मुस्लिम तुष्टीकरण के फंदे में फंसा तीन तलाक विधेयक

संजय तिवारी.नई दिल्ली.
भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े नेताओं, बुद्धिजीवियों का प्रमुख मुद्दा रहा है पितृसत्तात्मक व्यवस्था। वो जब पितृसत्तात्मक व्यवस्था कहते हैं तो उसका मतलब होता है कि भारत की सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं को वह स्थान नहीं दिया गया, जिसका हक उन्हें हासिल है। उनका मानना है कि भारत में पुरुष प्रधान व्यवस्थाएं हैं जिस व्यवस्था में महिलाओं को हाशिए पर रखा गया है। लेकिन इसी कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े एक सांसद मोहम्मद सलीम लोकसभा में तीन तलाक विधेयक पर बोलने के लिए खड़े हुए तो अचानक से उन्हें अपनी ही विचारधारा का विस्मरण हो गया। वो भूल गये कि उनकी कम्युनिस्ट विचारधारा पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ है और हर हाल में उन्हें स्त्री अधिकार की रक्षा करनी चाहिए। संभवत: थोड़ी देर के लिए उनका कम्युनिज्म उनके चरित्र से गायब हो गया और वो एक सच्चे मुसलमान की तरह सदन में यह कहकर बोलने के लिए खड़े हुए कि वो इस विधेयक के विरोध में बोलने के लिए खड़े हुए हैं।
कुछ देर के लिए सीपीआई एम के मोहम्मद सलीम और आल इंडिया इत्तेहादुल मुसलमीन के असद्दुद्दीन ओवैसी दोनों सहोदर हो गये। एक कथित प्रगतिशील विचारधारा मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ खड़ी हो गयी। लेकिन कम्युनिस्टों के लिए यह कोई नयी बात नहीं है। भारत की आजादी के आंदोलन में वो ब्रिटिश हुकूमत के लिए कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मुखबिरी करते थे। भारत के बंटवारे की बयार बही तो कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया जिन्ना के साथ बह गयी। उस वक्त के कम्युनिस्ट नेताओं जिन्ना का स्टेज सजाया और मुस्लिम लीग के पैम्फलेट लिखे। लेकिन सवाल कम्युनिस्ट सलीम या इस्लामिस्ट ओवैसी से नहीं है। तीन तलाक के खिलाफ आये विधेयक पर सवाल के घेरे में समूची राजनीति खड़ी है। क्या मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक सिर्फ इसलिए मिलता रहना चाहिए क्योंकि कांग्रेस, कम्युनिस्ट और इस्लामिस्टों का गठजोड़ यही चाहता है? क्या वो हलाला के नर्क में बार बार इसलिए गिरती रहें क्योंकि इस्लाम की मर्दवादी व्यवस्था को यही मंजूर है?
आखिर क्यों नहीं खड़ा होता सीपीआईएम उस मर्दवादी व्यवस्था के खिलाफ जिसके खिलाफ मिस्र और ईरान में भी मुस्लिम महिलाएं खड़ी हो रही हैं? आखिर क्यों भारत के कथित प्रगतिशील विचारधारा और सेकुलर पॉलिटिक्स से जुड़े राजनीतिक दल मुसलमानों के भीतर किसी सामाजिक सुधार को स्वीकार नहीं करना चाहते? क्या सिर्फ इसलिए कि इससे उनकी बहुसंख्यक हिन्दू समाज के खिलाफ जारी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति खंडित होती है या फिर वो सिर्फ इसलिए खिलाफ है क्योंकि ये प्रस्ताव भाजपा की तरफ से लाया गया है?
इस्लाम में पर्सनल लॉ है और पूरी दुनिया में एक समान है। इस्लाम अपने अलावा किसी भी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को न तो स्वीकार करता है और न मान्यता देता है। आधुनिक विश्व की अधिकांश लड़ाइयों के मूल में यही टकराव है जब कम्युनिस्ट विचारधारा के खिलाफ लड़कर इस्लाम ने अपने आप को मूल स्वरूप में फिर से स्थापित करने की कोशिश की। फिर वो चाहे ईरान में हो या फिर अफगानिस्तान में। जहां जहां मुसलमान ने प्रगतिशील होने की कोशिश किया इस्लाम ने ही उसका रास्ता रोक दिया। मिस्र से लेकर सीरिया तक। सच्चा इस्लाम कम्युनिज्म से इसलिए लड़ रहा है क्योंकि वो सामान्य जन जीवन में आधुनिकता को बढ़ावा देता है। जाहिर है, ऐसा इस्लाम अपने पर्सनल लॉ में किसी प्रकार का दखल बर्दाश्त नहीं करता। क्योंकि दखल होने का मतलब होगा मुसलमान पर इस्लाम के प्रभाव में कमी और ऐसा होते ही मुसलमान इस्लाम के कटघरे से बाहर हो जाता है।
लेकिन भारत में तो इस्लाम कोई सवाल नहीं है। न भारत इस्लामिक मुल्क है और न भविष्य में इसके होने की संभावना है। फिर क्यों नहीं भारत में मुसलमानों के लिए भी वही सामान्य संवैधानिक नियम कानून होने चाहिए जो अन्य मतावलम्बियों के लिए हैं? अगर मुस्लिम महिलाओं का एक वर्ग निकाह हलाला और तीन तलाक से मुक्ति चाहता है तो क्या भारत की सरकार का यह दायित्व नहीं बनता है कि वह अपने नागरिकों को समानता का अधिकार दे? मोदी सरकार संसद में जो विधेयक लेकर आयी है वह सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के आधार पर ही लाई है। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को अपराध की श्रेणी में माना है इसलिए इसे रोकने के लिए कोई कानून बनाते समय सजा का प्रावधान करना सरकार की जिम्मेवारी बनती है। ऐसे में अगर सरकार ने तीन साल की सजा का प्रावधान किया है तो कुछ गलत नहीं किया है। फिर आखिर विरोध किस बात का हो रहा है?
असल में भारत के ज्यादातर सेकुलर राजनीति का पाखंड करनेवाले राजनीतिक दल बड़ी बेशर्मी से तीन तलाक विधेयक पर मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति कर रहे हैं। वो नहीं चाहते कि मुस्लिम महिलाओं के सिर से तीन तलाक की तलवार कभी हटे क्योंकि ऐसा होने पर उनके मुस्लिम मर्द वोटर नाराज हो जाएंगे। इसलिए तरह तरह के बहाने बनाकर वो संसद में इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। दुर्भाग्य ये नहीं है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ लड़नेवाले कम्युनिस्ट इस्लामिस्टों के साथ खड़े हैं बल्कि दुर्भाग्य ये है कि इस देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ खड़ी है। सोनिया गांधी भले स्वीकार करें कि उनकी पार्टी के ऊपर मुस्लिम पार्टी होने का ठप्पा लग गया है लेकिन सच्चाई ये है कि तीन तलाक विधेयक का विरोध करके कांग्रेस ने अपने ऊपर तुष्टीकरण का काला धब्बा लगा लिया है जिसका नुकसान उसे चुनाव में उठाना ही पड़ेगा। जहां तक भाजपा की बात है तो तीन तलाक पर कानून बने या न बने भाजपा फायदे में ही रहेगी।






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