दलित राजनीति और वामपंथ

रतन लाल
भारत में एक व्यक्ति ‘बहु-पहचान’ (multi-identity) के साथ जन्म लेता है, जिसमें सबसे प्रमुख पहचान जाति होती है. ‘जाति’ जन्मना है और ‘वर्ग’ कर्मणा. धर्म, क्षेत्र, राष्ट्रीयता, भाषा, वर्ग इत्यादि बदला जा सकता है, पर जाति नहीं. गर्व-धारण से लेकर देहावसान तक जाति बनी रहती.
जब दलित राजनीति की बात आती है तब बरबस वामपंथ की भी याद आ जाती है. कारण, दोनों बदलाव की राजनीति में विश्वास करते हैं – वामपंथ वर्गविहीन समाज की स्थापना में विश्वास करती है और दलित राजनीति वर्ण और जाति विहीन समाज की स्थापना में!
भारत में वामपंथ अपने के जन्म के समय से ही सैद्धांतिक द्वन्द से गुजरा है – विशेष रूप से जाति और महिला के प्रश्न को लेकर. सैद्धांतिक रूप से वामपंथी राजनीति का प्राथमिक अंतर्विरोध वर्ग है, बाकी सब सेकेंडरी अंतर्विरोध हैं. आरोप यह भी है कि वर्गविहीन समाज की स्थापना में विश्वास करने वाले ‘वामपंथ’ का नेतृत्व अमूमन पुरुष और सवर्णवादी है और जहाँ-जहाँ वामपंथ की सरकारें रही हैं, सामाजिक विविधता के प्रश्न और प्रतिनिधित्व की घोर उपेक्षा हुई है.
बहरहाल, वर्ग और जाति की अवधारणा में एक धुंधली सी रेखा है, यदि गौर से देखा जाय तो ज्यादातर सर्वहारा दलित हैं या फिर ज्यादातर दलित सर्वहारा हैं, अर्थात् Caste+Class = Clast बनता है. ‘क्लास्ट’ पूरी अवधारणा को समग्रता में समझे जाने की जरुरत थी. क्या ‘वामपंथ’ से सैद्धांतिक चुक हुई. एक प्रश्न तो बनता ही है कि अपने तकरीबन सौ वर्षों की ‘क्रांति-यात्रा’ में वे एक भी ऐसा दलित विचारक और राजनेता नहीं बना पाए जो पूँजी, जाति और वर्ग की अवधारणा को बखूबी समझता हो, पोलित ब्यूरो का सदस्य हो, और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात रखने में सक्षम हो. यदि ऐसा है तो इसे सैद्धांतिक पराजय के रूप में स्वीकार करने में कोई हर्ज़ नहीं है. आंबेडकर को बुर्जुआ नेता साबित करने में वामपंथ ने काफी समय नष्ट किया.
यह समझे जाने की जरुरत है कि यह अकारण नहीं था कि डॉ. आम्बेडकर ने अपनी पार्टी का नाम Independent Labour Party रखा था. अर्थात् आंबेडकर ‘क्लास्ट’ के मायने बखूबी समझ रहे थे. लेकिन भारतीय राजनीति की परंपरागत सोच, आंबेडकर को अस्मिता की राजनीति से बाहर समझने का प्रयास ही नहीं किया. अस्मिता आधारित दलों का उदय ही भारत में वामपंथ सैद्धांतिक पराजय का प्रतीक है. लेकिन अस्मिता आधारित राजनीति में कहीं-न-कहीं ठोस वैचारिक आधार का आभाव दिखता है. अस्मिता आधारित ज्यादातर पार्टियाँ या तो अपनी-अपनी जातियों तक सिमट कर रह गईं हैं और व्यक्तिगत ‘सफलता’ की लालसा में फंस कर रह गई है.
रोहिथ की ‘आत्म-हत्या’, उना और सहारनपुर जैसी घटनाओं ने सांस्थानिक दलित उत्पीड़न और दलित राजनीति एक गंभीर बहस का विषय बना दिया. इन घटनाओं पर एकाध छोड़कर अमूमन सारे दलित नेता घिघियाते या सनातनी चुप्पी साधे दिखे. मायावती का विलम्ब से सहारनपुर दौरा और वहां उनका भाषण बेहद निराशाजनक रहा, लगा दो बच्चों के बीच क्रिकेट मैच के झगड़े में पंचायत करने गईं हो. बहुजन से सर्वजन में रूपांतरण सिर्फ शब्दों या प्रतीकों का रूपांतरण ही नहीं बल्कि राजनीतिक मूल्यों के रूपांतरण का प्रतीक है. यह तो पुछा जाना लाजिमी है कि यदि सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय है तो फिर राजनीतिक ‘शत्रु’ कौन हैं.
