जातिवादी राजनीति का मिथ और सच
संजीव चंदन
महाराष्ट्र का वर्धा जिला महात्मा गांधी के प्रयोगों का जिला है , वहां रहने के अपने 10 साल के अनुभवों से राजनीति का स्थानीय सूत्र जान पाया कि पार्टियां वहां टिकट देने में उम्मीदवारों की जाति का ख़ास ख्याल रखती हैं. जिले की राजनीति में तेली और कुणवी, दो जातियों के बीच ध्रुवीकरण है, टिकट बंटवारे में इसका ख़ास ख्याल रखा जाता है , यानी एक जाति का उम्मीदवार यदि एक पार्टी ने निश्चित किया तो दूसरी पार्टी का उम्मीदवार किस जाति से होगा वह स्वतः स्पष्ट हो जाया करता रहा है. इतने स्पष्ट जाति-आधारित राजनीति के बावजूद वहां या महाराष्ट्र में बिहार के नाम पर अक्सर मित्र लोग कहते मिल जाते रहे हैं कि बिहार में जातिवादी राजनीति होती है. इस बार फिर चुनाव में ह्य विकास और जातिवादह्ण की बायनरी ( द्वैध ) बनाई जा रही है.
बिहार के बारे में आखिर यह मिथ बना कैसे ! पूरे देश में जाति एक हकीकत है और इसीलिए जाति आधारित राजनीति भी. लेकिन राजनीति के जातिवाद का जुमला पूरे देश में 9 वें दशक में बनने लगा. दरअसल यही वह दौर है जब देश में सत्ता की हिस्सेदारी के लिए पीछे छूट गई जातियां निर्णायक दावेदारी की स्थिति में पहुँच गईं. मंडल कमीशन के लागू होने और नौकरियों में पिछड़ों की दावेदारी बढ़ने का दौर है यह. दलित झ्रआदिवासी पहले से ही आरक्षण के रास्ते से प्रतिनिधित्व की स्थिति में थे. पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था विचार झ्रविमर्श के संस्थानों पर काबिज समाज के ऊपरी तबके के लिए विस्थापन का भयबोध बन कर आई और वे स्टेट के द्वारा भागीदारी के इस प्रयास को जातिवाद करार देते हुए नये विमर्शों के साथ उपस्थित हुए. हालांकि यह उनका अंतिम और लचर बचाव था , लेकिन ह्य जातिवादह्ण का जुमला चल निकला. उसी समय बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद के प्रवेश से राजनीति में एक व्यापक शिफ्ट पैदा हुआ. ऊंची जातियों में शुमार जातियों के वर्चस्व को ठोस और आक्रामक चुनौती मिली. लालू प्रसाद शाब्दिक प्रहारों के साथ भी पीछे छूट गए पिछड़ों झ्रदलितों की आहत अस्मिता को सुकून दे रहे थे. ह्य भूराबाल ( भूमिहार , राजपूत , ब्राह्मण और लाला) परबल ( पंडित, राजपूत, बाभन और लाला) जैसे हिन्दी के नये शब्दों के साथ जाति-अस्मिता की राजनीति को खडा किया. उसी समय वंचितों और दलितों की हक़ की लड़ाई से समाज में और भी हलचल हो रहे थे. सेनाओं के जन्म का दौर था वह, जी काफी हिंसक रहा.
यह दौर नई अर्थव्यवस्था को भी लेकर आया. बाजार खुले , पुराने उद्योग नष्ट होने के लिए अभिशप्त हो गये, देश भर में सरकारी नियन्त्रण और पोषण वाले उद्योगों के बंद होने का दौर शुरू हो गया था, बिहार में भी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों बंद होने की घटनाएं कोई अलग से घट रही घटनाएं नहीं थीं. चौतरफा हलचलों के बीच बिहार से भी बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हुआ, जो देश के बड़े शहरों की ओर गये. राज्य का पुराना आर्थिक ढांचा ढह जरूर रहा था, लेकिन नया विकल्प बन नहीं पाया, जैसा कि दिल्ली के नजदीक होने के कारण हरियाण में बना, या अपेक्षाकृत साधन झ्रसंपन्न राज्य महाराष्ट्र में या नई तकनीकों के केंद्र बंगलोर आदि में. खुली अर्थव्यस्था के साथ फल झ्रफुल रहे इन केन्द्रों में बिहार से जो तबका गया, उसमें अभिमत बनाने की स्थिति में वही जमात थी, जो बिहार के नये राजनीतिक झ्रसामाजिक समीकरण के साथ अपने वर्चस्व को चुनौती मिलते हुए देख रही थी. इन्होने ह्यबिहार में जातिवादह्ण की घोषणा में अपनी अहम भूमिका निभाई.
