लालटेन से नहीं, सूचना क्रांति की नजर से बिहार को देखिए

तमाम मुद्दे हैं, आरोप हैं, प्रत्यारोप हैं, वोट की गणित है, जाति की केमेस्ट्री है और विकास की फिजिक्स. इन सबके बीच सभी गंठबंधनों के अपने-अपने समीकरण हैं जीत के. क्या सोचते हैं इन सब पर प्रमुख रणनीतिकार और नेता, भाजपा के बिहार प्रभारी व सांसद भूपेंद्र यादव से बिहार और बिहार से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर राजेंद्र तिवारी व मिथिलेश की बातचीत
बिहार देश को दिशा देता है
बिहार राजनीतिक रूप से जीवंत प्रदेश है. आजादी की लड़ाई में या गांधी जी के समय, संविद सरकार या कांग्रेस के आपातकाल और जयप्रकाश जी के आंदोलन का समय रहा हो.  चाहे सामाजिक न्याय का विषय हो या सुशासन का विषय, सभी मुद्दों पर बिहार की जनता ने लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. जब देश को आजादी मिली, तब बिहार सुशासित प्रदेश था. यहां सबसे पहले रिफाइनरी लगी. खनिज संपदा सबसे ज्यादा यहां थी. पानी की प्रचुरता रही, खाद कारखना सबसे पहले यहां लगा.
फिर भी हालत बद से बदतर क्यों हुई
70 के बाद के दो दशक में कोई भी मुख्यमंत्री लंबे समय तक पांच साल पूरा नहीं कर पाया. 1990 के बाद लालू प्रसाद को अवसर मिला. सामाजिक न्याय को राज्य के धरातल पर विस्तार देने की जगह लालू प्रसाद ने उसे जातीय स्वरूप दिया. ऐसे मे प्रशासनिक व्यवस्था व शिक्षा का ह्रास हुआ, विकास का आयाम पीछे रह गया. राजनीति कुछ हंसी मजाक के भाषणों का विषय बनकर रह गयी.
लालू ने इसे अपनी शैली में विकसित किया. इससे बाहर निकालने के लिए हमने जंगल राज के खिलाफ संघर्ष किया और नीतीश कुमार को अपने साथ लिया. पर 30 साल की इस यात्र में पहले अस्थिरता और फिर कानून के पतन का रास्ता बना. उसमें सुधार कर लाने के लिए, सुशासन को लाने के लिए विकास की निरंतरता आवश्यक थी.
उस पायदान पर जब आगे बढ़ना शुरू किया. जब बिहार का ग्रोथ रेट बढने लगा, सरकारी अस्पतालों की दशा सुधरने लगी, शिक्षा का चरमरराता ढांचा बदलने लगा, जब बिहार सड़क से जुड़ने लगा, नीतीश कुमार मकड़जाल में फंस गये. उन्होंने हमारे साथ विश्वासघात किया. अपनी निजी आकांक्षा को लेकर भाजपा से नाता तोड़ लिया. अपनी छवि बनाने के लिए कभी महादलित सीएम का प्रयोग किया तो कभी जनता परिवार में विलय और कभी महागंठबंधन का प्रयोग किया. विकास का मुद्दा पीछे छूट गया. वह लोगों को गुटों में बांट कर राजनीति करने चले गये और बिहार की ग्रोथ का बंटाधार कर दिया.
जातिगत समीकरण और विकास
देखिए, हम जाति की बात नहीं करते हैं. हम जाति के संकरे दायरे से ऊपर विकास की बात करते हैं. हमारे पीएम ने बिहार के विकास के पैकेज की घोषणा की है. जब तक बिहार के विकास के पैकेज का स्वरूप नहीं आया था, तब तक नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का अहम भाव था कि हमारा तो मैच हो रहा है संख्या का. अब पूछने वाला और सवाल करने वाला कौन है. पीएम का पैकेज आया तो पहली बार बिहार की जनता को यह समझ में आया कि 2007 से कुछ परियोजनाएं लंबित हैं जिसे नीतीश कुमार पूरा नहीं कर पाये. और पूरा न कराने में दोष यूपीए सरकार का था. लेकिन, नीतीश कुमार ने उनके साथ समझौता कर लिया.
