अधूरी आजादी भारत की

सरकार बुनियादी परिवर्तन नहीं कर पाती। परिवर्तन के लिए जनता को संविधान के बाहर संघर्ष करना पड़ता है। विज्ञान के इस युग में संगठित राज्य-शक्ति और लोकशक्ति को मिलकर पुननिर्माण करना होगा। इन दोनों का सम्मानपूर्ण सहयोग परिवर्तन तथा पुननिर्माण की क्रांति का मध्यस बिन्दुू है। लोक समाजवादी लोकतांत्रिक व्यरवस्था  में क्रांति स्वकयं पुननिर्माण का एक अंग बन जाती है। लोकतंत्र में उत्तथरदायी सरकार का निर्माण क्रांतिकारी संघर्ष का अनिवार्य अंग है। उत्तवरदायी सरकार के गठन में लोकशक्ति का संगठन असली आजादी प्राप्त करने का माध्य म बनेगा। यही असली आजादी की लड़ाई कही जाएगी।
प्रो. मनोज कुमार 
आजादी के 70  वर्षों के बाद भी आम जनता शोषण, अन्याषय, अशिक्षा, तरह-तरह के रोग और भयंकर गरीबी के बीच जीने और भूख से मरने को विवश है। लोकतंत्र व स्वीतंत्रता का अर्थ चुनाव करवाने, स्वधतंत्रता दिवस पर राष्ट्री य भंडा फहराने और गणतंत्र दिवस पर परेड आयोजित करने का उपक्रम अब कर्मकांड बनकर रह गया है। क्यात ऐसे में लोकतंत्र, स्वेतंत्रता  और स्वकराज्य  का कोई अर्थ रह जाता है? 1906 ई. के कलकत्ता  कांग्रेस अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी ने अपने अध्य क्षीय भाषण में कहा था कि भारत के अधिकांश लोगों के गरीबी का कारण विदेशी शासन है। इसे दूर करने के लिए आवश्यरक है कि स्व शासन प्राप्तष किए जायें ताकि अभी जो लाखों-करोड़ों लोग गरीबी, अकाल और प्लेतग से मर जाते हैं,  साधनों के अभाव में भूखे रहते हैं, उन्हें  बचाया जा सके। गांधीजी ने 1 जून, 1947 के ‘हरिजन’ में लिखा कि अभी देश की अन्याजयपूर्ण गैर-बराबरी की स्थिति में, जिसमें चंद लोग विलासिता में आकंठ डुबे हुए हैं, और आम जनता को पर्याप्ती भोजन नहीं मिलता।क्याि इसमें कोई रामराज्य  आ सकता है? देश की सत्ताद ग्रहण करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरु ने भी कहा था कि “आम आदमी को, किसानों और मजदूरों को आजादी और अवसर दिलाना, गरीबी अज्ञान और रोग से लड़ना और उन्हें  समाप्तआ करना आजादी का लक्ष्य  है। आजादी हासिल करने की जरत इसलिए पैदा हुई क्योंैकि ब्रिटिश शासन ने भारतीयों को मुनष्यू होने की गरिमा तक से वंचित कर दिया था। एसेम्बंली बमकांड के दौरान भगत सिंह और बटुकेश्वकर दत्तद ने अपने बयान में कहा था कि मौजूदा व्यऔवस्था  अन्यािय पर टिकी हुई है, इसे बदलना ही होगा। जो किसान सबके लिए अनाज उपजाताहै, वह अपने परिवार के साथ भूखमरी का शिकार होता है। दूसरों के लिए आलीशान प्रासाद बनाने वाले राज मिस्त्री , लोहार और बढ़ई गंदी बस्तियों में ‘अछूतों और चंडालों’ की तरह रहते हैं। यह भयंकर असमानताएं और अवसर की विषमताएं हैं जो हमें अराजकता की ही ओर ले जाएगी।
