चल रे बुधनमा, देश चलाओ

Bihar Katha

नवल किशोर कुमार
पटना में मेरे एक मित्र हैं। बहुत लंबा समय हो गया उनसे मिले। आखिरी बार जब हम मिले थे तब वे बनारस में थे और मैं पटना में। अब शायद वे पटना में हैं और मैं दिल्ली में। नाम है राजेश ठाकुर। भाषा पर पकड़ अच्छी है। विषयों की समझ भी है। फेसबुक पर इनदिनों उन्हें देख पाता हूं। बुधनमा शब्द उनका ही है।

खैर इस लेख में बुधनमा देश का शासक वर्ग है। कोई एक व्यक्ति नहीं। कोई एक व्यक्ति अकेले इतने बड़े देश को चला भी नहीं सकता। नरेंद्र मोदी भी कहां चला पा रहे हैं पिछले पांच साल से। देश की हालत दिन पर दिन बदतर हो रही है। अपराध, धार्मिक कट्टरता, बेरोजगारी, गरीबी, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, कुपोषण संबंधी सभी आंकड़े गवाह हैं। लेकिन जनता ने फिर उनपर विश्वास किया है।

तो हम बात करेंगे बुधनमा की। नरेंद्र मोदी की तो बिल्कुल नहीं। वैसे भी उनको मुखौटा ही कहा जाता है। असली तो आरएसएस के लोग हैं। लेकिन बुधनमा केवल आरएसएस भी नहीं है। यह तो पूरी जमात है जो इस देश पर राज कर रहा है। वह अंबानी, अडाणी से लेकर गांव-गिराम में दुकान खोलकर बैठे बनिया साहूकार भी है। इकोनॉमिक्स के प्राइमरी और सेंकेंडरी सेक्टर पर उसका कब्जा तो है ही टर्सियरी सेक्टर पर भी खूब पकड़ है। वह पानी से पैसे बनाने की कला जानता है।

बुधनमा केवल बनिया नहीं है। वह तो ब्राह्मण भी है। भीख मांगकर खाने वाले ब्राह्मण से लेकर इस देश में बीफ का कारोबार करने वाला ब्राह्मण तक। हालांकि अब उसका राज पहले जैसा नहीं रहा। शुद्रादि उसका मजाक बनाते रहते हैं। राजपूत अब उसे सत्ता का साझेदार नहीं मानता। कायस्थ उसके ज्ञान को चुनौती देता रहता है। तो यह जो बुधनमा ब्राह्मण है, उसकी अपनी बेचैनी है। बनिया उसके माथे पर चढ़कर नाच रहा है।

बुधनमा राजपूत भी है। मुसलमानों से राज-प्रतिष्ठा गंवाने वाला यह बुधनमा आज भी इसी फिराक में है कि भारत की सत्ता उसको ही मिले। उसका तर्क है कि मुसलमानों ने भारत की सत्ता राजपूतों से ली। अंग्रेजों ने मुसलमानों से। लेकिन 1947 में अंग्रेजों ने धोखा दे दिया। सत्ता राजपूतों को न सौंपकर ब्राह्मणों को दे दी। अब तो यह बुधनमा न घर का है और न घाट का। यूपी में राजपूत राजा है लेकिन उसको भी ब्राह्मण का चोला पहनना पड़ा है। राजपूतों वाली बात कहां है उसमें। देखने में ही कोई मसखरा लगता है।

बुधनमा कायस्थ भी है। पढ़ाई-लिखाई का बोझा ढोने वाला समाज। हमेशा इस गर्व में जीता है कि देश तो उसके कारण ही चल पा रहा है। खेती करने से, चप्पल-जूता सीने से, कपड़ा धोने से, सिर पर मैला ढोने से, गाय-भैंस चरावे से और पंडितई करने से थोड़े न यह देश चलता है। यह देश तो कायस्थों के कारण चल रहा है। चित्रगुप्त बाबा की कृपा से। लेकिन यह बुधनमा भी आजकल परेशान है। राजपूत और भूमिहार के लौंडे कायस्थों की बैंड बजा जाते हैं। ब्राह्मण तो पहले से तोप निकाले बैठा है। कालेलकर बाबा ने शुद्र बना दिया था इस बुधनमा को तब उम्मीद जगी थी कि शुद्रों में तो वह सर्वश्रेष्ठ कहलाएगा ही। लेकिन मंडल आयोग ने उसकी यह उम्मीद भी तोड़ दी।

जैसा कि मैंने कहा कि बुधनमा अकेले नहीं है। सबको हिस्सेदारी चाहिए। धन में, नौकरी में, ठेकेदारी में। हां बाकी जो लोग हैं, उनको कुछ नहीं चाहिए। चाहिए भी क्यों? उन्हें मिल जाएगा तो बुधनमा के नाम का नारा कौन लगाएगा।

चल रे बुधनमा, चल। अब देश चलाओ। यह मुलुक मुर्दों का मुलुक है। कोई कुच्छों नहीं बोलेगा।






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