महाबोधि मंदिर को पुनर्प्रतिष्ठित करने में श्रीलंकाई बौद्ध भिक्षु ने खपा दिया था जीवन
बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष :
पुष्यमित्र
अगले दिन उसने अपनी डायरी में लिखा, मंदिर के एक मील के दायरे में जगह-जगह हमारे पूज्य बुद्ध की मूर्तियां भग्न अवस्था में बिखरी हुई थीं. महाबोधि मंदिर और उसके आसपास के पूरे इलाके पर एक महंत का राज चलता था. उनके मंदिर के द्वार पर दोनों तरफ बुद्ध की ध्यानमग्न मूर्तियां रखी हुई थी. महाबोधि मंदिर की देखभाल करने के लिए वहां कोई बौद्ध धर्मावलंबी नहीं था. वहां की स्थिति देखकर तत्काल मेरे मन में विचार आया कि मैं यहीं रह जाऊं और इस पवित्र स्थल की देखरेख करूं.
दरअसल, कलेक्टर और महंत द्वारा महाबोधि मंदिर के स्थानांतरण को लेकर कई बाधाओं का उल्लेख करने के पीछे एक अलग कथा थी. कुछ साल पहले 1875 में बर्मा के राजा, जो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, ने इस मंदिर के जीर्णोद्धार की पेशकश की थी. उस वक्त यह मंदिर और भी बुरी स्थिति में था. लगभग खंडहर में बदल चुका था. यहां की बुरी स्थिति का जिक्र 1812 में जाने-माने आर्कियोलॉजिस्ट डॉ बुकानन हैमिल्टन ने किया है. मगर महंत से समझौता होने में और काम के शुरू होने में वक्त लग गया. इस बीच एंग्लो-बर्मीज वॉर छिड़ गया. ऐसे में वर्मा के राजा के प्रतिनिधि लगभग एक लाख रुपये की राशि गया के जिला प्रशासन के पास छोड़ गये. फिर, मरम्मत का काम जिला प्रशासन की तरफ से ही कराया गया. इसलिए प्रशासन की उस मंदिर में खास दिलचस्पी थी.
बहरहाल, इन जटिल परिस्थितियों से अनागरिक धर्मपाल निराश नहीं हुए. उन्होंने बोधगया में दुनिया भर के बौद्ध धर्मावलंबियों को आमंत्रित किया और उन्हें यह दायित्व अपने हाथ में लेने को कहा. इस बीच, 1893 में शिकागो की विश्व धर्म सभा में भाग लेने के लिए अमेरिका गये. यह वही सभा थी, जिसमें हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने स्वामी विवेकानंद और जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करने वीरचंद गांधी गये हुए थे. अनागरिक बौद्ध धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. ये तीनों एक ही तस्वीर में साथ नजर आते हैं. शिकागो में उन्होंने बौद्ध धर्म के साथ महाबोधि मंदिर का भी जिक्र किया.
वहां से लौट कर भी उन्होंने अपना अभियान जारी रखा. इस बीच बोधगया में उनके साथियों पर हमले भी हुए. चार साल तक समझौते की कोशिश करने के बावजूद जब समाधान नहीं निकला, तो 1895 में उन्होंने जापान से लायी गौतम बुद्ध की भव्य मूर्ति मंदिर परिसर में बोधि वृक्ष के नीचे रख दी. यह देख कर महंत के लोग आग बबूला हो गये और उन्होंने मूर्ति समेत सभी बौद्धों को परिसर से बाहर निकाल दिया.
फिर मुकदमा अदालत में चला. गया की अदालत में तो धर्मपाल को जीत मिल गयी, मगर कलकत्ता हाई कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया. हालांकि, फैसले में यह स्वीकार किया गया कि यह बौद्धों की पूजन स्थली है. इस फैसले ने दुनिया भर के बौद्धों का ध्यान महाबोधि मंदिर के विवाद की तरफ आकृष्ट किया. इसके बाद उन्होंने बनारस के पंडों से भी समझौता करने की कोशिश की, मगर सफल नहीं हुए.
1906 में मुकदमे के जरिये उन्होंने अनागरिक धर्मपाल को बर्मा रेस्ट हाउस से भी हटवा दिया, मगर उनका संघर्ष जारी रहा. उन्होंने सारनाथ में भी कई कार्य किये, मगर ताउम्र उन्हें अपने मकसद में सफलता नहीं मिली. 1933 में कलकत्ता में उनकी मृत्यु हो गयी. हालांकि, लगभग 40 साल के लंबे संघर्ष के जरिये उन्होंने महाबोधि मंदिर के प्रसंग के प्रति दुनिया भर के बौद्धों को जागरूक करने और प्रेरित करने में सफलता जरूर हासिल कर ली.
यह उन्हीं की कोशिशों का नतीजा था कि आजादी के बाद 1949 में बिहार सरकार ने कानून बना कर महाबोधि मंदिर प्रबंधन कमेटी की स्थापना की. 1953 में महंत ने महाबोधि मंदिर प्रबंधन का दायित्व तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन को सौंप दिया. पहले इस समिति में चार बौद्ध और चार हिंदू होते थे. अध्यक्ष का पद हिंदू धर्मावलंबियों के लिए आरक्षित होता था. 2013 में सरकार ने कानून में बदलाव कर अध्यक्ष का पद गया के जिलाधिकारी के लिए सुनिश्चित कर दिया. फिर चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो.
हालांकि, बौद्ध इस स्थिति से संतुष्ट नहीं थे. वे चाहते हैं कि मंदिर का प्रबंधन पूरी तरह बौद्धों के हाथ में सौंप दिये जाये. अगर यह न हो, तो कम से कम समिति में बौद्धों का बहुमत तो हो. यह लंबी लड़ाई है, मगर अपने ही देश में उपेक्षित बुद्ध की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने में इस श्रीलंकाई भिक्षु अनागरिक धर्मपाल ने जो योगदान दिया है, वह अपूर्व है. आज महाबोधि मंदिर वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स में बदल चुका है, मगर लोग अनागरिक धर्मपाल को भूल गये हैं. with thanks from prabhat khabar
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