बिहार का सियासी डीएनए डी-कोड

castडॉ. कपिल शर्मा
लाइट, कैमरा, एक्शन…और एक्शन रीप्ले. बिहार के चुनावों में अगर सियासी घटनाक्रम और बयानों के सिलसिले को देखें, तो फॉमूर्ला पिछले चुनावों से अलग नहीं दिखता. कभी मौत के सौदागर वाले जुमले सुनने को मिले थे, तो इस बार नरभक्षी से लेकर ब्रह्म पिशाच जैसी उपाधियां पेशे नजर हुईं. बिहार के चुनावी मैदान में जुमलों, अलंकारों और उपमाओं का इस्तेमाल करने वाले एक से बढ़Þकर एक माहिर खिलाड़ी हाजिर हैं. लेकिन बिहार का अपना एक जातिगत सियासी डीएनए है. जिसे डी-कोड करना दिखता तो आसान है, लेकिन है नहीं. जात-पात का फेर इतना उलझा है कि जब वोट पड़ते हैं, तो विकास के वादे किनारे रखे नजर आते हैं. लेकिन इस बार बिहार का चुनावी मैदान अंदरूनी खिलाड़ियों के साथ बाहरी महारथी के साथ दिलचस्प नजर आ रहा है. पीएम मोदी बिहार में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं, लेकिन पीएम मोदी दिल्ली का सबक भूले नहीं हैं. इसीलिए जो गलती दिल्ली में की थी, उसे लगता नहीं है कि दोहराएंगे.
बिहार चुनाव में बीजेपी के पोस्टर ब्वॉय मोदी हैं, दिल्ली में भी थे, लेकिन ऐन वक्त पर किरण बेदी का चेहरा सामने ला दिया गया. बीजेपी को ए दांव उल्टा पड़ा और पार्टी चारों खाने चित्त हो गई. दिल्ली की हार में भी बिहार का चुनावी सबक छुपा है. क्योंकि ए स्थापित सत्य है कि दिल्ली हो या बिहार चुनावों में जाति की अहमियत को अनदेखा नहीं किया जा सकता. दिल्ली में दो बातें हुईं थी, किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था और बीजेपी के विज्ञापन में केजरीवाल के गोत्र को उपद्रवी बताने की गलती बीजेपी कर गई थी. दिल्ली में वैश्य और पंजाबी की राजनीति हमेशा से हावी रही थी, ऐसे में बीजेपी जाति से ऊंचा उठकर सोचने की हिम्मत बिहार में नहीं कर पाई है. सवर्णों की पार्टी कही जाने वाली पार्टी अगड़े या पिछड़े किसी को भी आगे करती, उसके लिए हालत इधर कुआं उधर खाई वाले ही थे.
बिहार में लालू का यादव का वोट बैंक मजबूत माना जाता है, तो उसके पीछे उनका यादववाद ही है. जिस पर आंच आते ही वो बिफर पड़ते हैं, इस बार समधी बन गए, तो भले ही लालू की जुबान नहीं चली, वरना जाति के वोटों के बंटवारे के लिए तो लालू मुलायम को वोट कटवा कहा करते थे. नीतीश के पास इमेज है, तो लालू के पास वोट बैंक. अगर अब धार्मिक ध्रुवीकरण की धुरी भी घूम जाए, तो फिर धार्मिक पैकेज, आर्थिक पैकेज पर भारी पड़ सकता है. कोशिश भी यही हो रही है. लालू ने अगर चुनाव को शुरु में ही अगड़ों और पिछड़ों की लड़ाई बनाने की कोशिश की, तो मकसद पीएम के आर्थिक पैकेज पर जातिगत पैकेज को हावी करना भी था.
बिहार में वोटों का बंटवारा जाति के आधार पर होता है और होगा, इससे इनकार कर पाना राजनीतिक पंडितों के लिए मुश्किल है. लालू यादवों के सबसे बड़े नेता है, ए निर्विवाद है. मुलायम वोट कटवा भी बन पाएंगे, मुश्किल है. ओवैसी मुस्लिमों के नेता बनने की कोशिश में हैं. बीजेपी ने भी रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाह के जरिए अपने जातिगत समीकरणों को मजबूत करने की पूरी कोशिश की है.66-caste
बिहार में सब विकास की बात कर रहे हैं, लेकिन सभी पार्टियों ने जातिगत जुगलबंदी करने में कमी नहीं की है. बिहार में इस बार इज्जत ही नहीं, सबकुछ दांव पर है. चुनाव खत्म होते होते भी कुछ नए समीकरण बनेंगे, कुछ बिगड़ेंगे भी, सियासी हिसाब किताब जमेगा और गड़बड़ाएगा भी. लेकिन लड़ाई इस बार अस्तित्व की भी है. खासतौर पर लालू यादव के लिए. नीतीश ने भी लालू के साथ खड़े होकर जाहिर कर ही दिया है कि उन्हें अपनी सियासी विरासत कायम रखने के लिए लालू की जात का सहारा चाहिए.
मौदी मैजिक भी कसौटी पर इसलिए है क्योंकि दिल्ली के बाद भी पीएम मोदी ने भी बिहार में अपनी साख को दांव पर लगाने से परहेज नहीं किया. पीएम मोदी जब खुद ही सीएम बनाने की लड़ाई में कूद पड़े, तो नीतीश कुमार के पास तो करो या मरो से कम कोई विकल्प मौजूद ही नहीं था. बिहार का चुनावी महाभारत दिलचस्प इसीलिए हुआ जा रहा है क्योंकि जिज्ञासा यही है कि जातिगत किलेबंदी में विकास और वादों की जुगलबंदी कितनी सेंध लगा पाती है.






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