आज जबकि हम 21वीं सदी में अंतरिक्ष युग, कंप्युटर युग और सूचना प्रौद्योगिकी के युग में रह रहे हैं। देश की आधी आबादी कोई भी भारतीय भाषा में पढ़ने-लिखने में अक्षम है। स्ववराज्ये का लक्ष्यर ‘गरीबी’, ‘अज्ञान’और ‘रोग’को समाप्त  करना था। इस लक्ष्य  को प्राप्तब करना तो दूर, हम उसके आसपास भी नजर नहीं आते। आजादी के बाद से स्वततंत्रता और लोकतंत्रमात्र किसी भी कीमत पर राष्ट्रव में ‘शांति’,‘एकता’और ‘अखंडता’बरकरार रखना चाहता है।लोकतंत्र की कीमत पर भी ‘शांति’ और ‘राष्ट्री य एकता’ बनाए रखना हम कर्तव्य् समझते हैं। आजादी के समय फुटपाथों और गंदी बस्तियों में रहने वालों की संख्यार नगण्य  थी। लेकिन आधुनिक विकास की अंधी दौड़ के बाद, जबकि बारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं का क्रियान्वयन हो चुका है,शहरी आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा फुटपाथों पर जीवन गुजार रहा है। 1947 ई. में देश की कुल आबादी जितनी थी, आज लगभग उतनी ही आबादी नरकतुल्यु परिस्थितियों में निवास कर रही है। सर्वोच्चु न्यादयालय ने गंदी बस्तियों को ‘पृ‍थ्वी  का साक्षात नरक’ कहा था। देश की 40 प्रतिशत निचली आबादी का जीवन स्तंर क्याव अमीरों के पालतू जानवरों से अच्छाी  है? राष्ट्रवकवि दिनकर इसी कारण कहते हैं‘श्वाेनों को मिलता दूध यहाँ भूखे बालक अकुलाते है।’
हम मानकर चल रहे हैं कि देश का विकास हो रहा है। लेकिन देश का विकास और राष्ट्र् के विनाश की स्थिति आज पैदा हुर्इ है। भारत की राष्ट्री यता नए आधार ढूंढ रही है, पहले समाजवाद एक दर्शन था। न्या य की उसमें सुगंध थी, समाजवाद मोहक शब्दद था। आज देश के दो टुकड़ेहो गए हैं। एक ओर अमीरों का भारत है तो दूसरी ओर गरीबों का भारत। सम्पैन्न  और विपन्न  के बीच की दीवार ऊँची होती जा रही है। समाजवाद कहाँ है? समाजवाद के नाम पर सरकारवाद का फैलाव हुआ है। भारत का समान्यर आदमी पूछ रहा है कि कहाँ है समाजवाद? वह पूछ रहा है उसका स्व राज कहाँ है? आचार्य राममूर्तिने 1991 में एक बार कहा था कि अगर देश इस प्रकार दो भागों में बंटते चले जाएं तो राष्ट्र् कब तक एक रहेगा। दो भारत और एक राष्ट्रह, राष्ट्रर की एकता हमारे लिए जीवन-मरण का प्रश्नष है। सह-अस्तित्वट हमारे अस्तित्वए का प्रश्नक है। सह-अस्त्िा त्वर कैसे टिकेगा? पिछले पांच वर्षों में देश के करीब दो लाख से अधिक किसानों ने आत्मरहत्याह कर ली। इससे हम सुध ले सकते हैं कि आखिर देश में चल रहे तथाकथित विकास क्यार दर्शाता है। आपातकाल की 25वीं वर्षगांठ पर हमने सहचिंतन में लोकतंत्र पर बहुआयामी खतरों को सूचीबद्ध किया था।उसमें सिद्धान्तिहीन राजनीति, राजनीति का अपराधीकरण, भूमंडलीकरण और विदेशी हस्तेक्षेप की संभावनाओं, हिंसा एवं उग्रवाद की राजनीतिक विस्तारर,पुलिस एवं अर्द्धसैनिक बलों पर बढ़ती बजट, बुद्धिजीवी–वर्ग का आत्म केंद्रित एवं स्वा्र्थपरकता, जनता की उदासीनता, बेरोजगारी एवं उपभोक्ताकवादी संस्कृाति के पाटों के बीच क्रांति विमुख, कृषि पर बहुराष्ट्री य कंपनियों की नजर, ग्रामोद्योग का खात्मां, नगरोन्मु ख विकास, खंडित राष्ट्रीकयता, संप्रदायवाद को प्रमुख मानते हुए अन्याीयपूर्ण ऊँच-नीच भाव पैदा करने वाली जाति-व्यावस्थार की राजनीति, फिर स्था‍यी प्रबंध से उपजी सामंतवाद के अन्या-य, भूमिसुधार-कानूनों में ढिलाई, समान अवसर और सामाजिक न्या य के नाम पर राजनीति के विस्ताार का कारण माना था।
