हिन्दीमय हो रहा पूर्वोत्तर भारत

अवधेश कुमार ‘अवध’
भारत बहुआयामी विविधता का सामासिक संगम है | तकरीबन 171 भाषाओं और 544 बोलियों के साथ 125 करोड़ आबादी वाला हमारा देश कश्मीर से कन्याकुमारी एवं कच्छ से अरुणाचल तक फैला हुआ है |संविधान सभा ने संविधान बनाते समय राष्ट्भाषा के सम्यक् चयन के लिए 71 सदस्यों की एक समिति गठित की थी जिसके आधे सदस्य हिन्दी विरोधी थे। आधे समर्थक और आधे विरोधी सदस्यों ने हिन्दी को अधजल में छोड़ दिया जिनमें अम्बेदकर जी की भूमिका भी हिन्दी विरोधी के रूप में थी । जीवन पर्यन्त करुणानिधि की राजनीति का आधार हिन्दी का विरोध ही था।नतीजतन 15 वर्षों के लिए अंग्रेजी को हिन्दी की सहायक भाषा बनाया गया इस तर्क के साथ कि इस अवधि में सब लोग हिन्दी सीख लेंगे पर दुखद परिणाम सामने हैं। 14 सितम्बर 1949 से हर साल “हिन्दी दिवस” की औपचारिकता निभाकर कर्त्तव्य से इतिश्री मान लेते हैं। हिन्दी के विकास हेतु गठित सरकारी संस्थान अंग्रेजियत के शिकार हैं इसके विपरीत जन साधारण हिन्दी के प्रति समर्पण और जागरुकता निभाने में अग्रणी है।
भारत के दक्षिणी और उत्तर – पूर्वी परिक्षेत्र को भाषाई आधार पर गैर हिन्दी मानते हुए ‘ग’ श्रेणी में रखा था किन्तु व्यावहारिक तौर पर आज की स्थिति पूर्णतया भिन्न है ।
                 भारत के पूर्वोत्तर भाग में असम, अरुणाचल, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा व नागालैंड हैं जिनको मिलाकर त्रिपुरा के पत्रकार ज्योति प्रसाद सैकिया ने सात बहनों की संज्ञा दी है तथा इसमें आठवाँ राज्य सिक्किम और पश्चिम बंगाल के कुछ क्षेत्र आते हैं | इन राज्यों की विदेशी सीमायें तिब्बत, भूटान, चीन, म्यांमार और बांग्लादेश से मिलती हैं जो नि:संदेह गैर हिन्दी राष्ट्र हैं | पूर्वोत्तर का विस्तार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 7.9 प्रतिशत में तथा इसकी आबादी देश की लगभग 3.21 प्रतिशत है | यहाँ की 52 प्रतिशत भूमि वनों से आच्छादित है तथा 400 समुदायों के लोग 220भाषायें/ बोलियाँ बोलते हैं इसलिये पूर्वोत्तर को भारत की सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहना ही उचित होगा |
                  यह प्रमाणित हो चुका है कि सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत है जो देश, काल, परिस्थिति और वातावरण को देखते हुए सैकड़ों भाषा, उपभाषा एवं बोलियों का स्वरूप धारण करती गई । किसी भाषा के प्रसार के लिए आवश्यक है कि उसकी लिपि सरल हो, व्याकरण स्पष्ट हो, उस क्षेत्र में रोजगार की प्रबल सम्भावनाएँ हों, आवागमन सुचारु हो तथा विविध भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करने की क्षमता हो । देवनागरी लिपि से सुसज्जित हिन्दी दुनिया की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है । यह संस्कृत से बनी सबसे सशक्त भाषा है जिसमें तकरीबन 18 उपभाषायें और सैकड़ों बोलियाँ निहित हैं । भारत के हर भू – भाग में हिन्दी की सक्षम उपस्थिति देखी जा सकती है । मध्य भारत इसका केन्द्र है जहाँ से परित: फैल रही है । देश के किसी भी व्यवसाय व उद्योग में सर्वाधिक मानव शक्ति हिन्दी भाषियों की है जो दूसरी भाषा – भाषियों को प्रभावित करते हैं तथा उनकी भाषाओं में हिन्दी को तलाशते हैं ।
