ये क्या हो रह है बिहार में

सुभाष चन्द्र

सुभाष चन्द्र

सुभाष चंद्र 

सीवान में पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के पीछे जेल में बंद सजायाफ्ता पूर्व सांसद और राजद नेता शहाबुद्दीन का नाम लिया जा रहा है। पुलिस की अब तक कार्रवाई भी उन्हीं की ओर संकेत करते हैं। पिछले कई दशकों से सीवान में शहाबुद्दीन की इच्छा के बगैर पत्ता तक का खड़कना मुश्किल है। पत्रकार की हत्या के सिलसिले में जिन लोगों को पुलिस ने पूछताछ के लिए हिरासत में लिया या गिरफ्तार किया वे सभी पूर्व सांसद से जुड़े रहे हैं। कहते हैं, कई साल पहले सीवान जेल से शहाबुद्दीन की तरफ एक हिटलिस्ट जारी हुई थी, जिसमें राजदेव रंजन का भी नाम था। इन लोगों को रास्ते से हटाने की बात कही गई थी। बाहुबली राजनेता के कुछ गुर्गे से पत्रकार का रिश्ता भी इन दिनों काफी बिगड़ गया था। कहते हैं, काबीना मंत्री अहब्दुल गफूर की जेल जाकर शहाबुद्दीन से मुलाकात की तस्वीर लिक करने में भी राजदेव रंजन को जिम्मेवार माना गाय था। जो भी हो, पर राजदेव के परिजन बिहार पुलिस से मामले की तहकीकात को कतई मंजूर नहीं कर रहे ते। सो, उनकी मांग पर मामले की जांच की जिम्मेवारी केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंपने की सिफारिश नीतीश कुमार ने कर दी है। इस बीच यह सरकार ने इस महाबली राजनेता को सीवान जेल से भागलपुर केंद्रीय कारा में भेज दिया है। यह प्रमाणित हो गया कि इस ‘साहब’ का जेल में ही सप्ताह में दो दिन रविवार और बुधवार को दरबार लगता था। वह लोगों की समस्या के समाधान के लिए अधिकारियों से सीधी बात करता था। डीएम और एसपी ने छापेमारी में दर्जनों फरियादियों को पकड़ा और दर्जनों मोबाइल सेट भी बरामद किए। इसके बाद ही ‘साहब’ पर यह कार्रवाई की गई है। इसके साथ ही, सीवान जेल में ही बंद  सात और कुख्यात को मोतिहारी जेल भेजा गया है। इन सातों को पूर्व सांसद का विश्वासपात्र बताया जाता है।
सीवान में पत्रकार हत्याकांड में पुलिस ने जिन अपराधियों को हिरसात में लिया उनमें उत्तर प्रदेश का रहनेवाला एक शूटर चवन्नी ने तो बताया कि उससे एक पत्रकार की हत्या की सुपारी लेने की पेशकश की गई थी। चवन्नी एक पूर्व पत्रकार श्रीकांत भारतीय की हत्या के सिलसिले में पहले से गिरफ्तार है। ऐसे में मारे गए पत्रकार के परिजनों को बिहार पुलिस पर कैसे भरोसा होता? सो सीबीआई को मामले की जांच सौंपे जाने के बाद वे अब संतुष्ट से दिखते हैं।
   सूबे में कानून व्यवस्था और सत्ता के इकबाल के बारे में बहुत कुछ कहने की गुंजाइश नहीं है। एक पखवाड़े के भीतर मुजफ्फरपुर में दो-दो बैंकों को लूट लिया गया और दोनों बीच शहर में। इनमें कोई सत्तर लाख रुपए की लूट हुई। सीवान में एक पत्रकार की हत्या को लेकर सूबा अब भी असहज है, पर निहित स्वार्थी तत्व इससे बेखबर है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिला नालंदा के मुख्यालय बिहारशरीफ में जद(यू) के एमएलसी हीरालाल बिंद के गुर्गौं ने एक अन्य दैनिक समाचार पत्र के पत्रकार राजेश कुमर सिंह को जान से मारने की धमकी दी, यह भी उनके कार्यालय में घुस कर। इस प्रकरण में अब तक कोई पकड़ा नहीं गया है। पुलिस इस पर अब तक कुछ बोलने से परहेज करती रही है। इधर, एक पखवारे में जमीन माफिया और पुलिस का गठजोड़ खुल कर सामने आया है। राजधानी में दिन दोपहर एक बिल्डर को बसे लोगों को उजाड़ कर जमीन पर अनधिकृत कब्जा दिलाने में पुलिस के डीएसपी, इंस्पेक्टर समेत कई जवान लगे थे। पटना के पुलिस उप महानिरीक्षक (डीआईजी) शालीन ने इस मामले को गंभीरता से लिया। शालीन ने जांच-पड़ताल के दौरान पाया कि उनके अनेक जवान और अधिकारी गलत तरीके से जमीन कब्जा करने में बिल्डरों के मददगार हैं।
