सीमाओं में बंधा भारतीय गणराज्य का प्रमुख राष्ट्रपति

संजीव चंदन

यह बात सही है कि राष्ट्रपति के रूप में किसी भी अस्मिता से प्रतीकात्मक नियुक्तियों का उस अस्मिता के लोगों के जीवन पर कोई गुणात्मक असर नहीं होता।

यह भी सही है कि सिख राष्ट्रपति के समय में सिखों का कत्लेआम हुआ। मुस्लिम राष्ट्रपति के समय में मुसलमानों का।

महिला राष्ट्रपति भूत-प्रेत के चक्कर में दिखी तो दलित राष्ट्रपति के समय में दलित उत्पीड़न की घटनाएं नहीं थमीं।

दरअसल राष्ट्रपति सीमाओं में बंधा भारतीय गणराज्य का प्रमुख होता है।

के.आर.नारायणन अब तक बेहतरीन राष्ट्रपति बताये जाते हैं। वे भी दलित थे। उन्होंने कई सकारात्मक हस्तक्षेप किये। अन्यथा लगभग सभी राष्ट्रपति डेकोरेटिव ही सिद्ध हुए हैं।

इन सीमाओं के बावजूद फर्क पड़ता है। राजनीति पर भी और समाज पर भी। क्या एक लोकतंत्र के लिए चिह्नित किये जाने लायक नहीं है कि 70 सालों में पहली बार आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन पा रही है!

यह सच है कि वह संघ के बैकग्राउंड की है, तो भाई विपक्ष ही कौन सा एक सेक्यूलर और प्रगतिशील चेहरा लेकर आ पाया इस चुनाव के लिए।

अबतक कांग्रेस ने कैसे-कैसे लोगों को राष्ट्रपति बनाया है, वह देश देख चुका है।

इरादा चाहे जो हो, लेकिन भाजपा आज भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा समावेशी होने की कोशिश कर रही है। ओबीसी, दलित, आदिवासी यदि भाजपा को वोट कर रहे हैं तो उसका कारण सिर्फ साम्प्रदायिकता नहीं है।

सारे भाजपा वोटर ओबीसी और दलित साम्प्रदायिक नहीं हो गये। ऐसा जो लोग सोचते हैं वे साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ नहीं रहे, उसे बढ़ा रहे हैं।

भाजपा-मोदी विरोध का अतिरेक यह है कि चार साल वाली आर्मी की नियुक्ति को लेकर विरोध कर रहे युवाओं का भाई लोग मजाक उड़ाते हैं कि वे भाजपा के ही वोटर हैं। इनमें से कई ने तो 2019 में वोट की पात्रता ही पायी होगी और कई वोटर भी तब या अब नहीं बने होंगे।

‘प्रतिबद्ध’ चिंतक चाहे इधर के हों या उधर के एक गति में काम करते हैं और सोच को नियंत्रित करते हैं।

फिलहाल प्रतीकात्मक ही सही, इसका एक संदेश है, स्वागत करिये। जीत-हार समीकरणों से तय होगा। वैसे सत्तापक्ष अपना राष्ट्रपति बना ही लेता है-सहमति से या मतदान से।

पुनश्च: राष्ट्रपति और विधिक सभाओं यानी लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधान परिषद में नियुक्ति या उम्मीदवारी में फर्क है, असर का भी। इसलिए इस प्रतीकात्मकता की तुलना राजद द्वारा विधानपरिषद में भेजी गयी दलित-महिला (धोबी समाज से) से नहीं की जा सकती। इन चार सदनों में भेजे गये लोगों द्वारा सीमित ही सही लेकिन हाशिये के समाज को लाभ मिलता है।  (फेसबुक timeline से साभार)






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