आरक्षण खत्म किया जा रहा है और सरकार कह रही है आरक्षण जिंदाबाद!
दिलीप मंडल
करीब दो साल पर पहले जोधपुर में एक अखबार के कार्यक्रम में बीजेपी सांसद सुब्रह्मण्यन स्वामी ने कहा था कि ‘हमारी सरकार आरक्षण को पूरी तरह खत्म नहीं करेगी. ऐसा करना पागलपन होगा. लेकिन हमारी सरकार आरक्षण को उस स्तर पर पहुंचा देगी, जहां उसका होना या नहीं होना बराबर होगा. यानी आरक्षण निरर्थक हो जाएगा.’ आज आप चाहें तो सुब्रह्मण्यन स्वामी को बधाई दे सकते हैं कि आने वाले वक्त को उन्होंने बिल्कुल सही पढ़ लिया था और सही भविष्यवाणी की थी.
भर्तियों में लागू हो गई है लैटरल एंट्री
केंद्र सरकार ने नौकरशाही में बाहर के क्षेत्रों से जानकारों को लाने की एक नई प्रणाली लागू की है. जिसमें कैंडिडेट से कोई परीक्षा नहीं ली जाएगी और उनकी निय़ुक्तियों में कोई आरक्षण भी लागू नहीं होगा. यानी जिस तरह से अभी यूपीएसससी की सिविल सर्विस परीक्षा में कम से कम 50 प्रतिशत अफसर एससी-एसटी-ओबीसी कटेगरी से आते हैं, वैसा इन नियुक्तियों में नहीं होगा. इसे लैटरल एंट्री नाम दिया गया है. इस तरीके से 9 अफसर आ चुके हैं, जिन्हें ज्वायंट सेक्रेटरी के स्तर पर विभिन्न मंत्रालयों में ज्वाइन करना है. ज्वायंट सेक्रेटरी लेवल के अफसर सरकार के लिए नीतियां बनाते हैं. इसके अलावा 40 और अफसर भी डायरेक्टर और डिप्टी सेक्रेटरी स्तर पर लिए जाएंगे.
वादों में आरक्षण का समर्थन, हकीकत में आरक्षण की विरोध
बीजेपी और आरएसएस की घोषित नीति आरक्षण को बनाए रखने की है. नरेंद्र मोदी कह चुके हैं कि ‘जब तक वह जिंदा हैं तब तक बाबा साहब के आरक्षण पर कोई आंच नहीं आएगी.’ जबकि आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत का कहना है कि ‘सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए संविधान में प्रदत्त आरक्षण का आरएसएस पूरी तरह समर्थन करता है. आरक्षण कब तक दिया जाना चाहिए, यह निर्णय वही लोग करें, जिनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है. जब उन्हें लगे कि यह जरूरी नहीं है, तो वे इसका निर्णय लें.’
नौकरशाही में लैटरल एंट्री
लेकिन इन बयानों से परे नरेंद्र मोदी शासन में तीन ऐसी चीजें हो रही है, जिससे आरक्षण का प्रावधान काफी कमजोर हो जाएगा और सुब्रह्मण्यन स्वामी के शब्दों में ‘निरर्थक’ हो जाएगा.
लैटरल एंट्री में रिजर्वेशन के संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने की व्यवस्था नहीं है. इंडियन एक्सप्रेस के श्यामलाल यादव ने जब कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्रालय से सूचना के अधिकार के तहत ये पूछा कि लैटरल एंट्री में रिजर्वेशन है या नहीं, तो मंत्रालय ने जवाब में कहा कि ‘इस योजना के तहत जो पद भरे जाने हैं, वे एकल पद हैं और चूंकि एकल पद में रिजर्वेशन लागू नहीं होता, इसलिए इन नियुक्तियों में रिजर्वेशन नहीं दिया गया है.’
सरकारी नौकरियों में कटौती
यूपीएससी से सेंट्रल सिविल सर्विस के लिए हो रहे सलेक्शन की संख्या लगातर गिरती जा रही है. दिप्रिंट की सान्या ढींगरा ने खबर दी थी कि ‘2014 में यूपीएससी ने 1,236 अफसरों के नाम नियुक्तियों के लिए सरकार के पास भेजे थे. 2018 में ये संख्या घटकर 759 रह गई.’ कम नियुक्तियों का मतलब है कोटा से कम कैंडिडेट का आना. चूंकि आरक्षण सिर्फ सरकारी नौकरियों में है, इसलिए सरकारी नौकरियों में कटौती का मतलब आरक्षण का कमजोर होना भी है.
सरकारी कंपनियों का निजीकरण और सिंकुड़ता आरक्षण
सेना को छोड़ दें तो देश में लगभग डेढ़ करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं. इनमें से 11.30 लाख कर्मचारी और अफसर केंद्र सरकार के उपक्रमों यानी सेंट्रल पीएसयू में हैं. केंद्र सरकार नीति आयोग की सलाह पर 42 पीएसयू को बेचने या उन्हें बंद करने पर विचार कर रही है. हालांकि पीएसयू की खासकर वित्तीय बदइंतजामी और उनका घाटे में होना एक वाजिब समस्या है और इसका समाधान खोजा जाना चाहिए. लेकिन साथ में इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे देश में नौकरियों के प्रमुख स्रोत भी हैं. पीएसयू की नौकरियों में आरक्षण लागू है. लेकिन, निजी हाथ में बिकते ही पीएसयू का मालिकाना चरित्र बदल जाता है और वहां आरक्षण बंद हो जाता है. क्या सरकार ऐसा कोई बंदोबस्त कर रही है कि किसी कंपनी के बिक जाने पर भी वहां नियुक्तियों में रिजर्वेशन लागू रहे? इस बारे में कभी कोई चर्चा भी नहीं हुई है. और फिर भारत न अमेरिका है और न ही फ्रांस, ब्रिटेन या कनाडा कि निजी क्षेत्र खुद ही डायवर्सिटी का ख्याल रिक्रूटमेंट के दौरान रखे.