कहा जाता है कि “भारत विकासशील दुनिया में लोकतंत्र का आखिरी किला है।” कुछ लोग कहते हैं कि “भारत पिछले छहदशकों में एशिया और अफ्रीका में एकमात्र लोकतांत्रिक देश के रुप में उभरा है।” भारत के राष्ट्रापति महोदय ने 1998 और 1996 के गणतंत्र दिवस पर संबोधन में कहा था कि “हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं।दुनिया में हमारी पहचान एक परिपक्वर और जीवंत लोकतंत्र तथा ऐसे देश की है जो 21वीं सदी में काफी बड़ी आर्थिक और औद्योगिक शक्ति के रुप में आगे बढ़ रहा है।”आज हम सच्चाऔई देख रहे हैं। भारतीय संविधान में वर्णितमौलिक अधिकारों की समीक्षा करें तो हम पाएंगें कि वह भी सभी को समान रुप से प्राप्तआ नहीं है। अनुच्छेतद 14 में कानून के समक्ष समानता और कानून द्वारा समान संरक्षण की बात की गई है। अनुच्छेवद 21 जीवन के अधिकार की गारंटी देता है। न्या यपालिका ने अपने अनेक फैसलों में जीवन के अधिकार को गरिमा के साथ जीने तथा भोजन, वस्त्र , आवास की भौतिक सुविधाओं से युक्तक माना है। भारतीय संविधान के उद्देशिका में भी स्वगराज की दिशा का स्पसष्ट‍ संकेत है।
‘हिन्दि स्वीराज’ नामक पुस्तयक में गांधीजीने पश्चिमी सभ्येता पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यजक्तन करते हुए उसे अशुभ और शैतानी सभ्यजता बताया था और भारत की भावी तस्वी्र खीचीं थी। गांधीजी का मानना थाकि यदि भारत को विनाश से बचाना है तो हमें सीढ़ी के सबसे निचले भाग से काम शुरु करना होगा। यदि निचला भाग सड़ा हुआ है तो ऊपर और बीच के हिस्सेु पर किया गया काम अंत में गिर पड़ेगा। रवीद्रनाथ टैगोर ने भी कहा था कि गाँव के साधनों को शहर में खींचकर भारतमाता को –रानी बना दिया है।गांधीजी ने इसी कारण कहा था कि गांव का खून शहरों की इमारतों में लगा सिमेंट है। वह गांवों के शरीर में वापास आना चाहिए।  भारत का विकास गांवों के विकास से ही संभव है यह उस समय के शासनाध्य क्षों को स्वीाकार नहीं था। स्व यं नेहरुजी ने अपने आत्मककथा में कहा है कि गांधी विज्ञान और तकनीकी क्रांति से मुँह मोड़कर हमें अभाव और गरीबी के मध्यधयुग की ओर वापस जाने का संदेश देते हैं। यही विचार प्रारंभ में जे.पी., लोहिया और मार्स्‍ वादियों का रहा लेकिन स्वअयं नेहरु ने अंतिम वर्षों में लोकसभा में अपने महत्वापूर्ण भाषण में गांधी ने इन्हींम बिन्दुंओं को मौलिक चिंतन और युगांतकारी प्रयास माना था। जे.पी., लोहिया तो पहले ही सचेत हो चुके थे। आइंस्टीान, रोमांरोला और अर्नाल्डल टायनबी, शुमाकर जैसे पाश्चांत्यय चिंतकों ने गांधीय चिंतन की प्रासंगिकता पर भरपूर वकालत की थी।