           पूर्वोत्तर और मध्य भारत के बीच आवागमन का इतिहास बहुत पुराना है । यहाँ के लोगों के साथ धार्मिक, सांस्कृतिक एवं विवाहेतर सम्बंध भी रहे । रामायण में वर्णित गुरु वशिष्ठ का आश्रम आज भी गोवाहाटी में देखा जा सकता है । महाभारत के महायोद्धा भीम का विवाह हिडिम्बा से तथा अर्जुन का विवाह चित्रांगदा तथा उलूपी से हुआ था जिनके पुत्रों (घटोत्कच और बभ्रुवाहन तथा अरावन) का पराक्रम अद्वितीय है । मणिपुर में ही भगवान विष्णु का अति प्राचीन मंदिर एवं श्रीकृष्ण व जामवंत से जुड़ी स्यमंतक मणि की कथा प्रचलित है । ब्रहमपुत्र के आँचल में सदियों पुराना माँ कामाख्या का मंदिर और वहाँ हर वर्ष लगने वाला अम्बूबाची मेला भारत ही नहीं अपितु विदेशों से भी दर्शनार्थियों को खींच लाता है । शिवसागर के शिव मंदिर को भारत में सबसे ऊँचाई पर होने का गौरव प्राप्त है । तेजपुर की राजकुमार उषा और द्वारिका (गुजरात) के राजकुमार अनिरुद्ध (भगवान श्रीकृष्ण का पौत्र) की प्रेम कथा सर्वविदित है। अरुणाचल का परशुराम मंदिर पौराणिक काल तथा त्रिपुरा का नीरमहल मुगलकालीन स्थापत्य का प्रतीक है । मेघालय में अवस्थित माँ जयन्तिया मंदिर भी प्राचीन कालीन आवागमन को पुष्ट करता है । अंग्रेजों ने जब चाय बागान का विस्तार करना शुरु किया तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा व उड़ीसा से मजदूरों को लाकर बसाया गया जो चाय जनजाति के नाम से आज भी जाने जाते हैं । असमीया जाति, सभ्यता व संस्कृति के प्राणतत्व श्रीमंत शंकर देव के पूर्वज उत्तर प्रदेश के कन्नौज से तथा दिल्ली में जन्में पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के पूर्वज भी उत्तर प्रदेश से आकर बसे थे । असमीया फिल्म के पितामह ज्योति प्रसाद आगरवाला जी के पूर्वज राजस्थान के केड़ से यहाँ आए थे ।
           यद्यपि हिन्दी न्यून मात्रा में यहां पहले से ही विद्यमान थी किन्तु इसका वास्तविक पदार्पण सन् 1934 में अखिल भारतीय हरिजन सेवा संघ की स्थापना के सिलसिले में महात्मा गाँधी जी के असम आने के साथ हुआ । एक आह्वान के जवाब में गड़मुड़ सर्वाधिकार श्री श्री पीताम्बर देव गोस्वामी ने असम में हिन्दी सिखाने वाले व्यक्ति की माँग की । गांधी जी ने सहर्ष स्वीकार करते हुए संतमय तेजोमय तपस्वी बाबा राघवदास को हिन्दी के प्रचार – प्रसार हेतु असम में भेजा । महात्मा श्रीमंत शंकरदेव और उनके समकालीन रचनाकारों ने ब्रजभाषा में रचना करके लोगों को आकृष्ट तो किया ही, श्रीमंत शंकरदेव ने पूर्वोत्तर में सबसे अधिक बोली जाने वाली असमीया भाषा में रामायण और श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद किया । संस्कृत की वैयाकरणिक जटिलता से पृथक होकर हिन्दी में रचित रामचरित मानस, प्रिय प्रवास, कामायनी, बिहारी सतसई, सूरसागर, विनय पत्रिका, चालीसे एवं आरतियाँ हिन्दी को पूर्वोत्तर में जन – जन तक पहुँचाने में अग्रणी रहीं । राजस्थान से आने वाले मारवाड़ी अपने संग हिन्दी लेकर आये और काम करने वाले लोगों के साथ साझा करते रहे ।
