मेक इन इंडिया को फोर्ड का झटका

फोर्ड का जाना मेक इन इंडिया के लिए बड़े झटके जैसा

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आज इस बारे में आत्मनिरीक्षण की जरूरत है कि जनरल मोटर्स और फोर्ड जैसी बहुराष्ट्रीय वाहन कंपनियां भारत जैसे बड़े बाजार और बेहतर उत्पादन सुविधाओं के बावजूद क्यों बंद हो रही हैं. साल 2010 तक हर साल 10 फीसदी की दर से बढ़ रहा वाहन बाजार आज पिछले साल जितनी बिक्री को कायम रखने में जूझ रहा है. 

राजेश जोशी

पिछले करीब 10 सालों से घटती बिक्री और हजारों करोड़ रुपए के घाटे में फंसी अमेरिकी कार कंपनी फोर्ड इंडिया ने अंततः भारतीय बाजार से निकलने का फैसला कर लिया. फोर्ड भारत में अब कार उत्पादन नहीं करेगी. साणंद स्थित प्लांट में वह निर्यात के लिए इंजन बनाना जारी रखेगी. कार उत्पादन बाजार से फोर्ड जैसी बड़ी कंपनी का हटना विदेशी निर्माता कंपनियों को भारत में लाने की मोदी सरकार की कोशिशों के लिए बड़ा झटका है. महिंद्रा एंड महिंद्रा से 3 साल चले करार के टूटने के बाद फोर्ड संकट में घिर चुकी थी. फोर्ड की अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि कंपनी ने साल 2017-18 में कुल उत्पादन में 68 फीसदी से भी ज्यादा वाहन, यूरोप और अन्य देशों के बाजारों में बेचे थे. वह ऐसी अकेली कार निर्माता कंपनी थी, जिनकी भारत में बनी कारों का अमेरिका में बाजार था. हाल के सालों में भारत से अपना बोरिया बिस्तर समेटने वाली फोर्ड इकलौती कंपनी नहीं है. इससे पहले अमेरिकी कंपनी जनरल मोटर्स और हार्ले डेविडसन भारत में उत्पादन इकाई चालू करने के बाद बंद कर चुकी है. एक के बाद एक नामी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत से कारोबार समेटना नीतियों में गंभीर गड़बड़ी की तरफ इशारा भी है. 

इस वक्त भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा वाहन बाजार है. कुछ सालों पहले उम्मीद थी कि साल 2020 तक भारत चीन और अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा वाहन बाजार बन जाएगा, जहां पर 50 लाख गाड़ियां हर साल बिकेंगी. मगर हुआ उल्टा. आबादी के साथ प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के बावजूद 2019 के पहले ही वाहनों की बिक्री बढ़ने की जगह घटने लगी थी. साल 2011 के आसपास हर साल भारत में 36 लाख गाड़ियां बिक रहीं थीं और यह आंकड़ा 2019 में लुढ़ककर 22 लाख वाहनों पर टिक गया. भारी भरकम टैक्स, बीएस-6 जैसे उत्सर्जन नियमों, कच्चे माल की बढ़ती कीमतों,  वाहनों में एयर बैग, दूसरे सुरक्षा उपायों की अनिवार्यता से बढ़ती उत्पादन लागत, एनबीएफसी संकट के बाद बाजार में पैसों की तंगी और एक के बाद एक नए नियमों से वाहन उद्योग ऐसे भंवर में फंसा है, जिससे निकालने का रास्ता खुद सरकार को समझ में नहीं आ रहा. ऊपर से कोरोना महामारी और पेट्रोल-डीजल की आसमान छूती कीमतों ने रही -सही कसर पूरी कर दी. भारत में वाहनों की उत्पादन लागत और करों का बोझ इतना ज्यादा है कि एंट्री लेवल या शुरुआती कारों की कीमतें भी आम आदमी की हैसियत से ऊपर जा चुकी हैं. कुछ सालों में वाहनों की कीमतें  45 से 50 फीसदी तक बढ़ी है.  वाहन उद्योग लगातार सरकार से अपील कर रहा है कि वह कीमत घटाने में मदद करे. आवागमन की बुनियादी जरूरत में शामिल दुपहिया वाहनों पर भी सरकार ने 28% जीएसटी लगा रखा है. टैक्स की यह दर असल में लग्जरी चीजों के लिए है. इसे 18% करने की मांग को लेकर पिछले कई सालों से उद्योग जूझ रहा है. कीमत को लेकर भारतीय ग्राहक बहुत संवेदनशील है. वाहन कंपनियां भी मान रहीं हैं कि जब तक कीमतें नहीं घटेंगी, भारत में वाहनों का बाजार नहीं बढ़ेगा. अगर देश में वाहनों की मांग नहीं बढ़ी, तो वाहनों का निर्यात भी कंपनी को बचा नहीं पाएगा.

वाहन उद्योग रोजगार के साथ-साथ स्टील समेत दूसरे उद्योगों के लिए भी रास्ता खोलता है. देश में स्टील की दस फीसदी खपत वाहन उद्योग में है. अगर वाहन उत्पादन या बिक्री प्रभावित हुई, तो उसका सीधा असर स्टील सेक्टर पर होगा. वाहन उद्योग को लेकर सरकार की तरफ से वादे बहुत सारे हैं, पर असल में जो ठोस काम होने चाहिए, वह नदारद है.

 

 






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