प्रोफेसर सुखदेव थोराट और पॉल अटवेल ने भारत में निजी क्षेत्र की नौकरियों में भेदभाव के चरित्र को समझने के लिए एक अध्ययन किया था. इसके तहत अखबारों में निजी कंपनियों के जो विज्ञापन आए थे, उनके जवाब में एक ही जैसे बायोडाटा अलग-अलग जातिसूचक, धर्मसूचक नाम के साथ कंपनियों को भेजे गए. ये पाया गया कि अगर आवेदक का नाम/सरनेम हिंदू सवर्णों वाला है तो उसे इंटरव्यू के लिए बुलाए जाने के चांस ज्यादा हैं. एक जैसे बायोडाटा भेजने पर, 100 सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले सिर्फ 60 दलितों और 30 मुसलमानों को ही इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. इससे पता चलता है कि नौकरियां देने के मामले में सामाजिक पृष्ठभूमि की भूमिका होती है. बेशक कॉरपोरेट सेक्टर कहता रहे कि वे तो सिर्फ मेरिट देख कर नौकरियां देते हैं.
इसे देखते हुए यूपीए सरकार के समय में निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रस्ताव आया था. लेकिन उद्योग और कारोबार संगठनों ने इसका विरोध किया और सरकार को प्रस्ताव दिया कि वंचित तबकों को हुनर सिखाने और शिक्षित करने में वे भी सहयोग करेंगे. कहना मुश्किल है कि निजी कंपनियों ने इस दिशा में कितना काम किया है. निजी क्षेत्र में आरक्षण के बारे में पिछली एनडीए सरकार का ये कहना था कि इस बारे में संबंधित पक्षों की आम सहमति नहीं बन पाई है.
संविधान में आरक्षण का प्रावधान
आने वाले समय में ऐसा हो सकता है कि चौतरफा हमलों के बीच आरक्षण खत्म हो जाए या कमजोर पड़ जाए. ऐसे में ये जानना उपयोगी होगा कि संविधान आरक्षण को लेकर क्या कहता है.
अनुच्छेद15 (4) – इस अनुच्छेद (15) की या अनुच्छेद 29 के खण्ड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिये या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबन्ध करने से नहीं रोकेगी.
अनुच्छेद16 (4) – इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से नहीं रोकेगी.
अनुच्छेद 46– राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, खासकर, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से आगे बढ़ाएगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उसकी रक्षा करेगा.
अनुच्छेद 335 – संघ या किसी राज्य के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियाँ करने में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा.
इनमें से अनुच्छेद 15 और 16 को संशोधित करके अब तक अनारक्षित रहे गए सामाजिक समूह के गरीबों यानी सवर्ण ईडबल्यूएस को आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है. इसके लिए गरीबी की एक परिभाषा बनाई गई है. इस संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और मामला वहां लंबित है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो भारतीय संविधान समानता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि जाति, लिंग, धर्म आदि के आधार पर हर व्यक्ति समान नहीं है और इस भेदभाव को स्वीकार करते हुए वंचित समूहों को लिए अलग से प्रावधान किए गए हैं. आरक्षण का अधार यही सिद्धांत है कि समूहों के सदस्य के तौर पर हर व्यक्ति समान नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज पी.बी. सावंत इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ‘अगर समाज के हर तबके के पास समानता की स्थिति का फायदा उठाने की क्षमता और संसाधन न हो तो समानता का अधिकार वंचित तबकों के लिए क्रूर मजाक बन जाएगा. संविधान में जो विशेष प्रावधान है, उनका मकसद राज्य को इस बात के लिए सक्षम बनाना है कि वह वंचितों को इन फायदों का लाभ उठाने के काबिल बनाए, जो अन्यथा इनका लाभ नहीं उठा पाते.’
मौजूदा स्थितियों में आरक्षण
अगर हम नौकरियों की घटती संख्या, सरकारी क्षेत्र के निजीकरण और नौकरशाही में हो रही लैटरल एंट्री में आरक्षण की अनदेखी को मिलाकर देखें तो ये कहा जा सकता है कि वास्तव में आरक्षण ऐसी स्थिति में पहुंच रहा है, जहां इसके होने या नहीं होने में खास अंतर नहीं रह जाएगा. ये इसलिए भी ज्यादा चिंताजनक है. क्योंकि सरकार खुद भी मानती है कि नौकरशाही के उच्च पदों पर वंचित समूहों के लोग काफी कम हैं. मिसाल के तौर पर पिछली सरकार में कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के मंत्री जितेंद्र सिंह ने 2017 में सूचना दी थी कि केंद्र सरकार में डायरेक्टर से और उससे ऊपर के कुल 747 पदों में से एससी अफसर सिर्फ 60 और एसटी अफसर सिर्फ 24 हैं.
ऐसे में सरकार ने वंचित तबकों को सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के अपने संवैधानिक दायित्व (अनुच्छेद 16-4) को पूरा करने की जगह एक ऐसी नीति पर चलने का फैसला किया है, जिससे उनका प्रतिनिधित्व और कम हो जाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख उनके निजी विचार हैं)
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