           देवनागरी लिपि को भारत की अधिकांश भाषाओं ने अपनाया और यह सत्य है कि समान लिपि होने पर कोई भी भाषा आसानी से सीखी जा सकती है। अरुणांचल प्रदेश में मोनपा, मिजी व अकाकी की लिपि देवनागरी है इसलिये यहाँ हिन्दी पूरी तरह से व्याप्त है । असम प्रान्त की तीन भाषायें मिरी, मिसमि तथा बोडो (पहले बोडो की लिपि चीनी थी जिसे पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की अनुमति लेकर देवनागरी में लिखा जाने लगा) की लिपि देवनागरी है । नागालैंड में देवनागरी में लिखी जाने वाली अडागी, सेमा, रेग्मा चाखे तथा नेपाली भाषायें हैं । सिक्किम में नेपाली, लेपचा, भड़पाली तथा लिम्बू को देवनागरी में लिखा जाता है । संस्कृत के तत्सम रूप से बांग्ला तथा तद्भव रूप से असमिया भाषा का प्रादुर्भाव हुआ । पूर्वोत्तर की अधिकांश भाषाओं की लिपि देवनागरी होने या संस्कृत से पैदा होने के कारण ये हिन्दी के बहुत करीब हैं ।
           मणिपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से सन 1928 से तथा मणिपुर हिन्दी परिषद् द्वारा 1938 से दिन्दी के प्रचार – प्रसार का कार्य चल रहा है । पेशे से इंजीनियर श्री रमेश सिंघा ने यह बताया कि बिश्नुप्रिया समुदायों में रामलीला का आयोजन होता रहता है जिसके सम्वाद अधिकाधिक भोजपूरी में बोले जाते हैं । कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा हिन्दी का विरोध करने के बावजूद भी लाइयुम ललित माधव शर्मा, श्री द्विजमणि देव शर्मा, कला चांद शास्त्री तथा एन तेम्बी सिंह जैसे लोगों के प्रयास से हिन्दी फल फूल रही है । सन् 1971 ई0 में पूर्वोत्तर के आठों राज्यों में हिन्दी के विकास के लिए केन्द्रीय संस्था के रूप में पूर्वोत्तर परिषद् (नॉर्थ इस्टर्न कौंसिल) की स्थापना की गई । इसके तीन केन्द्र गोवाहाटी, शिलॉंग और दीमापुर में खोले गये । सुगम संचालन हेतु गोवाहाटी केन्द्र से असम, अरुणांचल और सिक्किम को जोड़ा गया । शिलॉंग से मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम तथा दीमापुर से नागालैंड व मणिपुर जोड़े गये । मिजोरम में डॉ.इंजीनियरी ने हिन्दी – मिजो शब्दकोश लिखकर अभूतपूर्व कार्य किया है । श्री आर. एल. थनकोया तथा श्री मुआनो का योगदान सराहनीय है । नागालैंड से प्रत्येक वर्ष 30 हिन्दी शिक्षक प्रशिक्षण के लिये आगरा जाते हैं तथा वापस आकर हिन्दी राजदूत के रूप में कार्य करते हैं । यहाँ तेजी से विकसित हो रही नागामीज़ भाषा मूलत: हिन्दी, असमीया, नागा,बांग्ला और नेपाली का मिश्रण है जिसकी कोई लिपि नहीं । बढ़ई का काम करने वाले काइल मेरेन को हिन्दी बोलने में सहजता होती है । औद्योगिक शहर दीमापुर में हिन्दी के बिना जीवन दूभर है । मेघालय में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान की ओर से कक्षा 5 से 8 तक की पुस्तकें तैयार कर ली गई हैं । शिलॉंग (शिवलिंग) में रहकर डॉ. अकेला भाई, डॉ. मनोज