इस दौर में मीडिया का स्वरूप और आकार बढ़ना शुरू हुआ. मीडिया को बिहार के लडकों ने अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर अपने लिए एक अवसर के रूप में तब्दील कर दिया. लेकिन शिक्षा के सामाजिक समीकरण का ही यह परिणाम था कि यहाँ भी जिन बिहारियों ने अपनी जगह बनाई वे बिहार के नये सामाजिक झ्रराजनीतिक परिवेश से त्रस्त अपने वर्चस्व को मिल रही चुनौती से संतप्त पिताओं की ही संतान थे. अभिमत निर्माण में इनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका रही. इसतरह बिहार की छवि गढ़ने और बिहार की नई राजनीतिक जमात के प्रति एक ख़ास सन्दर्भ में अभिमत बनाने का काम भी इन विस्थापित और वर्चस्व झ्रविमुख लोगों ने ही किया. इस दौर का शासन लालू झ्रराबडी का शासन रहा है, स्वाभाविक है कि इस तथाकथित ह्य जातिवादी राजनीतिह्ण के बनने के केंद्र भी वही करार दिये गये. इस जमात ने कर्पूरी ठाकुर जैसे सर्वकालिक महान नेता को सिर्फ नाई चिह्नित किये जाने वाले मुहावरों को या पिछड़ी जातियों के हक़ के लिए लड़ रहे जगदेव प्रसाद की ह्त्या को जातिवादी राजनीति के लक्षणों में नहीं चिह्नित किया, ह्यभूराबालह्ण और ह्य परबलह्ण जैसे जुमले ज्यादा जातिवादी दिखे इन्हें.
क्रमशः अपर कास्ट बंगाली, कायस्थ और भूमिहार झ्रब्राह्मण वर्चस्व के बाद बिहार में ऐतिहासिक तौर पर पिछड़ों की भागीदारी एक महत्वपूर्ण घटना है, इसकी पृष्ठभूमि देश के दूसरे राज्यों , उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, हरियाणा झ्रपंजाब आदि में सत्ता पर पीछे छूट गये जाति समूहों की दावेदारी के साथ बिहार में भी बनने लगी थी. इस नये परिवर्तन को अकादमिक जगत ने भी ह्यजातिवाद ह्य के रूप में ही चिह्नित करने की कोशिश की, लेकिन इन्ही वर्षों में अकादमिक संस्थानों में दलित झ्रपिछड़े बुद्धजीवियों के समूह के दाखिल होने से ह्य बढ़ते जातिवादह्ण के सिद्धांत को चुनौती भी मिलने लगी थी. क्योंकि यह समूह भागीदारी के नये परिदृश्य को पहले से ही विकृत जातिवाद के लिए चुनौती के रूप में चिह्नित कर रहा था.
राजनीति में जाति कोई नई परिघटना नहीं है, जिसके लिए बिहार बदनाम किया जाता रहा है. डा. आम्बेडकर का चुनाव हारने की घटना हो या महाराष्ट्र जैसे सामाजिक न्याय के संघर्षों के अगुआ राज्य में दलित राजनीति का सफल न होने का सच हो, राजनीति में जातिवाद के उदाहरण हैं. यह देश व्यापी रोग है. गया में मगही के साहित्यकार राधाकृष्ण राय एक घटना बताया करते थे कि पंडित यदुनंदन शर्मा, जो कि किसान नेता साह्जानंद सरस्वती के साथी थे, जिनके लिए गीत गया जाता था , ह्यलेलन यदुनंदन अवतार हो , हरे ला दुःख किसान केह्ण, उन्हें चुनाव में ऊंची जाति के किसानों, , जिसके लिए वे लड़ रहे थे, से टका सा जवाब मिला था, ह्य बेटी और वोट जात में ही दिया जाता है पंडित जीह्ण. वे चुनाव हार गए थे, और बाबू शत्रुघ्न सिंह चुनाव जीते. यदुनंदन शर्मा ब्राह्मण थे और बाबू शत्रुघ्न सिंह भूमिहार झ्रयह घटना आजादी के पूर्व के अंतरिम चुनाव की है , जो जाति और राजनीति के अंतर्संबंध को स्पष्ट करती है. लेकिन राजनीति में जातिवाद का जुमला ह्य सामाजिक न्यायह्ण की राजनीति के खिलाफ गढा गया, जिसमें वामपंथी अकादमिक जगत की भी भूमिका रही है.(लेखक स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच के संपादक हैं)
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