूजन

‘हमरा नौकरी ना चाही, रुपया ना चाही, हमको हमरा ताड़ी का बिजनेस चाही.’ यह कहना है 65 साल की भंगिया देवी का. भंगिया देवी के पति की मौत आठ साल पहले हो गई थी. उसके बाद से वो ताड़ी चुआने वाले से ख़रीददकर उसे बेचकर गुजारा कर रही हैं. भंगिया, मोतिहारी से पटना ताड़ी मार्च में हिस्सा लेने आई थीं. वो अपने हाथ पर लगी चोट को दिखाते हुए बताती हैं, ”हमको और कोई काम नहीं आता है. सरकार ताड़ी नहीं बेचने देती तो हमने खेत में काम करना शुरू किया. लेकिन वहां भी हाथ कटा बैठे. ऐसे तो हम भूखे मर जाएंगे.” ताड़ी मार्च में हिस्सा लेने के लिए पटना के गांधी मैदान में ताड़ी के व्यवसाय़ से जुड़ी और भी महिलाएं जुटी थीं. चंदेरी देवी उन्हीं में से एक हैं. वो कहती हैं, ”ताड़ी शराब नहीं है वो तो फल है. अच्छे से पिया जाए तो सेहत के लिए फ़ायदेमंद है. फिर भी बंद करना है तो पहले सरकार रोजगार दे.”

बिहार में पासी समाज की बड़ी आबादी ताड़ी व्यवसाय पर निर्भर है. अखिल भारतीय पासी समाज के मुताबिक़ बिहार में इस समाज की आबादी 20 लाख से ज़्यादा है. ताड़ी उतारने का काम बहुत जोखिम भरा है. ये लोग 50 फीट ऊंचे ताड़ के पेड़ पर सुबह-शाम चढ़ते उतरते हैं और ताड़ी जमा करके अलग-अलग दाम पर बेचते हैं. पासी समाज आर्थिक तौर पर पिछड़ा हुआ है. इनके पास अपनी ज़मीन नहीं है इसलिए ताड़ का पेड़ एक साल के लिए किराए पर लेकर ये लोग ताड़ी बेचते हैं. अप्रैल से जुलाई तक, यानी 4 महीने ही ताड़ी निकलता है. नदमा के 26 साल के दिनेश चौधरी अपना रेलवे का महीने भर के लिए बनने वाला पास दिखाते हैं जिसमें ताड़ी को रेलवे से लाने ले जाने की अनुमति है. दिनेश कहते हैं, ”हम लोग 200 रुपए की दर से ताड़ के पेड़ को सालाना किराए पर लेते हैं. चार महीने में 70-80 हजार कमा लेते थे. जो हमारे बाल बच्चों की शादी वगैरह या किसी दूसरे काम में लगता था.लेकिन अबकी बार पेड़ किराए पर लेने के लिए जो उधार लिया था, उसे चुका पाएंगे, ऐसा नहीं लगता.”

दरअसल बिहार में ताड़ी को लेकर उलझन की स्थिति है. पांच अप्रैल, 2016 को सरकार की ओर से जारी आदेश में कहा गया है कि ताड़ी के व्यवसाय को लेकर कोई पाबंदी नहीं है. लेकिन बाजार, घनी आबादी, स्कूल, रेलवे स्टेशन, अस्पताल जैसे सार्वजनिक स्थानों के 100 मीटर के दायरे में ताड़ी बेचने पर वर्ष 1991 से लगी पाबंदी जारी रहेगी. सरकार की ओर से जारी आदेश में जहां यह बात कही गई है. वहीं ज़मीनी स्तर पर ताड़ी का व्यवसाय करने वाले परेशान हैं.

ताड़ी का धंधा करने वाले मनोज चौधरी बताते हैं, ”अभी कोई पेड़ पर भी चढ़ जाता है तो सिपाही सब उसे जेल भेज दे रहा है. सरकार बताए हम अपना बिजनेस चालू रखें या बंद कर दें. चालू रखना है तो पुलिस वाले परेशान क्यों करते हैं?” पासी अस्मिता बचाओ संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजीत चौधरी कहते हैं, ”नीतीश कुमार पर हमेशा गरीबों का विश्वास रहा है. लेकिन उनकी पुलिस तो तरबन्ने (ताड़ के पेड़ के नीचे की जगह) पर भी पासी समाज के लोगों को परेशान कर रही है. उनकी लवनी, पसुली, अकुरा, पसुकी (ताड़ी उतारने में काम आने वाली चीजें) सबको तोड़ा जा रहा है. उन्हें जेल भेजा जा रहा है.” इस बीच सरकार ने नीरा (सूर्योदय से पहले ताड़ का इकट्ठा किया रस, जिसमें अल्कोहल बहुत कम होता है) को बिहार खादी ग्रामउद्योग के जरिए बेचने का फैसला लिया है. प्रदेश के उत्पाद और मद्य निषेध मंत्री अब्दुल जलील मस्तान कहते हैं, ”सरकार नीरा बेचने की योजना पर काम कर रही है. अगले साल से इसके शुरू होने की पूरी उम्मीद है.” लेकिन जब तक सरकार नीरा बेचने के लिए मार्केटिंग का नेटवर्क तैयार नहीं करती, तब तक ताड़ी का व्यवसाय करने वाले कहां जाएं? यह अहम सवाल बना हुआ है.






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