आज भारत के प्रबुद्ध लोगों को पश्चिमी सभ्यपता के परिणामों को देखकर नए भारत के निर्माण की दूसरी आजादी की लड़ाई प्रांरभ करनी होगी। आज का संकट पहले से अधिक खतरनाक है क्यों कि धनशक्ति, संचारशआक्ति और राज्यलशक्ति वैश्वीककरण और उदारीकरण का चोला पहन कर राष्ट्री यता और सामान्यकजनों के सुविधाओं को दीमक की तरह चाट रहा है। सरकार बुनियादी परिवर्तन नहीं कर पाती। परिवर्तन के लिए जनता को संविधान के बाहर संघर्ष करना पड़ता है। विज्ञान के इस युग में संगठित राज्यक-शक्ति और लोकशक्ति को मिलकर पुननिर्माण करना होगा। इन दोनों का सम्मा नपूर्ण सहयोग परिवर्तन तथा पुननिर्माण की क्रांति का मध्यस बिन्दुू है। लोक समाजवादी लोकतांत्रिक व्यरवस्था  में क्रांति स्वकयं पुननिर्माण का एक अंग बन जाती है। लोकतंत्र में उत्तथरदायी सरकार का निर्माण क्रांतिकारी संघर्ष का अनिवार्य अंग है। उत्तवरदायी सरकार के गठन में लोकशक्ति का संगठन असली आजादी प्राप्तउ करने का माध्य म बनेगा। यही असली आजादी की लड़ाई कही जाएगी।
बाबा साहब अम्बेबडकर राष्ट्रसवाद की परिभाषा में बताते हैं कि यह ‘मैं’ का ‘हम’ में परिवर्तित हो जाना है। जब कि पश्चिमी विद्वान राष्ट्रकवाद की परिभाषा करते हुए यह भूल जाते हैं कि भारत ने सदियों से सहअस्तितव का, राष्ट्री यता का अपनी एक नई पहचान विकसित की है। राष्ट्रत बनने की प्रक्रिया स्वीयं में एक चुनौती है। व्यहक्ति और क्षेत्र के आधार पर चलने वाली राजनीतिक प्रक्रियाएं संकट का बहुत बड़ा कारण है। 1967 में भारतीय राजनीति का यह प्रयोग राजनीति में सह-अस्तित्वव की खोज ही कही जा सकती है। अगरहम गांधी के विचारों का मूल्यांैकन करें तो 29 जनवरी, 1948 का वसीयत हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। जिसमें गांधी-कांग्रेस को विसर्जित कर लोक सेवक संघ में परिवर्तन कर देने की इच्छाव जाहिर की थी। यहीं से देश और विकास के राष्ट्र की धारा निकलती है जिसमें हम विभिन्नी नदियों के एक सम्माानित महिला के रुप में गंगा को प्रतिस्थाहपित करते हैं। यही सहअस्तित्वम की हमारी सांस्ृं  तिक  विरासत भी है। अब वह समय आ गया है जब गांधी, लोहिया, मार्क्सर और भारतीय सांस्कृ तिक राष्ट्र वादियों को अपनी पहचान, जो उन्हो‍ने वैचारिक रुप से बनाई है, विलीन करते हुए या सही रुप में एक दूसरे से समाहित होते हुए मानव और मानवीयता को केंद्रित मानकर वि‍कास की जरुरत का निर्धारण करें।एक बार आचार्य राममूर्ति जी ने कहा था कि अनजाने ही सही सही दो बड़ा दिगाग एक दूसरे के साथ मिल रहा है। गांधी और मार्क्सड़ एक-दूसरे के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। क्या ऐसी कोई कोशिश नहीं होनी चाहिए जिसमें अंबेडकर भी खड़े रहें, लोहिया भी रहें और सांस्‍‍कृतिक राष्ट्रेवाद के पुरोधाओं को भी साथ लाया जा सके। भारत का सपना था भारतीयता, सहअस्तित्वं के इन्ही सवालों पर टिका है। लेकिन दूसरे लिए बुद्धिजीवियों खासकर शिक्षकों को ‘वाद’ के दायरे से अपने को बाहर लाना पडे़गा, जो कठिन जरुरी है लेकिन उसकी रोटी खाने वालों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है।
(लेखक महात्मा  गांधी अंतरराष्ट्री य हिंदी विश्वीविद्यालय, वर्धा में फ्यूजी गुरुजी सामाजिक अध्ययन केंद्र के निदेशक हैं तथा विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी हैं|)





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