संस्थानिक दमन, हिंसा, सार्वजानिक संस्थाओं में भेदभाव इत्यादि मसलों पर वर्तमान दलित नेताओं की चुप्पी पर दलित वर्ग (विशेष रूप से युवा वर्ग) ने न सिर्फ वर्तमान राजनीतिक शैली परन्तु फिर दलित नेतृत्व और दलित राजनीति पर भी गंभीर सवाल खड़ा करना शुरू कर दिया है. २१ मई को जंतर मंतर पर स्वतः स्फूर्त तरीके से अप्रत्याशित संख्या में लोगों का इकट्ठा होना अकारण नहीं था, जिसमें ज्यादातर युवा थे. पिछले दो दशकों में युवा पीढ़ी में आंबेडकर के विचारों को लेकर गंभीर बहस और अध्ययन की शुरुआत हुई है. पूना पैक्ट की चर्चा भी गर्म है और इस बात की समीक्षा भी जा रही है कि पूना पैक्ट से उत्पन्न दलित नेतृत्व घुटनाटेक, रीढ़विहीन और चुप्पे ही रहेंगे. और यहाँ तक कि अब कई सामाजिक राजनीतिक संगठन पूना पैक्ट को ख़त्म को ख़त्म करने की मांग तेज़ी से करने लगे हैं.
दलित राजनीति को लेकर एक चर्चा अवश्य मिलती है – आन्दोलन में बिखराव! लोग कहते मिलेंगे, दलित राजनीति में बिखराव आया है, इसीलिए दलितों की दुर्गति है. वाकई दलित आन्दोलन एक प्रगतिशील आन्दोलन है और कोई भी प्रगतिशील आन्दोलन ‘मूढ़’, ‘एकांगी’ और ‘भेड़-वर्गीय’ नहीं हो सकता. सुदृढ़ एकता (Absolute Unity) तो चोरों, डकैतों, रुढ़िवादियों और परम्परावादियों में ही संभव है – वैसे लोग जो दूसरे के उत्पादन पर अपना ‘अधिकार’ बनाए रखना चाहते हैं. यदि उनमे चट्टानी एकता नहीं रही तो वे अपने परंपरागत और अवैध अधिकारों की रक्षा कैसे करेंगे?
दलित आन्दोलन के बिखराव में भी एक तरह की वैचारिक बहुलता देखी जा सकती है. यह जरुर है कि व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति ने आन्दोलन को कमजोर जरुर किया है. लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि आन्दोलन की धारा क्या हो? जाहिर है कुछ लोग ‘हिंदुत्व’ के मार्ग से दलित आन्दोलन को आगे ले जाना चाहेंगे, कुछ वामपंथ, कुछ अति-वामपंथ, कुछ कांग्रेस, कुछ समाजवाद, कुछ लोग अम्बेडकरवाद, तो कुछ लोग अम्बेडकरवादी-मार्क्सवादी विचारधारा के द्वारा. इस तरह की वैचारिक बहुलता दुनिया के हर आन्दोलनों के इतिहास में देखी जा सकती है. लेकिन इन विभिन्न विचारधाराओं में सफल वही होता है जो समाज के तात्कालिक और दूरगामी जरूरतों को समझ पाए और अपनी विचारधारा से जनता को कनेक्ट कर पाए.
दलित राजनीति और वामपंथ में एक खास समानता है – दोनों परिवर्तन और शोषण मुक्त समाज बनाने की राजनीति में विश्वास करते हैं. इसलिए इन्हें अंतर्विरोधी तो कतई नहीं कहा जा सकता. अब जरुरत है Clast की अवधारणा को समग्रता में समझने की. इसलिए वामपंथियों को थोड़ा अम्बेडकरवादी होना पड़ेगा और अम्बेडकरवादियों को थोड़ा वामपंथी – जरुरत है, जय और लाल सलाम को ज़मीन पर उतारने की. (रतन लाल, एसोसिएट प्रोफेसर इतिहास विभाग, हिन्दू कॉलेज ,दिल्ली विश्वविद्यालय )






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