 जब पटना में मोकामा रेल पथ का उद्घाटन हुआ तो खुद नीतीश कुमार ने कहा था कि वाजपेयी की सरकार होती तो यह पूरा हो जाता लेकिन 10 साल से यह पूरा नहीं हो पाया. उन्होंने तो लालू प्रसाद के ऊपर प्रश्न चिन्ह उठाया. जो एक दूसरे पर प्रश्नचिन्ह उठा रहे हैं वह केवल वोट बैंक के लिए आपस में जुड़ रहे हैं. भाजपा ने बिहार के विकास को प्राथमिकता दी है.
 यहां का आधारभूत ढांचा प्राथमिकता है, यहां की बिजली प्राथमिकता है, नौजवानों के लिए स्किल प्राथमिकता है. कृषि की उन्नति प्राथमिकता है. इसको लेकर काम आगे बढ़ाया है. पहली बार देश के एग्रीकल्चर सांइिटस्ट ने दिल्ली से बाहर निकल कर पटना में बैठक कर कृषि के विकास पर विचार किया. मेरा और हमारी पार्टी का विश्वास है कि हिंदुस्तान में दूसरी हरित क्र ांति के बीज बिहार की धरती पर ही अंकुरित होंगे.
जाति आधारित दलों से गंठबंधन क्यों
जहां तक उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी का सवाल है, उसमें पार्टी के अध्यक्ष और नेता तो अलग-अलग जाति के हैं. जब जार्ज फर्नांडीस को नीतीश कुमार ने धोखा दिया और उससे समाजवादियों की जो धारा निकली, वह रालोसपा है. रामविलास पासवान की बात कहें तो 1967 से वह बिहार की राजनीति में हैं. समय -समय पर उनका विभिन्न दलों से समझौता रहा है.
 अगर एक ही जाति की पार्टी होती तो टिकट ज्यादा उन्हीं के पास रहता. लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं. सामान्य सीटें उनके पास ज्यादा हैं. जहां तक जीतन राम मांझी का सवाल है, मेरा मानना है कि मांझी बिहार के गरीब तबके की आंकाक्षा हैं. उनका नेतृत्व करते हैं, जो लंबे समय की गरीबी से उपर आना चाहते हैं और जो शासन में भागीदारी चाहते हैं. मांझी ने भी अलग-अलग जातियों के लोगों को टिकट दिये हैं.
बिहार को लेकर विजन
प्रधानमंत्री के पैकेज में बिहार के आधारभूत विकास को बढ़ाने का बड़ा विजन पेश किया गया है. बिहार में पर्यटन की बहुत संभावना है. बिहार में एग्रो बेस्ड खाद्य प्रसंस्करण की संभावना है. हिंदुस्तान की आधी लीची तो बिहार में उत्पादित होती है. देश में सबसे बढ़िया केला तो बिहार में ही उत्पादित होता है. हिंदुस्तान का सबसे बढ़िया आम तो बिहार में ही पैदा होता है. हिंदुस्तान की अच्छी दलहन बिहार में ही पैदा होती है. पानी की प्रचुरता है. लेकिन 73 प्रतिशत इलाका बाढ़ से प्रभावित है. वहां अनिश्चितता है. जब आप उसको एक योजना प्रबंधन में लाते हैं, निश्चिंतता में लाते हैं तब आपको कृषि से जुड़ा औद्योगिक उत्पादन करना होता है. सबसे बड़ी बात है पीएम ग्राम ज्योति योजना लेकर हम आ रहे हैं. हमने कहा है कि खेती की बिजली का और घर की बिजली का फीडर अलग-अलग होना चाहिए. पीएम ने अपने पैकेज में भी बिजली के नये कारखाने को बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है.
