गाथा बिहार और गुजरात मॉडल की

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  • सुदीप्तो मंडल (प्रोफेसर एमीरिटस एनआईपीएफपी) 

देश में विकास के दो मॉडल उभरकर सामने आए हैं। पहला मॉडल गुजरात का है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर दोहराने की कोशिश में हैं। दूसरा है, नीतीश कुमार का बिहार मॉडल। नीतीश कुमार के विधानसभा चुनाव जीत लेने के बाद यह मॉडल पूरे देश में चर्चित हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मॉडल में कॉरपोरेट सेक्टर के नेतृत्व में विकास की राह तैयार की जाती है। इसमें सरकार की भूमिका भूमि अधिग्रहण करने, मजबूत बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराने और परियोजनाओं को जल्दी से जल्दी हरी झंडी दिखाने की होती है। सामाजिक विकास और समावेशन इस मॉडल के अंग नहीं हैं। सार्वजनिक सेवाओं के वितरण का आकलन करने वाली संस्था ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ऐंड पॉलिसी’ (एनआईपीएफपी) ने साल 2001 व 2011, दोनों में गुजरात को विकास के सभी मानदंडों और बुनियादी सेवाओं में श्रेष्ठ बताया है। हालांकि सामाजिक सेवाओं के मामले में वर्ष 2001 में गुजरात पांचवें नंबर पर था, जबकि 2011 में और नीचे गिरते हुए वह नौवें स्थान पर पहुंच गया। वहीं विकास के नीतीश कुमार मॉडल में निजी कॉरपोरेट क्षेत्र की भूमिका काफी कम है। इसमें नेतृत्व सरकार के हाथों में होता है, और मूलत: सामाजिक विकास, समावेशन और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर सार्वजनिक खर्च किया जाता है। हालांकि प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश के चंद गरीब राज्यों में गिने जाने वाले बिहार के सामने गंभीर वित्तीय संकट भी कम नहीं आए। यहां तक कि राष्ट्रीय मानदंडों की तुलना में सार्वजनिक खर्च यहां अब भी मामूली ही है। एनआईपीएफपी की रैंकिंग में भी वर्ष 2001 और 2011, दोनों में बिहार लगभग आखिरी पायदान पर था। आमतौर पर सार्वजनिक सेवाओं के वितरण को कई वजहों से विकास से जोड़ दिया जाता है, मगर जब इसका समायोजन कर लिया गया, तो बिहार की रैंकिंग उल्लेखनीय रूप से बेहतर हो गई।