कुमार, श्रीमती सुस्मिता दास, योगेश दुबे व डॉ. अनीता पांडा साहित्यिक दल – बल के साथ हिन्दी को नव आयाम दे रहे हैं । त्रिपुरा,अरुणाचल और सिक्किम में हिन्दी की पहुँच घर – घर में ही नहीं है बल्कि अरुणाचल की विधानसभा में हिन्दी में सवाल तक पूछे जा रहे हैं । बी. बरुवा कालेज में हिंदी के प्राध्यापक अरविंद शर्मा के अनुसार हिंदी असम की ब्रह्मपुत्र घाटी को बराक घाटी से जोड़ती है । असम के डिमा हसाऊ जिले का मुख्य शहर हॉफलॉंग के जनजातीय लोग हॉफलॉंगी हिन्दी बोलते हैं जो निश्चित रूप से हिन्दी के लिए शुभ लक्षण है । तिनसुकिया को तो दूसरे बिहार के रूप में भी जाना जाने लगा है । डॉ रुणु बरुवा, जयश्री शर्मा, निशा गुप्ता, ऋतु गोयल, विमला शर्मा, मदन मोहन सिंह, दीपिका सुतोदिया, रीता सिंह, डॉ. नथमल टिबरेवाला, डॉ राजेन्द्र परदेशी, डॉ राजकुमार जैन, रविशंकर सिंह, अर्चना पांडेय तथा प्रदीप मरोड़िया का प्रयास सराहनीय है । पूर्वांचल प्रहरी, दैनिक पूर्वोदय, प्रात: खबर, दैनिक प्रेरणा भारती और सेंटीनल जैसे खियातिलब्ध समाचार पत्र पूर्वोत्तर में हिन्दी को लोकप्रिय बना रहे हैं ।
          सन् 1970 के दशक में अन्तर भाषाई और द्विभाषिता पर अनुसंधान करने वाले महादेव एल आप्टे ने पूर्वानुमान किया था कि ‘अन्य भारतीय भाषाओं  से संरचनात्मक समानता के लिहाज से हिन्दी द्विभाषिता की सम्भावनायें बेहतर होनी चाहिए……. साक्षरता में बढ़ोत्तरी के साथ – साथ प्रमुख भाषाओं और हिन्दी के बीच अन्तर भाषाई संचार बढ़ सकता है ।’ अब हिन्दी निश्चित रूप से सम्पर्क भाषा (लिंगुआ फ्रैंका) बन चुकी है । पूर्वोत्तर में दस साल से रहते हुए लेखक का निजी अनुभव है कि न सिर्फ आठ राज्यों के लोग बल्कि एक ही राज्य के विविध क्षेत्र के लोग एक – दूसरे से बात करते समय हिन्दी का प्रयोग करते हैं जबकि किसी की भी मातृभाषा हिन्दी नहीं होती । तेजपुर से शिक्षिका वाणी बरठाकुर एवं जोरहाट से कवयित्री ममता गिनोड़िया ने हिन्दी के ऐसे हजारों शब्द बताये जो पूर्वोत्तर के लोग धड़ल्ले से बोलते हैं । सन् 2009 में केन्द्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री के. संगमा ने हिन्दी में शपथ ग्रहण कर सम्बंध को मजबूत किया । सोसल मीडिया द्वारा संचालित मंच यथा नूतन साहित्य कुंज, पूर्वोत्तर हिन्दी साहित्य अकादमी, नारायणी साहित्य अकादमी, हिन्दी साहित्य अकादमी तथा नव गठित पूर्वाशा हिन्दी अकादमी आदि हजारों लोगों के साथ मिलकर हिन्दी साहित्य को जन- जन तक पहुँचा रहे हैं । बढ़ते उद्योग धंधों, समाचार पत्रों, कवि सम्मेलनों एवं फिल्मों ने वाचिक रूप से हिन्दी को सर्व प्रमुख भाषा बना दिया है । अब वह समय दूर नहीं जब पूर्वोत्तर में हिन्दी की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए संविधान संशोधन द्वारा इसे श्रेणी ‘ग’ (गैर हिन्दी क्षेत्र) से बाहर किया जा सकेगा ।
{अवधेश कुमार ‘अवध’, ग्राम व पोस्ट – मैढ़ी (धरौली रोड), जनपद – चन्दौली , उत्तर प्रदेश – 232104 
Awadhesh.gvil@gmail.com}





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