 आप एग्रो बेस्ड इंडस्ट्री लाना चाहते हैं तो आपको आधारभूत ढांचा के साथ अलग से बिजली उत्पादन की वृद्धि चाहिए. इन दोनों विषयों पर काम नहीं हुआ था. जो सात साल निकले वह केवल सड़क पहुंचाने में निकल गये. उससे आगे का जब रास्ता तय करना था तो नीतीश कुमार ने रूकावट खड़ी कर दी.
विशेष पैकेज और नीतीश कुमार
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नीतीश कुमार ने इसका स्वागत करने की बजाय एक अजीब सा रोल ले लिया. एक प्रकार का संशय, दिग्भ्रम, असम्ांजस का माहौल पूरे बिहार में खड़ा किया कि जैसे नीतीश कुमार की छवि ही बिहार की छवि बन गयी है. बिहार में अपनी छवि को ही सब कुछ मान लेना और उसी के इर्द-गिर्द विकास की रचना को बुन लेना, यह मुङो लगता है कि अहंकार है. राजनीति का सेवा भाव नहीं है.
महागंठबंधन की चुनौती
बिहार महागंठबंधन को तिलांजलि दे चुका है. आपने इसे विधान परिषद चुनाव में देखा है. यह गंठबंधन दूध में चीनी जैसा नहीं, दूध में नींबू जैसा गंठबंधन है.
मांझी और पासवान में अहम की लड़ाई
ऐसा कुछ भी नहीं है. सबकी सीटें बंट गयी हैं, उम्मीदवार तय हो गये है. कहीं कोई लड़ाई या असंतोष नहीं है.
आरक्षण पर रुख 
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और आरएसएस की ओर से बयान आ गये हैं कि हम मौजूदा आरक्षण पर पुनर्विचार नहीं कर रहे. लेकिन हम यह भी चाहते हैं कि समाज के सभी वर्गों का विकास हो. सरकार की सभी सुविधाएं मिले. संविधान ने चार तरह के आरक्षण के प्रावधान किये हैं. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, पिछड़ा वर्ग और कमजोर वर्ग. मैं लालू प्रसाद से सवाल पूछता हूं कि जिस बीपी मंडल के दस्तावेज के आधार पर उन्होंने 15 साल शासन किया, उसके हिसाब से सामाजिक और शैक्षणिक विकास के अवसर वह क्यों नहीं उपलब्ध करा पाये.   उन्होंने पिछड़े समाज के बच्चों को 15 साल में कौन से अवसर उपलब्ध कराये? क्या उन्होंने शिक्षा संस्थानों को उपर उठाया? उन्होंने कैसी शिक्षा दी? उन्होंने बस डायलॉग बोले, उसका क्या लाभ हुआ? समाज डायलॉग से आगे निकल गया है. 90 के दशक के बाद अब सूचना क्र ांति और इंटरनेट के जरिये विश्व से लोग जुड़ गये हैं. लालू प्रसाद को समझना होगा, यह नब्बे का दशक नहीं है. समाज बदल गया है. लेकिन वह लालटेन की रोशनी में ही समाज को देख रहे हैं. लालटेन से काम न चलेगा. बिहार को सूचना क्रांति की नजर से देखना होगा.
एनडीए की जीत होगी, क्योंकि..
1. लोग चाहते हैं कि बिहार में सुशासन स्थापित हो.
2. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय के नाम पर पिछड़े, अति पिछड़े और दलित व महादलितों के साथ धोखा किया है.
3. भाजपा सबका साथ-सबका विकास चाहती है. प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता का लाभ मिलेगा. वह महत्वपूर्ण कदम उठा रहे हैं.
4. बिहार केंद्र के साथ चलने वाली सरकार चाहता है, केंद्र से लड़ने वाली नहीं.
from prabhatkhabar.com





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