नरेन्द्र मोदी को मंत्रिमंडल से क्या काम?

संजय तिवारी  
नरेन्द्र मोदी भारत को प्राप्त अब तक के सबसे सक्रिय और महाबली प्रधानमंत्री हैं। उनके भीतर असीमित उर्जा का भंडार छिपा हुआ है। यह असीम उर्जा वो अपने भीतर कहां से लाते हैं वो तो नहीं बताते लेकिन उनके काम काज से साबित होता है कि सवा सौ करोड़ आबादी वाले देश के लिए वो अकेले ही काफी हैं। उन्हें न पार्टी चाहिए और सहयोगी नेता। जो चाहिए वह है नौकरशाहों की एक टीम जिसके सहारे वो अपनी योजनाओं को लागू कर सकें। उनके प्रधानमंत्री रहते तीन साल के काम काज का आंकलन करेंगे तो पायेंगे कि सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं चलाते। बाकी सभी मंत्रालय भी वही चलाते हैं और प्रधानमंत्री होने के साथ साथ बाकी मंत्रालयों के प्रभारी मंत्री भी वही हैं।
उनके काम करने का सामान्य सा फार्मूला दिखता है। किसी योग्य व्यक्ति को वहां जगह मत दो, जहां उसकी उपयोगिता सबसे ज्यादा हो। आप सोचेंगे ऐसा कैसे हो सकता है? लोग तो उस योग्य व्यक्ति को वहीं जगह देते हैं जहां वह सबसे बेहतर प्रदर्शन कर सके। लेकिन मोदी ऐसा नहीं करते। वो योग्य व्यक्ति का चुनाव करते हैं और उसे अयोग्य जगह पर बिठा देते हैं। इससे मंत्रालय पर मोदी का प्रभुत्व कायम रहता है और वो जैसा चाहते हैं वैसा काम होता है। मसलन, सुषमा स्वराज का दूर दूर तक विदेश नीति से कभी कोई वास्ता नहीं रहा है लेकिन उन्होंने सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री बनाया। सुषमा स्वराज “सफल” भी हैं। लेकिन अगर कोई विदेश नीति में सुषमा स्वराज के योगदान को देखे तो सिर्फ दो काम दिखाई पड़ता है। एक, वो दुनियाभर में जरूरतमंद लोगों को भारत का वीजा बांटती हैं और दूसरा, इसकी सूचना ट्विटर पर देती हैं। एक विदेश मंत्री के रूप में इससे अधिक उनका विदेश नीति में कोई “हस्तक्षेप” या योगदान दिखाई सुनाई नहीं देता। उनका योगदान हो भी नहीं सकता क्योंकि विदेश मंत्रालय मोदी चलाते हैं। और वो सफल भी हैं।
इसी तरह पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह जो रक्षा मंत्रालय में बेहतर काम कर सकते थे, विदेश मंत्रालय में एनआरआई विभाग संभालते हैं। हर्षवर्धन जो कि एक ख्यातनाम डॉक्टर रहे हैं उन्हें स्वास्थ्य विभाग देकर छीन लिया गया। उनकी जगह स्वास्थ्य निरक्षर जेपी नड्डा को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया और डॉ हर्षवर्धन को विज्ञान प्रौद्योगिकी के साथ साथ पर्यावरण ठीक करने का जिम्मा दे दिया गया है। कुछ मंत्रियों को छोड़ दें तो मोदी का पूरा मंत्रिमंडल ऐसे ही बेमेल किस्सों से भरा पड़ा है। ताजा फेरबदल के बाद भी वही क्रम दोहराया गया है। निर्मला सीतारमण को रक्षा मंत्रालय देकर उन्होंने महिला हितैषी होने की वाहवाही तो लूट ली लेकिन कोई पूछना चाहेगा कि ब्यूरोक्रेटिक बैकग्राउण्ड से संबंध रखनेवाली निर्मला सीतारामन की वित्तीय और व्यापारिक समझ का रक्षा मंत्रालय में क्या काम? जो लोग रक्षा मंत्रालय को अब देश की रक्षा करनेवाला मंत्रालय समझते रहे हैं उनकी समझ में यह बात नहीं आयेगी। मोदी के लिए रक्षा मंत्रालय व्यापार और रोजगार पैदा करने का बहुत बड़ा केन्द्र है। इस वक्त रक्षा मंत्रालय में बहुत बड़े स्तर पर उपकरणों की खरीद और आधुनिकीकरण का काम चल रहा है, इसलिए सीतारामन जैसी व्यापारिक सूझ बूझ वाली महिला को यह मंत्रालय सौंपा गया है। इसी तरह गंगा मंत्रालय उमा भारती से लेकर नितिन गड़करी को सौंप दिया गया। गंगा मंत्रालय के तहत जितनी बड़ी परियोजनाएं लगनी थीं उसमें उमा भारती का प्रदर्शन खराब रहा तो बड़ी योजनाओं के बादशाह नितिन गड़करी को वह मंत्रालय पकड़ा दिया गया।
