जान हथेली पर लेकर इमरजेंसी का मुकाबला किया था जार्ज फर्नांडिस ने

जार्ज के जन्म दिन के अवसर पर
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जान हथेली पर लेकर इमरजेंसी का मुकाबला किया था जार्ज फर्नांडिस ने
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–सुरेंद्र किशोर–
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इमरजंेसी में मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘न्यूजवीक’ ने भारत पर एक स्टोरी की थी। एक पेज की उस स्टोरी के साथ जयप्रकाश नारायण और जार्ज फर्नांडिस की तस्वीरें थीं।
पत्रिका के अनुसार भारत में दो तरह से आपातकाल के खिलाफ संघर्ष हो रहा है। जेपी का अहिंसक तरीका है और जार्ज फर्नांडिस का डाइनामाइटी। शब्द भले डायनामाइटी शब्द न था , पर आशय गैर -अहिंसक होने का था। जेपी, जार्ज के तरीके से असहमत थे। आपातकाल में जार्ज और उनके साथियों पर बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र केस चला।
जेल में उन्हें व उनके साथियों को भीषण यातनाएं दी गयी थीं।
मुकदमा तब उठा जब 1977 में मोरारजी की सरकार बनी।
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25 जून, 1975 को जब देश में आपातकाल लगा तो उस समय जार्ज फर्नांडीस ओडिशा में थे। अपनी पोशाक बदल कर 5 जुलाई में जार्ज पटना आये। तत्कालीन समाजवादी विधान पार्षद रेवतीकांत सिंहा के पटना के आर.ब्लाक स्थित सरकारी आवास में टिके। इन पंक्तियों का लेखक भी तब उनसे मिला।
मैं उन दिनों जार्ज द्वारा संपादित चर्चित साप्ताहिक पत्रिका
‘प्रतिपक्ष’ का बिहार संवाददाता था।
जार्ज कुछ समय तक पटना रह कर ट्रेन से इलाहाबाद चले गये।
बाद में उन्होंने मध्य प्रदेश के प्रमुख समाजवादी नेता लाड़ली मोहन निगम को एक संदेश के साथ पटना भेजा। जार्ज का संदेश था कि निगम मुझे और शिवानंद तिवारी को जल्द विमान से बंगलुरू लेकर आयें।
शिवानंद जी तो उपलब्ध नहीं हुए। पर मैं निगम जी के साथ मुम्बई होते हुए बंगलुरू पहुंचा। वहां जार्ज के साथ तय योजना के अनुसार राम बहादुर सिंह, शिवानंद तिवारी, विनोदानंद सिंह ,राम अवधेश सिंह और डा.विनयन को लेकर मुझे कोलकाता पहुंचना था। पटना लौटने पर मैंने उपर्युक्त नेताओं की तलाश की। पर इनमें से कुछ जेल जा चुके थे । या फिर गहरे भूमिगत हो चुके थे। सिर्फ डा.विनयन उपलब्ध थे। उनके साथ मैं धनबाद गया । याद रहे कि आपातकाल में कांग्रेस विरोधी राजनीतिक नेताओं -कार्यकत्र्ताओं पर सरकार भारी आतंक ढा रही थी।उस आंतक की कल्पना आज संभव नहीं।
राजनीतिककर्मियों के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना तक कठिन था।
भूमिगत जीवन, जेल जीवन की अपेक्षा अधिक कष्टप्रद था।
सरकार ने नागरिकों के जीने का अधिकार भी स्थगित कर दिया था। 
धनबाद में समाजवादी युवक लाल साहेब सिंह से
पता चला कि राम अवधेश तो कोलकाता में ही हैं ।
हम कोलकाता गये।
वहां जार्ज से हमारी मुलाकात हुई। पर वह मुलाकात सनसनीखेज थी। जार्ज ने दक्षिण भारत के ही एक गैर राजनीतिक व्यक्ति का पता दिया था। उस व्यक्ति का नाम तीन अक्षरों का था। जार्ज ने कहा था कि इन तीन अक्षरों को कागज के तीन टुकड़ों पर अलग -अलग लिख कर तीन पाॅकेट में रख लीजिए । ताकि, गिरफ्तार होने की स्थिति में पुलिस को यह पता नहीं चल सके कि किससे मिलने आप कहां जा रहे हो।
यही किया गया। पार्क स्ट्रीट के एक बंगले में मन मोहन रेड्डी से मुलाकात हुई। उस दक्षिण भारतीय सज्जन ने कह दिया था कि बंगले के मालिक के कमरे में जब भी बैठिए,उनसे हिंदी में बात नहीं कीजिए। अन्यथा, उन्हें शक हो जाएगा कि आप मेरे अतिथि हैं भी या नहीं।
मन मोहन रेड्डी नामक उस दक्षिण भारतीय सज्जन ने जार्ज से हमारी मुलाकात करा दी। हम एक बड़े चर्च के अहाते में गये।
