हर मौत एक जिंदगी पर उधार छोड़ जाती है.

विनीत कुमार

25 साल की टीवी कलाकार प्रेक्षा ने की आत्महत्या :

क्राइम पेट्रोल जैसे टीवी कार्यक्रम से लोकप्रियता हासिल कर चुकी प्रेक्षा ने आत्महत्या कर ली. ख़बर के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान काम न मिलने की वजह से प्रेक्षा ( प्रेक्षा मेहता ) बेहद परेशान थी और वो इस कदर डिप्रेशन में थीं कि आत्महत्या के अलावा दूसरा कोई रास्ता नज़र नहीं आया. वो इस बीच मुंबई से वापस अपने घर इंदौर लौट आयीं थीं.

पच्चीस साल की प्रेक्षा के आगे जिंदगी के कई मुकाम आते, वो काफी कुछ कर सकती थी लेकिन इन सबकी परवाह किए बगैर उसने मौत को चुना.( आत्महत्या की वजह का अंतिम रूप से पुष्टि किया जाना बाकी है )

मैं जब इस ख़बर से गुज़रा और फेसबुक पर इससे संबंधित पोस्ट खोजने की कोशिश की तो पाया कि कुछ जो इनके दोस्त इसे बेहद करीब से जानते थे, वो इस बात की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं कि प्रेक्षा आत्महत्या के लिए सोच भी सकती है. टीवी से पहले वो रंगमंच की जुझारू रंगकर्मी के तौर पर अपने दोस्तों के बीच जानी जाती रहीं. पाश की पंक्तियां दोहराया करतीं- सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना.

एक के बाद एक मैंने जितने लोगों की आत्महत्या से जुड़ी ख़बर से गुज़रता हूं उनके दोस्त, परिजन ये बात जरूर लिखते हैं कि कोई यकीं ही नहीं कर सकता कि वो आत्महत्या कर सकता है/कर सकती है. इसका एक मतलब है कि आत्महत्या करनेवाले एक ही साथ दो जीवन जी रहे होते हैं- एक सार्वजनिक जीवन जिसमें कि वो बिंदास, खुशमिज़ाज और मिलनसार होकर लोगों के बीच लगातार सक्रिय और काम करते नज़र आते हैं. दूसरा कि एक ऐसा जीवन जिसमें कि भीतर ही भीतर वो मान चुके होते हैं कि वो जिस परेशानी से जूझ रहे हैं, उन्हें समझनेवाला कोई नहीं हो सकता. उसके साझा करने का मतलब है अपने ही लोगों के बीच मजाक का पात्र बन जाना. वो इसलिए अपने इस जीवन को जब तक संभव होता है, संभालते हैं और न संभालने की स्थिति में इस दुनिया को चुपचाप अलविदा कहकर निकल लेते हैं. प्रेक्षा ने शायद ऐसा ही किया हो.

मैं आपसे एक बार फिर दोहराता हूं- आपकी फ्रेंडलिस्ट में जो हजारों लोग हैं न, शाम की नीली रौशनी के साथ हर दूसरा टकरानेवाला जो आपसे कहता है- हाय, आप यहां..एक सेल्फी प्लीज..वो आपकी जिंदगी में कई बार महज एक संख्या हों जिसका लाभ आपको अपने करिअर में मिल सकता है. आप सोशल मीडिया की हिट्स-लाइक्स से थोड़े वक्त के लिए खुश हो सकते हैं..लेकिन यदि आप महत्वकांक्षी है, जीवन में बहुत कुछ करना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको एक सुरक्षा कवच तैयार करनी होगी. ये सुरक्षा कवच किसी सिक्यूरिटी एजेंसी के बूते नहीं, भावात्मक स्तर की मजबूती का एक ऐसा घेरा जो चट्टान की तरह आपके साथ हो. आपके हर फैसले और सपने के साथ खड़ा रहे. इमोशन क्राइसिस को दुनिया के आगे पोस्टर बनाकर पेश न करता हो. उस कमजोर क्षण से आपको जज न करता हो. इन सबके बजाय थोड़ा भी इधर-उधर होने पर वो घेरा आपको थाम न ले. माय स्पेस सुनने में बहुत अच्छा लगता है, प्रोफेशनल ग्रोथ के जरूरी भी होता है लेकिन आप बात-बात में माय स्पेस करके सवालों से, परेशानियों से बचना चाहेंगे तो एक समय ऐसा आएगा कि आपके अपने ही बीच के लोग आपको इग्नोर करने लगेंगे और उनके पास आपके लिए जबाव होगा- मुझे लगता है इससे आपकी प्राइवेसी खत्म होती है.

एक बात याद रखिए. हमारा भारतीय समाज सच्चे अर्थों में आधुनिक समाज है नहीं. यह ढांचागत रूप में बहुत अस्त-व्यस्त और खिचड़ी समाज है. सिंग्लस के लिए तो और भी जर्जर हालत का समाज है. लोग परिस्थितियों के दबाव में आकर रिलेशनशिप में आते हैं, शादी कर लेते हैं लेकिन भावनात्मक स्तर के खालीपन से उबर नहीं पाते. ऐसे में आपको अपने इस भावनात्मक घेरे को और मजबूती देनी होगी.