मोदी के मंत्रिमंडल की अनोखी कहानियां यहीं खत्म नहीं होती। मुंबई पुलिस के कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया यह तो समझ आता है लेकिन पुलिस बैकग्राउण्ड वाले सत्य प्रकाश सिंह को मानव संसाधन विकास मंत्रालय दे दिया गया, यह बात समझ से परे है। इसी तरह गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले विदेश विभाग के पूर्व नौकरशाह हरदीप सिंह पुरी को मंत्रालय में लाया गया तो लगा उन्हें विदेश मंत्रालय में खपाया जाएगा लेकिन उन्हे शहरी विकास मंत्रालय दे दिया गया। आडवाणी को रथयात्रा में गिरफ्तार करनेवाले और यूपीए सरकार में हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा छोड़नेवाले पूर्व नौकरशाह आरके सिंह को न सिर्फ स्वतंत्र प्रभार का मंत्री बनाया गया बल्कि उर्जा मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण विभाग दे दिया गया।
जाहिर है मोदी अपने मंत्रिमंडल का चुनाव करते समय परंपरागत पद्धतियों का इस्तेमाल नहीं करते। वो यह नहीं देखते कि किसको मंत्री बनाने से किस प्रकार का क्षेत्रीय संतुलन या असंतुन होगा। वो यह भी नहीं देखते कि जिसे वो मंत्री बना रहे हैं वह संबंधित क्षेत्र की समझ रखता है या नहीं रखता है। उन्हें इस बात से भी कोई मतलब नहीं कि मंत्री के रूप में वो जिसका चुनाव कर रहे हैं वह किसी सदन का सदस्य है भी या नहीं। वो राजनीति और काम के बीच एक संतुलन साधने की कोशिश करते हैं। ऐसा तो नहीं कह सकते कि वो राजनीतिक मजबूरियों को पूरी तरह दरकिनार कर देते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि राजनीतिक मजबूरियों के आगे घुटने टेक देते हैं। राजनीतिक संतुलन बनाने में उनके इकलौते सलाहकार अमित शाह उन्हें जो सलाह देते वह मान लेते हैं, बाकी अपनी इच्छानुसार मंत्रिमंडल बनाते और चलाते हैं।
मोदी एक बात जानते हैं कि वो जिन्हें मंत्री बना रहे हैं उनके नाम पर उन्हें वोटो का कोई संतुलन नहीं बनाना है। वोट मोदी के नाम पर मिलते हैं और चुनाव आते आते मोदी फिर मोदी को ही लेकर मैदान में उतरनेवाले हैं। ऐसे में मंत्रिमंडल का होना न होना कोई मतलब नहीं रखता। मंत्रिमंडल पर पीएमओ में तैनात अधिकारी निगरानी रखते हैं और हर महत्वपूर्ण योजना की समीक्षा करते हैं। इसलिए मंत्रिमंडल छोटा बड़ा हो कि बिल्कुल न हो, इससे मोदी के काम काज पर कोई खास असर नहीं पड़ता। बीजेपी के नेता मोदी के लिए ताश के उन पत्तों की तरह हैं जिन्हें वो जब चाहें, जैसे चाहें फेट सकते हैं। इसलिए कौन मंत्री बनता है और कौन हटता है इससे भी मोदी की छवि को कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। मोदी जानते हैं कि जहां वो होते हैं, वहां सिर्फ वो ही होते हैं। किसी और के होने की जगह नहीं होती है।






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