जार्ज उस समय पादरी की पोशाक में थे। उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। चश्मे का फ्रेम बदला हुआ था। हाथ में एक विदेशी लेखक की मोटी अंग्रेजी किताब थी। जार्ज, विनयन और मुझसे देर तक बातचीत करते रहे। फिर हम राम अवधेश की तलाश में उल्टा डांगा मुहल्ले की ओर चल दिये।वहीं की एक झोपड़ी में हम टिके भी थे। फुटपाथ पर स्थित नल पर नहाते थे ।
और, बगल की जलेबी-चाय दुकान में खाते-पीते थे।
उल्टा डांगा का वह पूरा इलाका बिहार के लोगांे ंसे भरा हुआ था। जार्ज के साथ टैक्सी में हम लोग वहां पहुंचे थे।
मैंने जार्ज को उस चाय की दुकान पर ही छोड़ दिया। राम अवधेश की तलाश में उस झोपड़ी की ओर हम बढ़े।
पर पता चला कि राम अवधेश जी भूमिगत कर्पूरी ठाकुर के साथ कोलकाता में ही कहीं और मौजूद हैं।
चाय की दुकान पर बैठे जार्ज ने इस बीच चाय पी थी।
जब हम लौटे और जार्ज चाय का पैसा देने लगे।
तो, बिहारी मूल का वह दुकानदार उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।
उसने कहा, ‘हुजूर हम आपसे पैसा नहीं लेंगे।’
इस पर जार्ज थोड़ा घबरा गये।
उन्हें लगा कि वे पहचान लिये गये।
अब गिरफ्तारी में देर नहीं होगी।
जार्ज को परेशान देखकर मैं भी पहले तो घबराया।
पर मुझे बात समझने में देर नहीं लगी।
मैंने कहा कि जार्ज साहब,चलिए मैं इन्हें बाद में पैसे दे दूंगा।
मैं यहीं टिका हुआ हूं।
फिर अत्यंत तेजी से हम टैक्सी की ओर बढ़े जो दूर हमारा इंतजार कर रही थी।
फिर हमें बीच कहीं छोड़ते हुए अगली मुलाकात का वादा करके जार्ज कहीं और चले गये।
आपातकाल में जार्ज और उनके साथियों पर बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र केस को लेकर मुकदमा चला।
सी.बी.आई.का आरोप था कि पटना में जुलाई, 1975 मेें जार्ज फर्नाडीस, रेवती कांत सिंह,महेंद्र नारायण वाजपेयी और सुरेंद्र अकेला (यानी इन पंक्तियों के लेखक) यानी चार लोगों ने मिलकर एक राष्ट्रद्रोही षड्यंत्र किया।
षड्यंत्र यह रचा गया कि डायनामाइट से देश के महत्वपूर्ण संस्थानों को उड़ा देना है ।
देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर देनी है।
1977 में मोरारजी देसाई की सरकार बनने पर यह केस उठा लिया गया।
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(साथ में –आपातकाल में यानी, 21 नवंबर, 1975 को अपने अज्ञातवास से जार्ज फर्नांडिस ने मुझे यह चिट्ठी लिखी थी।
मेरे नाम अंग्रेजी में लिखी इस चिट्ठी में पेपर्स शब्द आया है।
सी.बी.आई.ने ‘‘पेपर्स’’ का अर्थ ‘‘डायनामाइट’’ लगाया था।
मुझसे उस अर्थ की पुष्टि मत करवाइएगा।)
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आज टी वी चैनलों पर बैठकर अनेक प्रवक्ता व नेतागण यह बोलते रहते हैं कि देश की जनता महंगी से परेशान है।
यदि है तो राज्यव्यापी या देशव्यापी आंदोलन करके जेल भरो अभियाान क्यों नहीं चलाते ?
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नहीं चलाते क्योंकि वे जेल जाने से डरते ।
जब भ्रष्टाचार के आरोप में कोर्ट किसी आरामतलब नेता को जेल भेजता है तो वह जुगाड़ लगाकर तुरंत अस्पताल में भर्ती हो जाता है।
यानी, आज की राजनीति मुख्यतः जोड़तोड़ वोट बैंक और ड्राइंग रूम की हो गई है।अपवादांें की बात और है।
आज कोई तानाशाह इमरजेंसी लगाए और मीडिया-कोर्ट को 1975-77 के आपातकाल की तरह शांत कर दे तो किसी नेता को जेल भेजने की भी जरूरत शायद नहीं पड़ेगी।अधिकतर चूहे की तरह बिल में घुस जाएंगे।अपवादों की बात और है।
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ऐसेे में किस तरह जान हथ्ेाली पर रखकर जार्ज इमरजेंसी–1975-77– में भूमिगत आंदोलन चला रहा था,नई पीढ़ी के लिए यह जानना जरूरी है।
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