एक शब्द है- सोलमेट. अपने ही लोगों ने इस शब्द को इतना घिस दिया है कि अब इसका मतलब सिर्फ पार्टनर, पति, पत्नी आदि से लिया जाता है. व्यवहार में ऐसा है नहीं. मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि किसी की पत्नी कोई और है, पति कोई और है लेकिन सोलमेट उसकी बहन, मां या भाई है. कोई दोस्त है. शब्दों को फैशन से नहीं, उसके असर से समझा जाना चाहिए. क्यों मेरी-आपकी दीदी, मां, दोस्त सोलमेट नहीं हो सकती ? अपने पार्टनर, पति, पत्नी को हम एक कम्प्लीट पैकेज के तौर पर देखना चाहते हैं जिसमें कि ऐसा ओएस सिस्टम हो कि बाकी किसी की जरूरत न रह जाय . दूसरा ये कि हम संपर्क का घेरा इतना बड़ा बनाते जाते हैं कि हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति अपने करीब का लगने लगता है जबकि ये स्थिति भी भीतर के खालीपन को भरे में नाकाम रहती है.

मैं न मामलों का कोई विशेषज्ञ नहीं हूं लेकिन मैंने अपने करीब, परिचित और प्रोफाइल की ऐसी जितनी भी मौत देखी है जिसकी वजह आत्महत्या रही है, मुझे रत्तीभर भी इस बात को समझने में दिक्कत नहीं होती कि कोई क्यों अपनी जिंदगी से पिंड छुड़ाना चाहता है ? मैं समझ पाता हूं कि एक-एक करके वो भावनात्मक घेरा कमजोर पड़ता जाता है, टूटता जाता है और इंसान ऐसी स्थिति तक पहुंच जाता है कि उसे लगने लगता है कि उसके पास एक भी ऐसा शख्स नहीं है जिससे अपने मन को साझा किया जा सकता है.

प्रेक्षा ने लॉकडाउन के दौरान जो डिप्रेशन हम सबके बीच पसर रहा है, उसके प्रभाव में आकर आत्महत्या कर ली. सुसाइड नोट्स पर लिखा- सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना.

पाश ने ये पंक्तियां लिखते हुए कभी सोचा भी होगा कि कोई इस देश में ऐसी भी कलाकार होंगी जो सुसाइड नोट्स के लिए इसका इस्तेमाल करेंगी ? जिस कविता से प्रेक्षा ने ये पंक्ति उठायी है, उसमें जीवन के प्रति कितनी गहरी आस्था है, कितना लगाव है-

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है

सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है

सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है

जुगनुओं की लौ में पढ़ना

मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है

सबसे ख़तरनाक नहीं होता

यानी जीवन हर हाल में जिया जा सकता है और इस जीवन के भीतर बस कुछ सपने बरकरार रहें.

थिएटर से जुड़ी प्रेक्षा के सपने में शामिल होगा- उनका करिअर, उनकी लोकप्रियता, व्यक्तिगत जीवन और उपलब्धियां. इसमें बस थोड़ा दूसरों की परेशानियों को शामिल कर लिया जाता तो ये सपने कितने अलग अंदाज में दिखते..

आप जब भी बहुत परेशान हो, बेचैन हों, लगे कि अब जीवन भारी पड़ने लगा है, उन लोगों के बीच चले जाइए जिनके लिए अभी भी नियमित रोटी, चप्पल, छाता,गमछे का मिलते रहना जीवन की जरूरत नहीं, हसरतें हैं. आप चारों तरफ ब्रांडेड कपड़ों,जूतों और सर्टिफिकेट से लैस कमरे के बीच की हताशा को खुद ही झूठा करार देने लग जाएंगे. दूसरों का संघर्ष यदि आपके सपनों में शामिल है तो आप कभी ख़ुद को इस हालत में नहीं आने देंगे जिससे कि लगे कि आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं.

हमारे बीच से ग़ुजर जानेवाला हमारे लिए बहुत कुछ छोड़ जाता है. हर मौत एक जिंदगी पर उधार छोड़ जाती है. प्रेक्षा जैसी प्रतिभा का उधार ये कि लॉकडाउन में आप असुरक्षित, हताश और बेचैन महसूस करते हैं तो ये समझने की कोशिश कीजिए कि अभी जो बस, रेलवे की सीट के लिए, रोटी के लिए, धूप से बचने के लिए, हवाई चप्पल के लिए जूझ रहा होगा, उसके भीतर ऐसी कौन सी उम्मीद बची रह गयी है कि वो जीना चाहता है..इस सवाल से ग़ुजरने के बाद आप अपने भीतर दर्जनों वजह खोज पाएंगे. जिंदगी जीने की चीज है, इसे ज्यादा विमर्श बनाएंगे तो उलझते चले जाएंगे. अभी तो बस रोज़ का गुज़र जाना ही उपलब्धि है.

तस्वीर साभारः टाइम्स नाउ हिन्दी






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