मेरा गोपालगंज : नगीना केवल गोपालगंज में ही नहीं सिवान में भी पसरा था

मेरा गोपालगंज : नगीना केवल गोपालगंज में ही नहीं सिवान में भी पसरा था
M K Pandey
 मुझे याद है तब मैं सेंट जोसेफ में पढ़ता था। छोटी उम्र रही पर याद में श्याम चित्र मंदिर का वह दौर याद है, जब हम ललन चा के रिक्शे पर बैठकर सपरिवार फ़िल्म देखने जाया करते थे। मम्मी तो खैर सिवान शहर की थीं तो उन्होंने खूब फिल्में देख रखी थी पर पापा भी फिल्मों के कम आशिक नहीं थे। पापा की मानी जाए तो आज भी रीना राय, हेमा मालिनी से बेहतर हीरोइनें न हुईं न होंगी। पापा मम्मी के साथ ही हमने “नगीना” देखा था। श्याम चित्र मंदिर में। शायद साढ़े पांच शाम वाले शो में। नगीना का शहर में खासा रौला मचा हुआ था। हर ओर श्रीदेवी श्रीदेवी और उससे उस फ़िल्म से जुड़ी झूठी-झूठी (वाकई जो तब सच लगी थीं) मिर्च मसाले की खबरें आती रहती थीं। हमारे पड़ोस में निम्मी की माँ सीतामढ़ी से थीं, उनके हिस्से ऐसी कथाओं का ऐसा पिटारा था जो नगीना श्रीदेवी अमरीशपुरी से शुरू और उसी पर खत्म। खेलते- कूदते ये किस्से हमें भी सुनाई देते थे। सो उन बे-सिरपैर की कहानियों का विस्तार स्कूल ले जाने वाले डिब्बा रिक्शा गाड़ी और फिर स्कूल में पिछली बेंच पर बैठकर खुसरफुसर में होता था। स्कूल ले जाने वाली डब्बा रिक्शा गाड़ी चालक मुनि दादा भी कम फिल्मी नहीं था। कसा हुआ गठीला, चमकता गहरे रंग का दरम्याना कद और लंबे बालों में वह मुझे मिथुन चक्रवर्ती का गोपालगंज संस्करण ही लगता था।

गोपालगंज के हिस्से के कुछ चित्र बरास्ते स्कूल, घर, बंजारी मोड़, थाना रोड, मिंज स्टेडियम, सिनेमा रोड भीतरखाने में आज भी कहीं गहरे छपे हुए हैं। वैसे ही जैसे स्कूल के बाहर बिकने वाला 25 पैसे का गुलाबी जीरा का चौकोर पैकेट, गुड़ का गाटा, बम्बईयाँ मिठाई बेचने वाले की आठ आने में बनाई हुई घड़ियाँ, बिच्छू और गंदे से दिखने वाले ठेले वाले का आलू चप और गोलगप्पे जो बिना किसी बीमारी के हो ही नहीं सकते थे पर कभी कोई बीमारी हुई नहीं, ना वह स्वाद दुबारा कहीं किसी आउटलेट, किसी शहर में आया। सूर्या स्वीट्स भी उन दिनों मौनिया चौक पर नया-नया ही खुला था जो बेकरी, डॉयफ्रूट्स, चॉकलेट्स, मॉडर्न ब्रेड्स जेम्स, जैसे चीजों का तब एकमात्र अड्डा था। उसी के सामने जनता सिनेमा के पोस्टर का अड्डा था जो बाँस के खम्भों से अपनी फ़िल्म की सूचना देता था। इस पोस्टर को देखने का अपना ही आनंद था। पर इन सबसे अलग है आज का किस्सा फ़िल्म “नगीना” का।

श्याम चित्र मंदिर में उस रोज शाम के शो के लिए अहाते में घुसते ही हमने देखा था श्रीदेवी का नीली चौड़ी आंखें किए, अपने दोनों हाथों को नाग/नागिन के फन की तरह किए लगभग 15 फुट का प्लाईवुड का कटआउट लगा हुआ है। बढ़िया एकदम फ़िल्म की तरह भव्य विशाल आधे तो हम उसी में डूब गए थे। पापा उसको देख रहे थे और जब उन्होंने पाया की उनके दोनों बेटे भी उसी क्रिया में हैं तो धीरे से कहा – ‘बड़ा मेहनत से बनवले बाड़न सन।’- आप इसे साहित्यिक लहजे में खींसे निपोरना कह सकते हैं। सिनेमा में मैनेजर पापा के साथ वी.एम. हाई स्कूल (विक्टोरिया मेमोरियल) में पढ़े थे, या हमारे गाँव के थे, सो उस हॉउसफुल मारामारी वाली स्थिति में भी टिकट और मनचाही सीट मिल गयी। हम खुश थे कि अगले दिन स्कूल और स्कूल वाले रिक्शा में किस्सेबाज़ हम होंगे।

