न तो वह बाबरी मस्जिद थी और ना बाबर ने मंदिर तोड़ा था – किशोर कुणाल
बाबरी मस्जिद – राम जन्मभूमि विवाद से जुड़ा कोई व्यक्ति जो ख़ुद को सनातनी हिन्दू मानता हो और विवादित स्थान पर राम के मंदिर का निर्माण चाहता हो ताकि वो सरयू में स्नान कर वहां पूजापाठ कर सके। वह पांच छह साल के गहन अध्ययन के बाद, तमाम दस्तावेज़ों को जुटाते हुए अपने हाथों से 700 पन्ने की किताब लिखे और उस किताब में बाबर को अच्छा बताया जाए और कहा जाए कि जो मस्जिद गिराई गई वह बाबरी मस्जिद नहीं थी तो उस पढ़ते हुए आप तय नहीं कर पाते कि यह किताब बाबरी मस्जिद ध्वंस की सियासत पर तमाचा है या उन भोले लोगों पर जो नेताओं के दावों को इतिहास समझ लेते हैं।
Ayodhya Revisited नाम से किशोर कुणाल ने जो किताब लिखी है उसकी मंशा साफ है। वहां मंदिर बने लेकिन अयोध्या को लेकर जो ग़लत ऐतिहासिक व्याख्या हो रही है वह भी न हो। लेकिन क्या एक किताब चाहे वो सही ही क्यों न हो, दशकों तक बाबरी मस्जिद के नाम पर फैलाई गई ज़हर का असर कम कर सकती है? बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद सिर्फ मंदिर-मस्जिद का विवाद नहीं है। इसके बहाने भारत के नागरिकों के एक बड़े हिस्से को बाबर से जोड़ कर मुल्क के प्रति उनकी निष्ठा और संवैधानिक दावेदारियों को खारिज करने का प्रयास किया गया है। अच्छा हुआ यह किताब किसी मार्क्सवादी इतिहासकार ने नहीं लिखी है। किशोर कुणाल ने लिखी है जिनकी सादगी, धार्मिकता और विद्वता पर विश्व हिन्दू परिषद और संघ परिवार के लोग भी संदेह नहीं कर सकते। इस किताब को बारीकी से पढ़ा जाना चाहिए। मैं आपके लिए सिर्फ सार रूप पेश कर रहा हूं। यह चेतावनी ज़रूरी है क्योंकि इस मसले पर कोई पढ़ना नहीं चाहता, सब लड़ना चाहते हैं।
Ayodhya Revisited का फॉर्वर्ड सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायधीश जस्टिस जे बी पटनायक ने लिखा है। इसके तीन चैप्टरों के मुखड़े इस विवाद के न जाने कितने मुखौटे उतार देते हैं। इसके तीसरे चैप्टर का मुखड़ा है – Babur was not a religious fanatic, चौथे चैप्टर का मुखड़ा है – Babur had no role either in the demolition of any temple at Ayodhya or in the construction of mosque और पांचवे चैप्टर का मुखड़ा – Inscriptions on the structure were fake and fictitious.
मार्क्सवादी इतिहासकार स्व. राम शरण शर्मा के विद्यार्थी रहे किशोर कुणाल का कहना है कि इस विवाद में इतिहास का बहुत नुकसान हुआ है। वह इस ज़हरीले विवाद से अयोध्या के इतिहास को बचाना चाहते हैं। उनके अनुसार मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी सही साक्ष्य नहीं रखे और सही व्याख्या नहीं की है। बाकी मंदिर समर्थकों ने तो ख़ैर इतिहास को इतिहास ही नहीं समझा। झूठे तथ्यों को ऐतिहासिक बताने की दावेदारी करते रहे।
‘मैं पिछले दो दशकों से ऐतिहासिक तथ्यों की झूठी और भ्रामक व्याख्या के कारण अयोध्या के वास्तविक इतिहास की मौत का मूक दर्शक बना हुआ हूं। नब्बे के दशक के शुरूआती वर्षों में हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच एक वार्ताकार के रूप में मैंने अपना कर्तव्य निष्ठा के साथ निभाया लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में चल रही सुनवाई के आख़िरी चरणों में मुझे लगा कि अयोध्या विवाद में हस्तक्षेप करना चाहिए और मैंने इस थीसीस को तैयार किया।’
