2019 में विधानसभा का चुनाव नीतीश की मजबूरी – नवल किशोर कुमार


दोस्तों, कल जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने समाजवादी राजनीति को तिलांजलि देते हुए कहा कि वह और उनके मालिक यानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अगले वर्ष लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव कराने को तैयार हैं.
सवाल है कि खुद को सच्चे समाजवादी कहने वाले नीतीश कुमार घुटनों पर क्यों हैं?
जवाब बहुत जटिल नहीं है. जवाब 2014 में हुआ लोकसभा का चुनाव है जिसमें जदयू को केवल दो सीटे मिली थी. और वोट प्रतिशत के हिसाब से राजद सबसे अधिक वोट पाने वाली इकलौती पार्टी थी. हालांकि राजद को भी केवल 4 सीटें मिली थीं, लेकिन 27 लोकसभा क्षेत्रों में राजद उपविजेता रही थी. राजद की कामयाबी नीतीश कुमार ने समझ लिया और 2015 में विधानसभा चुनाव के पहले लालू के चरण पकड़ लिए.
खैर नीतीश कुमार राजनीतिक हालातों को सुंघने में सक्षम हैं. वह.सूंघ लेते हैं कि निकट भविष्य में क्या होने वाला है. उन्होंने सूंघ लिया कि तेजस्वी यादव भविष्य में सशक्त नेता साबित होंगे. उनके पर नहीं कतरे गए नीतीश कुमार को स्वयं भी राजनीति से बाहर होना पड़ेगा. उसके बाद जो खेल हुआ, वह सार्वजनिक है. परिणाम यह है कि भाजपा हार के बावजूद सत्ता में है और लालू जितने के बावजूद सत्ता से बेदखल.
लेकिन इसे लालू प्रसाद की राजनीति का हार मत समझिए. स्वयं नीतीश कुमार भी अपनी चालाकी को खूब समझते हैं और लालू की हार को नहीं बल्कि लालू की जीत को समझ रहे हैं. वह समझ रहे हैं लालू प्रसाद पूर्व की तुलना में अधिक मजबूत हुए हैं. ऐसे में यदि लोकसभा चुनाव के बाद यानी 2020 में विधानसभा का चुनाव हुआ तब लालू पूरी मजबूती के साथ राज्य में उभरकर सामने आएंगे. लेकिन यदि 2019 में चुनाव हुए तो RSS का राष्ट्रवाद और मोदी की कथित जादूगरी उन्हें सत्ता में बनाए रखेगी.
बहरहाल राजनीति इसी का नाम है. राजद प्रमुख लालू प्रसाद को भी समझना चाहिए कि उनका मुकाबला मजबूत प्रतिद्वंदियों से है. इसलिए लड़ाई की तैयारी अभी से शुरु कर देनी चाहिए. हालांकि आरएसएस यह लड़ाई 1930 के दशक से ही लड़ रहा है. नीतीश कुमार तो केवल मतलब के यार हैं. यह बात भाजपा भी समझती है.






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