   सबसे चौंकानेवाला तो रक्सौल की घटना है। बिहार के इस सीमावर्ती नगर में जमीन फीट और गज के हिसाब से बिकती है और एक वर्ग फूट की जमीन की कीमत लाखों की होती है। सो, जमीन पर कब्जा करने पटना से दो बड़ी गाड़ियों (एसयूवी) में हथियार के साथ लदकर भू-माफिया के गुर्गे वहां गए। वहां पुलिस की मदद से जमीन कब्जा करने में वे सफल हो जाते। पर, स्थानीय लोगों के उग्र विरोध के कारण ऐसा हो नहीं सका। भू-माफिया के मददगार पुलिसकर्मियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। ऐसे में बिहार पुलिस पर कौन भरोसा करेगा और सत्ता का इकबाल कैसे कायम रहेगा? नालंदा, गया, औरंगाबाद, मुजफ्फरपुर, छपरा, बेतिया, भागलपुर, लखीसराय, खगड़िया, बेगूसराय आदि जिलों में अपराध का ग्राफ निरंतर बढ़ता जा रहा है। महागठबंधन के नेता जो भी कहें, सूबे में यह लोक धारणा (पब्लिक परसेप्शन) मजबूत होती जा रही है कि अपराधी बेलगाम हो रहे हैं।
   आंकड़े जो भी कहें, अपराधियों को सजा दिलाने की कार्रवाई काफी शिथिल हुई है। यह शिथिलता तफ़्तीश के स्तर पर भी है। पिछले पांच-छह महीने की किसी बड़ी आपराधिक घटना की जांच को अंजाम तक पहुंचाने या मुख्य आरोपित को पकड़ने में बिहार पुलिस कामयाब नहीं रही है। बिहार पुलिस के दो-दो दारोगा की हत्या हाजीपुर और मोकामा में अपराधियों ने कर दी। किसी कांड में अब तक मुख्य अपराधी को पकड़ा नहीं जा सका। दरभंगा में निर्माण कंपनी के दो इंजीनियरों की हत्या हुई, मुख्य आपराधी पुलिस की पकड़ में नहीं आ सका। पटना में लोजपा नेता वृजनाथी सिंह व भोजपुर में भाजपा नेता विश्वेश्वर ओझा के हत्यारों को पकड़ने में पुलिस अब भी सफल नहीं हो सकी है। पटना, मुजफ्फरपुर में व्यवसायियों की हत्या हुई। पर अभियुक्तों को अब तक पकड़ा नहीं गया। यह फेहरिस्त लंबी है, जो पुलिस की कार्य-कुशलता पर संदेह पैदा करते हैं। इतना ही नहीं, सूबे में माहौल बन गया है कि रसूखदार आरोपितों को पुलिस गिरफ्तार नहीं करती है, वे अदालत में सरेंडर करते हैं। बलात्कार के आरोपित विधायक राजवल्लभ प्रसाद, कांग्रेस विधायक सिद्धार्थ शर्मा, विधायक कुंती देवी के पुत्र रणजीत, एमएलसी मनोरमा देवी… सभी ने ऐसा ही किया। पुलिस ऐसे लोगों को गिरफ्तार करने में विफल क्यों रहती है?
   सूबे की कानून-व्यवस्था को लेकर यहां ‘जंगलराज की वापसी’ की चर्चा पूरे देश में चल पड़ी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस आरोप को जोरदार शब्दों में खारिज तो करते ही हैं, वह इन बातों से आहत भी दिखते हैं। उनके उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भी बिहार के लिए ऐसे विशेषण पर गहरी नाराजगी जताई है। जंगलराज की क्या परिभाषा है और इसकी कसौटी क्या है, यह कहना कठिन है। लेकिन बिहार में पुलिस की उदासीनता, गुनहगार को संदेह का लाभ देने की उसकी रणनीति, अपराधियों को पकड़नमे में जोखिम लेने से भागने की प्रवृति सत्ता के इकबाल को कायम करने में बाधक बन रही हैं। ऐसे में कानून अपना काम करेगा, एक जुमाल भर बन कर रह गया है।





Related News

  • क्या बिना शारीरिक दण्ड के शिक्षा संभव नहीं भारत में!
  • मधु जी को जैसा देखा जाना
  • भाजपा में क्यों नहीं है इकोसिस्टम!
  • क्राइम कन्ट्रोल का बिहार मॉडल !
  • चैत्र शुक्ल नवरात्रि के बारे में जानिए ये बातें
  • ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाही
  • कन्यादान को लेकर बहुत संवेदनशील समाज औऱ साधु !
  • स्वरा भास्कर की शादी के बहाने समझे समाज की मानसिकता
  • Comments are Closed

    Share
    Social Media Auto Publish Powered By : XYZScripts.com