किशोर कुणाल ने अपनी किताब में बताया है कि कैसे विश्व हिन्दू परिषद के इतिहासकारों ने बहादुर शाह आलमगीर की अनाम बेटी की लिखित किताब बहादुर शाही को साक्ष्य बनाने का प्रयास किया। जबकि औरंगज़ेब के बेटे बहादुर शाह को कभी आलमगीर का ख़िताब ही नहीं मिला। बहादुर शाह की एक बेटी थी जो बहुत पहले मर चुकी थी। मिर्ज़ा जान इस किताब के बारे में दावा करता है कि उसने इस किताब के कुछ अंश सुलेमान शिकोह के बेटे की लाइब्रेरी में रखी एक किताब से लिए हैं। कुणाल दावा करते हैं कि सुलेमान शिकोह का कोई बेटा ही नहीं था। मिर्जा जान ने 1855 में एक किताब लिखी है वो इतनी भड़काऊ थी कि उसे ब्रिटिश हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था। कुणाल बराबरी से विश्व हिन्दू परिषद और मार्क्सवादी इतिहासकारों की गड़बड़ियों को उजागर करते हैं।
उन्होंने बताया है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों का दावा ग़लत था कि दशरथ जातक में राम सीता को भाई बहन बताया गया है। कुणाल साक्ष्यों को रखते हुए कहते हैं कि शुरूआती बौद्ध टेक्स्ट में राम को आदर के साथ याद किया गया है। कहीं अनादर नहीं हुआ है। उनका कहना है कि जातक कथाओं के गाथा हिस्से के बारीक अध्ययन से साबित होता है कि राम के बारे में कुछ आपत्तिजनक नहीं है। उन्होंने बी एन पांडे के कुछ दावों को भी चुनौती दी है। कुणाल ने मार्क्सवादी इतिहासकारों की आलोचना स्थापित इतिहासकार कहकर की है जिन्होंने असहमति या सत्य के के किसी भी दावे को स्वीकार नहीं किया । कुणाल ने विश्व हिन्दू परिषद के समर्थक इतिहासकारों के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘मैं इन्हें राष्ट्रवादी या रूढ़ीवादी इतिहासकार की जगह उत्साही इतिहासकार कहना पसंद करता हूं।’ वैसे इस किताब में कार्ल मार्क्स का भी ज़िक्र है और वह भी अच्छे संदर्भ में !
कुणाल बताते हैं कि सोमनाथ में मंदिर तोड़ने और लूट पाट के बाद भी वहां के शैव पशुपताचार्या ने मस्जिद का निर्माण करवाया बल्कि आस पास दुकानें भी बनवाईं ताकि व्यापार और हज के लिए जाने वाले मुसलमानों को दिक्कत न हो। वहीं वे कहते हैं कि कई पाठकों के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होगा कि 1949 में निर्जन मस्जिद में राम लला की मूर्ति रखने वाले बाबा अभिरामदासजी को 1955 में बाराबंकी के एक मुस्लिम ज़मींदार क़य्यूम किदवई ने 50 एकड़ ज़मीन दान दी थी। कुणाल बताते हैं कि इन विवादों से स्थानीय स्तर पर दोनों समुदायों में दूरी नहीं बढ़ी। वे एक दूसरे से अलग-थलग नहीं हुए।
मंदिर निर्माण की धारा से जुड़े किसी व्यक्ति का यह कहना कि ‘बाबर निर्दोष था। उसके खिलाफ उस अपराध के लिए दशकों तक नफ़रत फैलाई गई जो उसने की ही नहीं’ कोई मामूली बात नहीं है। कुणाल बाबर को उदारवादी और बेख़ौफ़ योद्धा कहते हैं। हम आप जानते हैं कि मौजूदा राजनीति में बाबर का नाम लेते ही किस किस तरह की बातें ज़हन में उभर आती हैं। क्या वे संगठन और नेता कुणाल के इन दावों को पचा पायेंगे जिन्होंने ‘बाबरी की औलादों’ कहते हुए अनगिनत भड़काऊ तकरीरें की थीं? बाबरी मस्जिद ध्वंस के पहले और बाद में ज़माने तक पानी नहीं ख़ून बहा है।
कुणाल ने अयोध्या का बड़ा ही दिलचस्प इतिहास लिखा है। पढ़ने लायक है। कुणाल के अयोध्या में सिर्फ राम नहीं हैं, रहीम भी हैं। अयोघ्या के इतिहास को बचाने और बाबर को निर्दोष बताने में कुणाल ने अपनी ज़िंदगी के कई साल अभिलेखागारों में लगा दिये लेकिन साक्ष्यों को तोड़ने मरोड़ने वाली राजनीति इस सनातनी रामानन्दी इतिहासकार की किताब को कैसे स्वीकार करेगी। उनकी इस किताब को पढ़ते हुए यही सोच रहा हूं कि कुणाल के अनुसार बाबर ने मंदिर नहीं तोड़ा, वह बाबरी मस्जिद नहीं थी लेकिन अयोध्या के इतिहास को जिन लोगों ने ध्वस्त किया वे कौन थे बल्कि वे कौन हैं। वे आज कहां हैं और अयोध्या कहां है??
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