विकास के इन दोनों मॉडलों में विरोधाभास मोदी या नीतीश की व्यक्तिगत प्राथमिकताओं से उतना नहीं दिखता, जितना कि इन दोनों राज्यों की अलग-अलग परिस्थितियों की वजह से दिखता है, और इसके बीज इतिहास में छिपे हैं; कम से कम औपनिवेशिक काल में। दरअसल, क्षेत्रीय विकास का असंतुलित पैटर्न भारत को विरासत में मिला है, जिसके तहत औद्योगिक निवेश गुजरात जैसे चंद बेहतर राज्यों में ही ज्यादा हुए, जबकि बिहार जैसे राज्य आमतौर पर कृषि पर ही निर्भर रहे। डी आर गाडगिल और अमिय बागची जैसे आर्थिक इतिहासकारों ने बताया है कि किस तरह प्रथम विश्वयुद्ध से पहले औद्योगिक निवेश काफी हद तक बॉम्बे और कलकत्ता में सीमित थे, जबकि अहमदाबाद वस्त्र उद्योग के कारण तीसरा बड़ा औद्योगिक केंद्र बनकर उभर रहा था।
अपनी किताब द इंडस्ट्रियल इवॉल्यूशन ऑफ इंडिया इन रिटेंस टाइम्स, 1860-1939 में इस संदर्भ में गाडगिल लिखते हैं- गुजरात देश का एकमात्र ऐसा हिस्सा है, जहां उद्योग भारतीय संसाधनों से विकसित किए गए, और यहां काफी पहले से ही कारोबारियों का ऐसा वर्ग मौजूद रहा, जो विदेश से व्यापार करता था। युद्ध के बाद इस परिस्थिति में कुछ बदलाव तो आया, मगर अहमदाबाद के कारण गुजरात का दबदबा वस्त्र उद्योग में बना रहा। गाडगिल बताते हैं कि बेहतरीन मिलों, अच्छे प्रबंधन और उत्पादों की गुणवत्ता के कारण अहमदाबाद सबसे चहेता औद्योगिक केंद्र बना रहा।
आजादी के बाद औद्योगिकीकरण में उछाल आया और कुछ नए परिवर्तन हुए, मगर गुजरात जैसे औद्योगिक राज्यों व कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले बिहार जैसे सूबों में क्षेत्रीय विषमताएं अधिक गहराती गईं। साल 1979-80 तक गुजरात सबसे औद्योगीकृत राज्य बन गया था, जहां प्रति व्यक्ति आय (राज्य घरेलू उत्पाद) 1,425 रुपये थी, जो बिहार (735 रुपये) की तुलना में लगभग दोगुनी थी। गुजरात में भारत की कुल आबादी का पांच फीसदी हिस्सा बसता था, जो बिहार (देश की कुल जनसंख्या का दस फीसदी हिस्सा तब यहां रहता था) की तुलना में आधा था। इतना ही नहीं, देश के कारखानों (11.3 प्रतिशत), औद्योगिक रोजगार (9.1 प्रतिशत) और औद्योगिक मूल्य वर्धित क्षेत्रों (9.33 प्रतिशत) में गुजरात का योगदान बिहार से लगभग दोगुना था।
निजी उद्योग के रास्ते विकास की इस कहानी को गुजरात के मुख्यमंत्रियों ने कायम रखा। मोदी को यही मॉडल विरासत में मिला, जिसे उन्होंने और मजबूत किया। जबकि नीतीश कुमार को एक ऐसा राज्य मिला, जो लगभग कृषि पर आधारित था। यहां निजी उद्योग नाममात्र के थे और सार्वजनिक खर्चों पर ही विकास निर्भर था। नीतीश कुमार ने वर्ष 2012 में निवेशकों का जो सम्मेलन आयोजित किया था, उसमें बिहारी मूल के केवल एक ही बडे़ उद्योगपति अनिल अग्रवाल (वेदांता रिसोर्सेस के प्रमुख) मौजूद थे, और उन्होंने भी इस राज्य में कोई उल्लेखनीय निवेश करने की घोषणा नहीं की। जो अन्य उद्यमी वहां मौजूद थे, उन्होंने मूल रूप से यही कहा कि निजी निवेश पाने से पहले बिहार को काफी कुछ करने की जरूरत है।
लिहाजा बुनियादी संरचनाओं की बेहतरी और सामाजिक विकास के लिए नीतीश कुमार के पास सार्वजनिक खर्च को तवज्जो देने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। अपनी इस रणनीति में उन्होंने समावेशीकरण को शामिल किया, जो एक अच्छी राजनीति कही जाएगी। उन्होंने अपनी रणनीति को जमीन पर उतारने के लिए स्वच्छ प्रशासन पर भी जोर दिया। उनकी शानदार जीत और सत्ता में वापसी ने बिहार मॉडल को मोदी के गुजरात मॉडल के सामने खड़ा कर दिया है। दोनों में विकास की राहें बिल्कुल जुदा हैं। यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि अन्य राज्य इन दोनों में से किसे चुनते हैं?
वैसे यह संभव है कि अपेक्षाकृत कम विकसित राज्य बिहार मॉडल को तवज्जो दें, जबकि मजबूत राज्य गुजरात मॉडल अपनाएं। यह भी मुमकिन है कि इन दोनों मॉडलों की सीमाओं को देखते हुए, जैसे कि गुजरात मॉडल में सामाजिक विकास का अभाव है, तो बिहार मॉडल में निजी उद्योग का, अन्य राज्य अधिक संतुलित राह पर आगे बढ़ें, जिसमें निजी निवेश के साथ ही समावेशन के तौर पर बुनियादी संरचनाओं, शिक्षा और स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च की बात हो। कोई चाहे, तो इसे विकास का तमिलनाडु मॉडल भी कह सकता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं) FROM LIVEHINDUSTAN.COM






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