निम्मी की माँ हमसे पहले देख आयीं थी। उन दिनों हम गाँव में नहीं, बंजारी रोड के पास पुलिस लाइन के नजदीक परशुराम भवन में किराए पर रहते थे। सो आँगन एक ही था, सुबह पानी भरते हुए निम्मी की माँ ने मेरी माँ से कहा – “अरे दीदी! आपको कुछु मालूम है, कई जगह तो नगीना के नाईट शो में ढेर सारे साँप आ गये थे। शो बंद कर दिया गया।”- मेरी माँ वैसे तो शिक्षिका रही है और निम्मी की माँ से अधिक पढ़ी भी फिर भी किस्सागोई, मोहल्लागोई, सास-पतोहगोई, अगल-बगल के पारिवारिक कुट्टम-कुटाई का जितना प्रामाणिक ज्ञान निम्मी की अम्मा का था वह हैम सबके लिए भी आश्चर्यजनक रहता था। सो, मेरी माताजी ने पूछ लिया – बै? कहाँ? कइसे?- जवाब आया – “आरे फिलिमवा में जईसे ही अमरीश पुरिया बीन बजाया न त पासे में झाड़ झाँकाड़ वाला इलाका था वहीं से निकल निकल लर सब परदा की ओर जाने लगे तब हल्ला मचा और लोग बाहर भागे।”- माताजी हमें आकर यह क्या बताती, हमारे कान हमारे जिस्म से चिपके हुए थे पर रूहानी तौर पर निम्मी की माँ की बातों में लगे हुए थे। कानों से कहानी सिर में बैठी जिसे स्कूल में “प्रामाणिक” रूप से फैलाया जाना तय था।

निम्मी की माँ के नगीना पर प्रभाव को न तो हरमेश मल्होत्रा समझ सकते थे ना ही उसको लिखने वाले जगमोहन कपूर या रवि कपूर। अलबत्ता वह अगर निम्मी की माँ से मिले होते तो शायद निगाहें (नगीना पार्ट-2) के आगे का सोचते और उन्हें श्रीदेवी को लेकर ‘बंजारन’ जैसी फ्लॉप नहीं ‘नगीना की निगाहें उर्फ निम्मी की माँ का बयान” (पार्ट-3) बनाते। खैर ये तो हुई मजाक की बात। अगला किस्सा श्रीदेवी की हरी/नीली आँखों के होने और उनके नागिन में तब्दील होने से संबंधित है। निम्मी की माँ हमारे घर में बैठकर माँ के साथ शायद चावल बिनाई में लगी हुई थीं। उन्होंने बगल में पढ़ते हम बच्चों का कतई ख्याल न किया और सीधे एक किस्सा फिर दे मारा। अब जैसे सीजन सावन का, बसन्त का, ब्याह का, जेठ का, बारिश का होता है। वैसे ही सीजन नगीना का उफान पर था। निम्मी की माँ ने चावल बीनते बीनते कहा – “दीदी! ई सिरीदेविया का आँख जो बुल्लू हरिहर होता है न फिलिम में? वईसा करने से बेचारी का आँख का रोसनी चाला गया था। बड़ी मुश्किल से अमिरका जाकर ठीक करायी है।” – हम बाजू में बैठे, क्या ही अरविंद सर के दिए गणित का होमवर्क करते या बेवजह पीटने में उस्ताद दढ़ियल प्रेम सर के दिए विज्ञान का होमवर्क। अगली कहानी मिल गयी थी। श्रीदेवी की नीली/हरी होती आँखों का राज, जिसे स्कूल में पसारना तय था। वैसे निम्मी की माँ भली महिला और मददगार पड़ोसन थी। उतना ही लड़ती थी जितना कायदे से पड़ोसियों को लड़ना चाहिए और भूल भी उतनी ही जल्दी जाती थीं, जितनी जल्दी भूलना चाहिए। न वे पड़ोसी रहें ना, वह मेलभाव। खैर…

नगीना केवल गोपालगंज में ही नहीं पसरा था। पड़ोसी जिले सिवान में कागज़ी मोहल्ला के पेंटर विश्वनाथ आर्ट्स ने सिवान शहर के लगभग सभी रिक्शाओं के पीछे श्रीदेवी का वही कटआउट वाली पेंटिंग नीली/हरी के आंखों के साथ रंग दिया था। उस समय के हिसाब से प्रति रिक्शा 75 रुपये कोई कम नहीं थे।

आज घर में बैठे-बैठे ‘तूने बेचैन इतना जियादा किया, आजकल याद कुछ और रहता नहीं, एक बस आपके याद आने के बाद’ सुनते हुए, उन्हीं गलियों में दौड़ आया।
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#सेंट_जोसफ_मेरा_बचपन
( एम के पांडे गोपालगंज के मूलनिवासी हैं और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं)






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