ये जो अंजना ओम कश्यप हैं…

Jayant Jigyasu, SanJay Yadav के साथ है.
शिवपाल जी को ऐसा नहीं बोलना चाहिए था, यह हमारा मानना है। साथ ही, ‘बिहार-युपी लुटवाने पे आमादा’ अंजना को क्या इस तरह की भद्दी व ओछी बातें करनी चाहिए? क्या सियासत और संवादपालिका का यह लिजलिजा स्वरूप गंभीरता के क्षयकाल का संकेत दे रहा है?
यह सवाल किस विषखोपड़ी की उपज है कि “यादव के लड़के… राहुल से ‘अड़’ के खेल बिगाड़ेंगे?” यादवों ने इन हरामखोरों का खेत चरा लिया है क्या? किसी जातिविशेष को डेमनाइज़ करने का हक़ किसने दे दिया है?
न्यायपालिका गाय-भैंस चराने के तजुर्बे के चलते ओपन जेल में रहने और ठंड लगने पर तबला बजाने का सूत्र समझाती है। किस युग में लेके जाना चाहते हो हमें? हमने लाठी से लेकर लैपटॉप तक का सफ़र तय किया है। मत भूलो कि हम अपनी जड़ों से कटे नहीं हैं। “लाठी घुमावन, तेल पिलावन” करते हमें देर नहीं लगेगी।
निर्लज्जो और बेहयाओ! कभी ये चलाते हो कि चितपावन बाभन या दत्तात्रेय बिरहमन 24 कैरटिया भूमिहार से मिलके किसका खेल बिगाड़ेंगे?
कब चयनित प्रश्नाकुलता का मुजाहिरा करना छोड़ कर यह सवाल करोगे कि युपी-बिहार के बाभन-भूमिहार किसको भोट करेंगे?
यह कोई पहली बार नहीं है जब ब्रह्ममीडिया ने ऐसी बेशर्मी व असीमित कुंठा की उल्टी की हो। 2015 में भी प्रभाष जोशी की परंपरा के पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी
नीतीश कुमार से एक साक्षात्कार में कहते हैं, “एक बात तो है नीतीश जी, बिहार में अब यादवों से तो डर लगने लगा है”। हमेशा येन-केन-प्रकारेण सबसे तेज़ होने की जुगत में लगे रहने वाले इस घोर जातिवादी व अतिसरलीकरण के शिकार शख़्स को एक जातिविशेष को निशाना बनाकर बदनाम करने का हक़ संविधान की किस धारा ने दिया है? पत्रकारिता करते हैं कि अपनी कुंठा का प्रदर्शन, या फिर बेहयाई का प्रस्तुतीकरण ?
द्रष्टव्य: माफ़ी, ‘हरामखोर’ से अधिक उपयुक्त लफ्ज़ फिलहाल ब्रह्मडिक्शनरी में मौजूद नहीं है।
(Jayant Jigyasu के फेसबुक timeline से साभार )
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