सरकारी तंत्र का इमेज होता है उतना काम नहीं करता है जितना आपका व्यक्तिगत इमेज काम करता है

 भागलपुर दंगे पर बिहार के पूर्व डीजीपी अभयानंद का ऐसा संस्मरण जो आपको हिला देगा

सरकारी तंत्र का इमेज होता है उतना काम नहीं करता है जितना आपका व्यक्तिगत इमेज काम करता है
अभयानंद बिहार, पूर्व डीजीपी,बिहार
एक घटना मेरे एडीजी रहने के दौरान भागलपुर के कहलगाँव में हुई थी. वहां भी हिन्दू-मुस्लिम समस्या हो गयी थी और मुझे हेलीकॉप्टर से भेज दिया गया कहकर कि जाइये और वहां सम्भालिये. मैं वहां पहुंचा तो देखा पब्लिक ने ही 144 लगा दिया था. 6 -7 पुलिस की गाड़ियां जला दी जा चुकी थीं. सी.आई.एस.एफ. के कई जवान बंधक बना लिए गए थें. स्थिति इतनी भयावह थी कि मीडिया के लोग भी उस अनियंत्रित भीड़ के पास नहीं जा पा रहे थें. डर इतना था कि मीडिया के लोग थाने में ही एकत्रित हो गए थें. माहौल पूरा पुलिस के अगेंस्ट था. उनकी डिमांड थी कि एस.पी. को फांसी दो, डी.एम. को मौत के घाट उतार दो. हालत इतनी खराब थी कि बाजार में पुलिस के पैसे देने पर भी लोगों ने खाना देना मुनासिब नहीं समझा. अगर हम पुलिसवाले चाहते कि कहीं होटल में बैठकर खा लें तो वो संभव नहीं था. मैंने तय किया कि मैं अकेला निकलूंगा. मैं अकेला सादे लिबास में सड़क पर हाथ जोड़े निकल गया. सड़क किनारे एक मकान की खिड़की से एक आदमी झांक रहा था. मैंने उसके पास जाकर अपना नाम बताया और कहा कि ‘पटना से आया हूँ आपलोगों से बात करने के लिए.’ वो बाहर निकला और कहा- ‘चलिए आपके साथ चलते हैं, फिर एक-दो और लोग निकल गए और इस तरह से छोटा सा एक कारवां बन गया. करीब 3 -4 किलोमीटर चलने के बाद जब मैं शहर के बीच में पहुंचा उस समय तक अँधेरा होने लगा था. वहां पर एक व्यक्ति मिला तो उसने कहा- ‘ आप शहर में कहाँ जाइएगा, आप आ जाइये मैदान में पब्लिक यहीं आ जाएगी. कहलगाँव में एक गांगुली मैदान है रेलवे स्टेशन के पास, उसी मैदान में मैं खड़ा हुआ और करीब 10 हजार की भीड़ जमा हुई. एक माइक और लाऊड स्पीकर कहीं से लाया गया. और पब्लिक ने भाषण देना शुरू किया. पुलिस को चुन-चुनकर गालियाँ पड़ रही थीं. मैं शांत था. तब किसी ने कहा कि ये आये हैं पटना से तो इनको भी बोलने दिया जाये.’तो मैंने शुरू किया कि ‘चार दिनों से फायरिंग हो रही है यहाँ, बहुत से लोग शहीद हो गए हैं. पहले हम चाहेंगे उन दिवंगत आत्माओं के लिए 2 मिनट का मौन रखा जाये. उसके बाद हमलोग बात करेंगे.’ फिर मेरे सुझाव को मानकर लोगों ने मौन रखा. उसके बाद मैंने उनसे बात करनी शुरू की और ये बातचीत बहुत लम्बी चली. मुझे याद है 6 बजे शाम से करीब रात 10 बज गया तब जाकर मामला तय हुआ. उन लोगों का कहना था कि आपलोग तो इन्वेस्टीगेट कीजियेगा नहीं. मैंने कहा- ‘एकदम थाना खुला हुआ है, जिसके खिलाफ आपको एफ.आई.आर. करनी है आइये और कीजिये. मैं कराऊंगा इन्वेस्टिगेशन. उन लोगों ने बात मानी और फिर रात 10 बजे पूरे चार दिन का माहौल शांत हुआ. उधर से जब मैं पैदल ही लौट रहा था तो मेरे साथ करीब 40 -50 जवान लड़के हो गएँ और उन्होंने अपनी लोकल भाषा में कहा कि ‘चलिए आपको थाना तक पहुंचाते हैं.’ और वे रास्ते में हमसे बात करते जा रहे थें. तब उनमे से एक ने कहा कि ‘सर आप गलत समय पर आ गए हैं. अगर अच्छे समय पर आये रहते तो हमलोग पढ़ने-पढ़ाने की बात करतें. तब मुझे एहसास हुआ कि ये सुपर 30 का जो चैप्टर है ये मेरे पुलिस की छवि से ऊपर है. और इसलिए वे लोग मेरी बात सुन रहे थें. मेरा मानना है कि ये जो सरकारी तंत्र का इमेज होता है उतना काम नहीं करता है जितना आपका जो व्यक्तिगत इमेज है वो काम करता है.
(अभयानंद बिहार, पूर्व डीजीपी,बिहार के फेसबुक पेज से साभार )






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